साभार…”फॉरेस्ट गंप” फिल्म में जब बच्चे की माँ अपने मंदबुद्धि बच्चे का एडमिशन सामान्य स्कूल में ही करवाने की जिद्द पकड़ती है तो उससे स्कूल का प्रिंसिपल क्रिस्चियन फॉदर इसकी कीमत उसका यौन शोषण करके वसूलता है। लेकिन “लाल सिंह चढ्ढा” फिल्म का क्रिस्चियन फॉदर तो बड़ा महान निकला। वह न तो बच्चे की माँ का यौन शोषण करता है, न उस परिवार को धर्मान्तरित करता है।
यहाँ तक कि जब लाल सिंह की माँ कहती है कि वो फॉदर के लिए प्रतिदिन खाना बनाकार लाया करेगी, जबतक उसका बच्चा उनके स्कूल में पढ़ेगा, तब वह महान फॉदर यह घूस लेने से भी मना कर देता है। भारत जैसे एक गरीब देश में जहाँ इसी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार का प्रलोभन देकर अभावग्रस्त हिन्दुओं का व्यापक पैमाने पर धर्मांतरण किया जाता रहा है; उसी देश की फिल्म इंडस्ट्री ने पिछले पचहत्तर वर्षों में “फॉदर डिसूजा” की ऐसी महान मिथक गढ़ी है कि जैसे वे “धर्मराज के सगे भतीजा” हों।
कम से कम लाल सिंह चढ्ढा फिल्म में फॉरेस्ट गंप के माँ के यौन शोषण का दृश्य गायब नहीं करना चाहिए था। यह मूल कथानक के साथ छेड़छाड़ है। यह फॉरेस्ट गंप फिल्म की एक महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि जब फॉदर बच्चे की माँ का यौन शोषण कर रहा होता है उस समय घर से बाहर बैठा मंदबुद्धि बालक जोर से चीखता है, जो यह बतलाता है कि उस मासूम बच्चे को भी अहसास है कि उसकी शारीरीक अक्षमता की कीमत उसके माँ से वसूली जा रही है। निस्संदेह, इस घटना का उसके जीवन पर गहरा प्रभाव रहा होगा। किसी भी कीमत पर इस घटना को फिल्म से बाहर नहीं निकाला जाना चाहिए था, पर आमिर खान पिछले पचहत्तर साल से गढ़े फॉदर डिसूजा की इमेज को ध्वस्त कैसे कर सकते थें?
यह फिल्म “पीके” से कहीं अधिक खतरनाक है। पीके प्रत्यक्ष रूप से हमारे भगवान का अपमान करता है जो सबको दिखाई देता है। वो भी इनकी उस समय की रणनीति का हिस्सा था। पर सोशल मीडिया के दिन पर दिन बढ़ते प्रभाव और सूचना क्रांति के क्षेत्र में विस्फोट ने सामान्य लोगों के भी बौद्धिक स्तर को बहुत ऊपर उठा दिया है। इसलिए आज प्रतीकों का महत्व बहुत बढ़ गया है। इसके माध्यम से अपने समर्थकों को गुप्त मेसेज दिया जाता है और न्यूट्रल लोगों के अवचेतन मन को हाइजैक करने का प्रयास किया जाता है।
इस फिल्म में दंगों के समय बहादुरी से गस्त कर रहे “इंडियन आर्मी” के लिए “मलेरिया” शब्द का प्रतीक गढ़ा गया है। इंडियन आर्मी एक वर्ग विशेष के लिए मलेरिया बीमारी की तरह ही है, जिससे मुक्त होने के लिए वो वर्ग हमेशा व्याकुल है। जिस वर्ग के सामूहिक अवचेतन मन में अपने देश की आर्मी के लिए अविश्वास और घृणा भरा पड़ा है, वो कभी इस देश की मुख्यधारा में शामिल हो ही नहीं सकती। और लाल सिंह चढ्ढा जैसी फिल्म प्रतीकों के माध्यम से उस अलगाव को न सिर्फ जिन्दा रखना चाहती है, बल्कि उसे और गहरा बनाना चाहती है।
इस फिल्म में एक-एक दृश्य के लिए ही सही आपातकाल, लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा, बाबरी विध्वंस, मंडल कमीशन, मुम्बई ब्लास्ट, लोकपाल के लिए अन्ना हजारे का आंदोलन, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद का पोस्टर यूँही नहीं दिखाया गया है। इन प्रतीकों के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी किस प्रकार सत्ता पर पहुँचकर जमकर बैठ गयी है उसकी एक पूरी राजनीतिक यात्रा को किसी वर्ग विशेष को याद रखवाने की कोशिश की जा रही है।
जब फिल्म में 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में कांग्रेसियों द्वारा सिख विरोधी हिंसक दंगा का दृश्य दिखाने का समय आया तब साजिश के तहत ऐसा दिखाया गया है जैसे कांग्रेसियों ने नहीं बल्कि हिन्दुओं ने सिखों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। लाल सिंह की माँ अपने बच्चे को बचाने के लिए उसके सिख धर्म के महत्वपूर्ण प्रतीक उसके केशों को स्वयं से काट देती है। यह आपत्तिजनक दृश्य सिख समुदाय के मन में हिन्दुओं के प्रति नफरत बढ़ानेवाला है। इसके माध्यम से सिखों और हिन्दुओं में विद्वेष फैलाने का प्रयास किया गया है।
इस फिल्म में कारगिल युद्ध के समय का घुसपैठिया आतंकवादी का हृदय परिवर्तन हो जाता है। वह “मुल्ला के इस्लाम” की जगह “अल्लाह के इस्लाम” का पैगाम फैलाने के लिए पाकिस्तान जाकर स्कूल खोल देता है। वही आतंकवादी जब लाल सिंह से पूछता है कि तुम कोई धार्मिक गतिविधि क्यों नहीं करते, तब लाल सिंह जवाब देता है कि धार्मिक काम से “मलेरिया” फैल जाता है अर्थात इससे “दंगा-फसाद” होता है। फिर यहाँ प्रतीक के माध्यम से धर्म पर हमला किया गया है। यहाँ एक सिख को जातीय चेतना से हीन बनाने की कोशिश हो रही है और ऐसी ही हीन चेतना वालों का पंजाब में तेजी से धर्मांतरण हो रहा है।
भले ही लाल सिंह चढ्ढा जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफल फिल्म साबित न हो पायें, पर जो यह फिल्मों के माध्यम से “डिजिटल डॉक्यूमेंटेशन” करते जा रहे हैं वो भविष्य के युवाओं के अवचेतन मन को बुरी तरह प्रभावित करेंगे। इनके प्रयासों को “नैरीटिव वॉर” की दृष्टि से देखें तो ये लोग अपने लक्ष्य को साधने में सफल हैं। यह बात इन्हें भी अच्छे से पता है कि आज देश का माहौल ऐसा है कि इस प्रकार की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बहुत अधिक सफल नहीं होंगी, फिर भी ये लोग ऐसी फिल्में लगातार बनाने का साहस दिखा रहे हैं। इनकी दिलेरी की दाद देनी पड़ेगी ।।
प्रस्तुति : ए के सिंह