महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन काल ( सन् १८८३ तक ) में उन संन्यासियों तथा प्रचारकों की संख्या बहुत कम थी , जो वैदिक धर्म के प्रचार तथा आर्यसमाजों की स्थापना में तत्पर हों । इस काल में आर्यसमाज का जो भी प्रचार व प्रसार हुआ , वह प्रायः महर्षि के ही कर्तृत्व का परिणाम था । पर फिर भी कुछ अन्य व्यक्ति भी इस समय में महर्षि के कार्य में हाथ बटाने में तत्पर थे ।
साधु – संन्यासी – महर्षि के जीवन काल में स्वामी आत्मानन्द , स्वामी ईश्वरानन्द और स्वामी सहजानन्द नाम के तीन संन्यासी आर्यसमाज के प्रचार में तत्पर थे । ये तीनों महर्षि के शिष्य थे , और उन्हीं से इन्होंने संन्यास आश्रम की दीक्षा ली थी । स्वामी आत्मा नन्द का कार्यक्षेत्र हरयाणा , राजस्थान और मध्य प्रदेश में था । हिमाचलप्रदेश के शिमला , और कांगड़ा आदि में भी उन्होंने धर्म प्रचार कर आर्यसमाजों की स्थापना की थी । १० जुलाई , १८८३ को महर्षि के नाम लिखे एक पत्र में उन्होंने अपने कार्य के सम्बन्ध में इस प्रकार परिचय दिया था- ” विदित हो कि मैं अप्रैल में शमल : ( शिमला ) पर्वत पर गया था वहीं आर्यसमाज में एक मास तक रहा आजकल कालका में रह रहा हूँ । यहाँ पर लाला गोपीनाथ के प्रबन्ध से आर्यसमाज है और अब यहाँ से मैं कसौली आर्यसमाज जाकर उपदेश करूंगा । ” इस पत्र में स्वामी आत्मानन्द ने यह भी लिखा है कि शिमला में आर्य समाज की स्थापना लाला ठाकरदास डाक्टर और पण्डित परमानन्द बाजपेयी के प्रयत्न से हुई है । पत्र के अन्त में महर्षि को सम्बोधन कर यह भी कहा गया है , कि ” आपकी कृपा चाहिए आर्यसमाज प्रति नगर ग्राम स्थापित हो जाएगी । ” स्वामी आत्मानन्द ने महर्षि को जो लिखा , उसे करके भी दिखाया ।
सन् १८८३ और उसके बाद जितने आर्यसमाज उन द्वारा स्थापित किए गए , उतने किसी अन्य ने नहीं किए । उनके प्रचार कार्य का परिचय प्रधानतया उन द्वारा लिखे गए पत्रों द्वारा ही प्राप्त होता है । स्वामी ईश्वरानन्द भी महर्षि के शिष्य थे , और संस्कृत व्याकरण तथा शास्त्रों के अध्ययन के साथ – साथ धर्मप्रचार के कार्य में भी व्याप्त रहते थे । उनका कार्यक्षेत्र हरयाणा तथा पंजाब में था । पानीपत ( जिला करनाल ) से महर्षि को लिखे हुए उनके अनेक पत्र उपलब्ध हैं , जिनसे सूचित होता है कि हरयाणा व पंजाब में उन्होंने आर्यसमाज का खूब प्रचार किया था । सितम्बर , १८८३ के एक पत्र में उन्होंने लिखा है , के कि ” वर्तमान समय पर शहर पानीपत के लोगों से आर्यसमाज की स्थापित होने पर अत्युत्मता पाई जाती है … श्रीमानों को विदित हो कि एक नया समाज शहर पानीपत में भी हो गया है । ” पानीपत में स्वामी ईश्वरानन्द का ठिकाना बाजार बजाजा में चिरंजीवलाल कन्हैयालाल की दुकान पर था , और उसके मालिक लाला चिरंजीवलाल तथा ज्वालाप्रसाद नाम के एक अन्य सज्जन जो मूलतः धनौरा ( जिला मुरादाबाद ) के निवासी थे , पानीपत में आर्य समाज की स्थापना में विशेष उत्साह प्रदर्शित कर रहे थे । उनके अतिरिक्त लाला कसुम्भरी दास , लाला सालगराम , लाला ताराचन्द , लाला मुरलीघर , श्री गणेशीलाल और पण्डित श्रीनिवास का भी पानीपत आर्य समाज की स्थापना में महत्त्वपूर्ण कर्तव्य था । पण्डित श्रीनिवास को समाज द्वारा अपना पण्डित या पुरोहित भी नियुक्त कर दिया गया था । स्वामी ईश्वरानन्द के जो पत्र उपलब्ध हैं , उनसे पानीपत में उनके कार्य का परिचय समुचित रूप से प्राप्त हो जाता है । यह कल्पना असंगत नहीं है , कि हरयाणा तथा समीप के अन्य क्षेत्रों में भी उन द्वारा धर्मप्रचार किया गया था । महर्षि दयानन्द सरस्वती के एक अन्य शिष्य स्वामी सहजानन्द थे ।
महर्षि की सेवा में लिखे हुए उनके जो पत्र श्री मुंशीराम कृत ‘ ऋषि दयानन्द के पत्रव्यवहार में संकलित हैं , वे गुजरांवाला , फरीदकोट और मुलतान आदि से लिखे हुए हैं । इससे ज्ञात होता है , कि स्वामी सहजानन्द पंजाब तथा सिन्ध में धर्मप्रचार में तत्पर थे । सन् १८८३ के ज्येष्ठ मास के पत्र में उन्होंने लिखा था- ” आप के अनुग्रह से इन दिनों मैं महाराज विक्रमसिंह फरीदकोटाघीश को व्याख्यान श्रवण कराता हूँ । उक्त वर राजवंसाधीश ने मुझको फीरोजपुर से बुलवाया है । ” ६ मई , १८८३ के पत्र में स्वामी सहजानन्द ने लुधियाना , अमृतसर और लाहौर जाने का उल्लेख किया है । मई , १८८३ के अन्त में वह फीरोजपुर आ गए थे , और वहाँ प्रचार कर जुलाई के आरम्भ तक मुलतान पहुँच गए थे । २७ जुलाई को वे सक्खर गए , और वहाँ आर्यसमाज के कार्य से संतोष अनुभव किया । अगस्त में वे शिकारपुर ( सिन्ध ) में थे । १२ अगस्त १८८३ पत्र में उन्होंने लिखा है— “ शिकार पुरस्थं विद्धि निवासं मदीयं शिकारपुर में भी समाज अस्थित हो गया , आपकी कृपा से यहां का प्रधान चाण्डूमल भाटिया जब साहेब का वकिल मसन्द प्रीतमदास मन्त्री । ” भंग में भी तब आर्यसमाज की स्थापना की चर्चा थी । ११ सितम्बर , १८८३ के पत्र में स्वामी सहजानन्द ने लिखा था ” सक्खर का समाचार अच्छा है अब आपकी कृपा से यदि भंग से लोगों ने बुलवाया तो मैं भंग जाऊँगा वहाँ पर भी समाज स्थापित लोगों ने करने को चाहता है । ” महर्षि जब पंजाब में वैदिक धर्म का प्रचार कर रहे थे , तो गुजरात , जेहलम और वजीराबाद में भी आर्यसमाज स्थापित हो गए थे ।
स्वामी सहजानन्द के 8 अक्तूबर , १८८३ के पत्र से सूचित होता है , कि इन समाजों की दशा ठीक नहीं थी । ” महाराज , इन दिनों में गुजरात में हूँ । यहाँ की समाज भी बहुत ही टूट गई थी परन्तु श्रीयुत् बाबू दयाराम मास्टर मुलतान से आकर बहुत तरकीब की है गुजरात समाज की , और झेलम समाज भी टूट गई है और ओोजिराबाद की समाज भी टूट गई क्योंकि बिना उपदेशक समाज क्योंकर अस्थिर रहें यहाँ पर कोई समाज ऐसी नहीं जो एक उपदेशक समाज से रख कर समाज से उसको उपदेशार्थं खर्च दे । जो हरेक समाज में उपदेश करता रहे तो कभी समाज में हानि न हो दिन प्रतिदिन उन्नति होती जाए कभी समाज ऐसी दशा की प्राप्ति हो कभी नहीं यह सब प्रवन्ध लाहौर समाज को करना चाहिए क्योंकि सब समाज उसी के आश्रय हैं । ” यह असंदिग्ध है , कि सन् १८८३ में स्वामी सहजानन्द पंजाब तथा सिन्ध में कार्यरत थे । पर इससे पहले वे बिजनौर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र में वैदिक धर्म के प्रचार तथा आर्यसमाजों की स्थापना में तत्पर थे , यह पिछले एक अध्याय में लिखा जा चुका है । एक अन्य आर्य साधु स्वामी आत्माराम थे जो कराची के निवासी थे । बम्बई आर्यसमाज के मन्त्री श्री सेवकलाल कृष्णलाल के २५ जून , १८८३ के पत्र से ज्ञात होता है कि वे मई मास से बम्बई में धर्मप्रचार कर रहे थे । महर्षि के एक शिष्य ब्रह्मचारी रामानन्द थे जो प्रायः उन्हीं के साथ रहा करते थे । उनकी शिक्षा की व्यवस्था महर्षि द्वारा की गई थी , और वह चिरकाल तक उनके निजी सहायक के रूप में कार्य करते रहे थे । बाद में ब्रह्मचारी रामानन्द ने संन्यास ले लिया था , और उनका नया नाम स्वामी शंकरानन्द हुआ था । महर्षि के जीवन काल में ये ही प्रमुख आर्य संन्यासी थे , जो विविध स्थानों पर वैदिक धर्म के प्रचार के लिए कार्य कर रहे थे ।
लेखक – डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार
पुस्तक – आर्यसमाज का इतिहास – 1
प्रस्तुति – अमित सिवाहा
नोट – ये दुर्लभ फोटो श्री सुदर्शन देव आर्य, आर्यसमाज बड़ा बाजार सोनीपत वाले ने भेजा है।