गांधीजी की हत्या और संघ के प्रति षडयंत्र 

एक ओर जहां दुनिया राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की ६७वीं पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करते हुए उनके आदर्शों और शिक्षाओं को आत्मसात कर श्रद्धांजलि अर्पित कर रही है, वहीं इतने वर्षों बाद भी राष्ट्र को देवी रूप में पूजने वाले विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन संघ को उनकी हत्या के षड़यंत्र से जोड़ने की कृसित मानसिकता राजनीतिक लाभ-हानि की दृष्टि की परिचायक है। हाल ही में ऐसी खबरें आई थीं कि हिंदू महासभा के कुछ नेता गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर बनवाना चाहते हैं। यहां तक कि कुछ उन्मादी महासभा के नेताओं ने तो बाकायदा गोडसे पर एक फिल्म भी बना डाली थी जो गांधीजी की हत्या से जुड़े विवादों पर अपना पक्ष रखने का जरिया थी। हालांकि महासभा की इन दोनों कोशिशों को न तो राजनीतिक संरक्षण मिला और न ही जनसमर्थन। किन्तु इस बहाने संघ के प्रति विवाद और विरोध का जो रूप सामने आया उसने विचारधाराओं के ऐसे द्वंद्व को धरातल पर उकेरा है जिसमें आक्षेप की राजनीति का पुट अधिक जान पड़ता है। आज भी संघ का नाम गांधीजी की हत्या से जोड़ना भारतीय न्याय व्यवस्था और लोकतांत्रिक मान्यताओं का मखौल बनाना है, जिनपर जनता की आस्थाएं टिकी होती हैं। एक सच्चा संघ स्वयंसेवक गांधीजी के दिखाए रास्ते पर चलता है, उनकी पहचान बन चुकी लाठी को धारण करता है, अहिंसा के सिद्धांत को आदर्श मानता है, जात-पांत को नकारता है, राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निष्ठापूर्वक वहन करता है। यदि संघ को बदनाम करने वाले कुछेक समूहों को संघ स्वयंसेवक की लाठी हथियार प्रतीत होती है तो यकीन मानिए उनका गांधी में भी विश्वास नहीं है।

इतिहास को अपनी मर्ज़ी से थोपने वाले आरोप लगाने की जल्दबाजी में शायद यह भूल जाते हैं कि संघ में गांधीजी को पूजनीय माना जाता है। गांधीजी और संघ का रिश्ता ऐसी महीन लकीर पर चलता था जिसे जान-बूझकर असहमति का रूप दिया गया। प्रखर राष्ट्रवादी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, जिन्होंने १९२५ को विजयादशमी के पावन पर्व पर अपने विश्वस्त साथियों के साथ विचार-विमर्श कर नागपुर में संघ कार्यपद्धति का श्रीगणेश किया, स्वयं गांधीजी के पुराने सहयोगी थे। दरअसल, डॉ. हेडगेवार ने अखंड हिन्दुस्थान के जिस सपने के साथ संघ स्थापना की थी, उसका लक्ष्य बहुत बड़ा एवं विस्तारित परिपेक्ष्य में था, जिसे मात्र स्वाधीनता के लक्ष्य से पूरा नहीं किया जा सकता था। संघ के दर्शन में शुरू से ही एकता की प्रक्रिया के माध्यम से हिन्दुस्थान को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना और समस्त समुदायों का राष्ट्र की जीवनधारा में सम्मिलित होना सर्वोपरि है। कमोबेश यही विचार गांधीजी के भी थे। वे भी हिन्दुस्थान के विश्व गुरु बनने के सपने को जीते थे। 1934 में महात्मा गांधी ने वर्धा (महाराष्ट्र) में संघ के शिविर का दौरा किया था। संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से उनकी भेंट भी हुई। ऐसा प्रचारित किया गया है कि गांधीजी संघ विचारधारा के प्रति आशंकित थे किंतु वर्धा में संघ शिविर के दौरे के पश्चात उन्होंने इसे प्रखर राष्ट्रवादी एवं सामाजिक संगठन कहा था। डॉ. हेडगेवार खुद गांधीजी के बहुत बड़े प्रशंसक थे। यहां तक कि गांधीजी के असहयोग आंदोलन में उन्‍होंने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया था। डॉ. हेडगेवार गांधीजी के उस दर्शन से बहुत प्रभावित थे कि आजादी मिलेगी तो अहिंसा से, हिंसा से नहीं। डॉ. हेडगेवार का भी मानना था कि अहिंसा का मार्ग स्‍वतंत्रता प्राप्ति का सर्वोत्‍तम मार्ग है। डॉ. हेडगेवार और गांधीजी में एक समानता यह भी थी कि दोनों ही खादी का प्रयोग करते थे और अपने अनुयायियों को भी इसके इस्‍तेमाल हेतु प्रेरित करते थे। गांधीजी, डॉ. हेडगेवार की कांग्रेसी पृष्‍ठभूमि, उनकी शिक्षा, आजीवन अविवाहित रहकर राष्‍ट्र के लिए समर्पण के उनके भाव का आदर करते थे, वहीं डॉ. हेडगेवार गांधीजी के चिंतन एवं नैतिक बल के प्रशंसक थे। संघ में यह स्‍पष्‍ट था कि डॉ. हेडगेवार का कहना संघ स्‍वयंसेवकों के लिए आदेश होता था जिसे पूर्ण करना वे अपना कर्तव्‍य समझते थे। गांधीजी द्वारा आव्‍हान किए गए आंदोलनों में डॉ. हेडगेवार के आदेश का संघ स्‍वयंसेवकों ने अक्षरक्ष: पालन किया और गांधीजी के दिखाए मार्ग पर चले। इतना तो स्‍पष्‍ट था कि संघ स्‍वयंसेवकों में गांधीजी के प्रति आदर-भाव था और डॉ. हेडगेवार के आदेश के बिना वे कोई कार्य नहीं करते थे। तब ऐसी क्‍या परिस्थितियां निर्मित हुईं कि गांधीजी की हत्‍या की गई और उसमें संघ को षड़यंत्र कर फंसाने की चेष्‍टा हुई?

दरअसल, 1906 में मुस्लिम लीग की स्‍थापना के बाद स्‍वा‍धीनता आंदोलन में हिंदू-मुसलमान दो ध्रुव बन गए थे। एक ओर मुस्लिम लीग मुसलमानों की नुमाइंदगी कर रही थी तो हिंदू महासभा ने हिंदुत्‍व के एजेंडे को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था। हालांकि 1940 तक आते-आते संघ की गिनती कांग्रेस के बाद दूसरे सबसे बड़े संगठन के रूप में होने लगी थी। जाहिर है, कांग्रेस के एक गुट (जो भारत की स्‍वाधीनता पर अपना जन्‍मसिद्ध अधिकार समझता था) को संघ की बढ़ती ताकत नागवार गुजरी और उसने संघ के राष्‍ट्रवाद को हिंदू-मुसलमान के बीच वैमनस्‍य फैलाने का नाम दे दिया। जिस प्रकार मुस्लिम लीग पृथक मुस्लिम राष्‍ट्र की मांग कर रही थी, उसी प्रकार षड़यंत्र कर संघ का नाम भी पृथक हिंदू राष्‍ट्र की मांग से जोड़ दिया गया। यहां तक कि संघ को हिंदू महासभा का पिछलगु होने का तमगा भी दे डाला। जबकि सच्चाई यह है कि डॉ. हेडगेवार ने स्‍वयं कई बार हिंदू महासभा को संघ के कार्यों से पृथक बताया था। उन्‍होंने महासभा के राजनीतिक प्रस्‍तावों से ज्‍यादा महत्‍व कांग्रेस के प्रस्‍तावों को दिया। कुछ हद तक वैचारिक सहमति होने के बावजूद उन्‍होंने संघ को कभी हिंदू महासभा की छाया नहीं बनने दिया। ऐसे कई मौके आए जबकि डॉ. हेडगेवार हिंदू महासभा की राय से जुदा दिखे। डॉ. हेडगेवार मुस्लिम लीग की कट्टरता और हिंदू महासभा की उग्रता दोनों को गलत मानते थे। उनका मानना था कि राष्‍ट्रीयता के प्रश्‍न पर दो मतों को मानने वालों की राय अलग-अलग नहीं हो सकती। उन्‍होंने यह प्रश्‍न भी उठाया कि क्‍या भारत में सिर्फ हिंदू-मुसलमान रहते हैं, अन्‍य धर्मों के धर्मालंबियों की स्‍वतंत्रता और अधिकारों का क्‍या? इसी बीच 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग का ‘डायरेक्ट एक्शन’ आंदोलन शुरू हुआ। कलकत्ता में 5000 हिंदुओं की हत्या हुई तथा 15000 से अधिक जख्मी हुए। पूरे देश में 300 से भी अधिक सहायता शिविर हिंदू शरणार्थियों के लिए चलाए गए। संघ के हिंदुओं के प्रति समर्पण को देखकर 16 सितंबर 1947 को गांधीजी ने दिल्‍ली में 500 स्‍वयंसेवकों को संबोधित भी किया। आज़ादी के बाद तो हिन्दुओं पर एकाएक अत्याचारों का सिलसिला बढ़ गया था। उस दौर की तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार गांधीजी अल्पसंख्यक हितों के लिए जो प्रयत्न कर रहे थे वे यदि उन्मादी युवकों को रास नहीं आए तो इसमें संघ की कैसी गलती?

चूंकि एक बड़े वर्ग ने षड़यंत्रपूर्वक संघ के नाम को गांधीजी की हत्या से जोड़कर जनता को भ्रमित किया लिहाजा वही परिपाटी आज तक जारी है। संघ विरोधियों ने गांधीजी की हत्‍या के विषय में अनेकानेक झूठी बातें फैलाईं। मसलन, हत्‍यारा गोडसे संघ का है, उसने अपना अपराध स्‍वीकार कर लिया है आदि। उस काल के समाचारपत्रों में भी संघ के विषय में विषवमन किया जाता था। संघ पर हिंसक संगठन होने का आरोप तक लगा दिया गया। हालांकि यह सभी आरोप प्रमाण रहित थे। 27 फरवरी 1948 को जवाहरलाल नेहरू को भेजे गए पत्र में सरदार पटेल ने लिखा था कि अभियुक्‍तों के बयान से यह‍ स्‍पष्‍ट है कि षड़यंत्र का कोई भी भाग दिल्‍ली में नहीं रचा गया। बयानों से यह बात भी सामने आती है कि इसमें संघ का हाथ एकदम नहीं था। हिंदू महासभा के उन्‍मादी लोगों ने यह षड़यंत्र रचा और क्रियान्वित किया। गांधी हत्‍या से जुड़ा मुकदमा दिल्‍ली के ऐतिहासिक लाल किले में 22 जून 1948 को शुरू हुआ था। मुकदमे के दौरान जो फैसला दिया गया उसमें संघ को कहीं दोषी नहीं ठहराया गया। इससे मजबूर होकर तत्कालीन सरकार को भी संघ पर से प्रतिबंध हटाना पड़ा। हालांकि न्‍यायालय के आदेश के बाद भी एक समूह विशेष संघ को गांधीजी के हत्‍यारे के रूप में प्रस्‍तुत करने पर आमादा था और इस हेतु उसने नवंबर 1966 में गांधी हत्‍याकांड की तहकीकात के लिए एक और जांच कमीशन बिठाया। इसके अध्‍यक्ष सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्‍यायाधीश जेएल कपूर थे और इसे कपूर कमीशन के नाम से जाना जाता है। कपूर कमीशन के समक्ष आर.एन बनर्जी जो गांधीजी की हत्‍या के समय केंद्रीय सरकार के गृह सचिव थे, उन्‍होंने भी यह माना था कि ‘यह सिद्ध नहीं हुआ कि वह (अभियुक्‍त) संघ के सदस्‍य थे।’ बनर्जी ने तो यहां तक कहा था कि ‘यद्यपि संघ पर प्रतिबंध लगा, किंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि भारत सरकार यह मानती है कि गांधीजी की हत्‍या संघ के सदस्‍यों ने की।’ मैं संघ विरोधियों को जो यह मानते हैं कि संघ गांधीजी की हत्‍या से प्रसन्‍न था, बताना चाहता हूं कि गांधीजी की हत्‍या की तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने निंदा की थी और 13 दिन तक शोक मनाने की घोषणा की थी। इस दौरान शाखाओं को भी बंद कर दिया गया। मैं स्तब्ध हूं कि सभी झूठे आरोपों से दोषमुक्त होने के बाद भी राजनीतिक कारणों की वजह से संघ पर जबरन थोपा गया बदनामी का दाग हमेशा ज़िंदा रखने की कोशिशें ज़ारी हैं। संघ विचारधारा के प्रतिद्वंद्वी हमेशा से संघ को नीचा दिखाने के जतन करते रहते हैं किन्तु राष्ट्रपिता की हत्या का जो दाग संघ पर चिपका हुआ है, उसे अब जनता को सच बताकर ही धोया जा सकता है, अन्यथा संघ विरोधी हमेशा संघ को बदनाम करते रहेंगे और इसके अच्छे कार्य कभी दुनिया के समक्ष नहीं आ सकेंगे। गांधीजी की पुण्यतिथि से ही इसकी शुरुआत हो ताकि उनकी शहादत पर ओछी राजनीति न हो सके।

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