ओ३म्
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वेद मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव को महत्व देते हैं। जो मनुष्य श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाला है वह द्विज और गुण रहित व अल्पगुणों वाला है उसे शूद्र कहा जाता है। द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य को कहते हैं जो गुण, कर्म व स्वभाव की उत्तमता से होते हैं। ब्राह्मण वह होता है जो वेद आदि ग्रन्थों का ज्ञान रखने के साथ विद्या का पढ़ना व पढाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना व लेना यह छः कर्म करते हैं। मनुस्मृति के अनुसार अपने लिए दान लेने को नीच कर्म बताया गया है। ब्राह्मणों के विषय में ऋषि लिखते हैं कि मन से बुरे काम की इच्छा भी न करनी और उस मन को अधम्र्म में कभी प्रवृत्त न होने देना, श्रोत्र और चक्षु आदि इद्रियों को अन्यायाचरण से रोक कर धर्म में चलाना, सदा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना। जल से बाहर के अंग, सत्याचार से मन, विद्या और धर्मानुष्ठान से जीवात्मा और ज्ञान से बुद्धि पवित्र होती है। भीतर के राग, द्वेषादि दोष और बाहर के मलों को दूर कर शुद्ध रहना अर्थात् सत्यासत्य के विवेक पूर्वक सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग से निश्चय ही पवित्र होता है। निन्दा स्तुति, सुख दुःख, शीतोष्ण, क्षुधा तृषा, हानि लाभ, मानापमान आदि हर्ष शोक को छोड़ के धम्र्म में दृढ़ निश्चय रहना। कोमलता, निरभिमान, सरलता, सरलस्वभाव रखना, कुटिलतादि दोष छोड़ देना। सब वेदादि शास्त्रों को सांगोपांग पढ़ने पढ़ाने का सामथ्र्य, विवेक अर्थात् सत्य का निर्णय करना। जो वस्तु जैसी हो अर्थात् जड़ को जड़ चेतन को चेतन जानना और मानना। विज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को विशेषता से जानकर उन से यथायोग्य उपयोग लेना, कभी वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्व परजन्म, धर्म, विद्या, सत्संग, माता, पिता, आचार्य और अतिथियों की सेवा को न छोड़ना और निन्दा कभी न करना। यह पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहिये। उपर्युक्त ब्राह्मण वर्ण के लक्षण व योग्यतायें भगवद्गीता और मनुस्मृति के आधार पर कहे गये हैं।
अब क्षत्रिय वर्ण के लक्षणों पर भी दृष्टि डालते हैं। क्षत्रिय का काम न्याय से प्रजा की रक्षा करना अर्थात् पक्षपात छोड़कर श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, सब प्रकार से सब का पालन, दान अर्थात् विद्या, धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना तथा पढ़ाना और विषयों में न फंस कर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना। सैकड़ों सहस्रों से भी युद्ध करने में अकेले को भय न होना, सदा तेजस्वी अर्थात् दीनतारहित प्रगल्भ दृढ़ रहना। धैर्यवान होना, राजा और प्रजासम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना, युद्ध में भी दृढ़ निःशंक रह के उस से कभी न हटना न भागना अर्थात् इस प्रकार से लड़ना कि जिस से निश्चित विजय होवे, आप बचे, जो भागने से वा शत्रुओं को धोखा देने से जीत होती हो तो ऐसा ही करना। दानशीलता रखना। पक्षपात रहित होके सब के साथ यथायोग्य वर्तना, विचार के देवें, प्रतिज्ञा पूरा करना, उस को कभी भंग होने न देना। यह 11 क्षत्रिय वर्ण के गुण भी मनुस्मृति और भगवद्गीता के आधार पर हैं।
वैश्य के गुण, कर्म व स्वभाव यह हैं कि गाय आदि पशुओं का पालन-वर्धन करना, विद्या धर्म की वृद्धि करने कराने के लिये धनादि का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, सब प्रकार के व्यापार करना, एक सैकड़े में चार, छः, आठ, बारह वा बीस आनों (प्रति वर्ष) से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात् एक रुपया दिया तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना और न देना तथा खेती करना।
शूद्र वर्ण गुण, कर्म व स्वभाव से होता है। वैदिक वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण जन्म से नहीं होता है। विद्या शून्य मनुष्य जो स्वस्थ शरीर और सद्गुणों को धारण किये हों वह शूद्र कहलाते हैं। शूद्र मनुष्य को योग्य है कि वह निन्दा, ईष्र्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़ के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा यथावत् करनी और उसी से अपना जीवन-यापन करना यही एक शूद्र का कर्म व गुण है। वर्ण व्यवस्था विषयक उपर्युक्त बातें ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में कही हैं। वह कहते हैं कि उन्होंने उपर्युक्त बातें संक्षेप से वर्णों के गुण और कर्म विषयक कही हैं। जिस-जिस पुरुष में जिस-जिस वर्ण के गुण कर्म हों, उसको उस-उस वर्ण का अधिकार देना। ऐसी व्यवस्था रखने से सब मनुष्य उन्नतिशील होते हैं। (आजकल लगभग व कुछ कुछ यही व्यवस्था वर्तमान हैं। -लेखक) क्योंकि उत्तम वर्णों को भय होगा कि जो हमारे सन्तान मूर्खत्वादि दोषयुक्त होंगे तो शूद्र हो जायेंगे ओर सन्तान भी डरते रहेंगे कि जो हम उक्त चालचलन ओर विद्यायुक्त न होंगे तो शूद्र होना पड़ेगा। और क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के मनुष्यों को उत्तम वर्णस्थ होने के लिए उत्साह बढ़ेगा।
ऋषि दयानन्द आगे कहते हैं कि विद्या और धर्म के प्रचार का अधिकार ब्राह्मण को देना क्योंकि वे पूर्ण विद्यावान् और धार्मिक होने से उस काम को यथायोग्य कर सकते हैं। क्षत्रिय को राज्य के अधिकार देने से कभी राज्य की हानि वा विघ्न नहीं होता। पशुपालन आदि का अधिकार वैश्यों ही को होना योग्य है क्योंकि वे इस काम को अच्छे प्रकार कर सकते हैं। शूद्र को सेवा का अधिकार इसलिये है कि वह विद्या रहित मूर्ख होने से विज्ञान सम्बन्धी काम कुछ भी नहीं कर सकता किन्तु शरीर के काम सब कर सकता है। इस प्रकार वर्णों को अपने-अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजा आदि सभ्य जनों का काम है।
हमने ऋषि दयानन्द वर्णित वैदिक वर्ण-व्यवस्था का वेद, मनुस्मृति, भगवद्गीता आदि के आधार पर उल्लेख किया है। इसमें कहीं किसी के साथ किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है। यह व्यवस्था महाभारत युद्ध से कुछ वर्ष पूर्व तक भली भांति चली। उसके बाद उसमें शिथिलता आनी आरम्भ हो गई थी। लगभग 1300-1400 वर्ष पूर्व यह वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गई। इसके बाद से जन्मना जाति के आधार पर भेदभाव आरम्भ हो गया। स्त्री व शूद्र वर्ण के बन्धुओं को विद्या के अधिकार से निषिद्ध कर दिया गया। इससे भारत में मनुष्य समाज का घोर पतन हुआ। सोमनाथ, कृष्ण जन्म भूमि, काशी विश्वनाथ आदि सहित सहस्रों मन्दिरों का विध्वंस मुस्लिम व अंग्रेजों की गुलामी के दिनों में हुआ। इस पतन का कारण हमारी जन्मना जातीय सामाजिक भेदभाव पूर्ण व्यवस्था सहित अवैदिक वा वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष आदि अन्धविश्वास आदि कार्य रहे।
यह बता दें कि महर्षि दयानन्द सितम्बर, 1876 में वेद प्रचारार्थ लखनऊ आये थे। लखनऊ के रईस लाला ब्रजलाल ने उनके पास 26 प्रश्न समाधानार्थ भेजे थे जिनके ऋषि दयानन्द जी ने सटीक उत्तर लिखवाये और उन्हें लाला ब्रजलाल को भिजवाया दिया था। उन 26 प्रश्नों में से पहला प्रश्न था ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र किस प्रकार हैं और किसने बनाये हैं? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा कि कर्मों की दृष्टि से चारों वर्ण ठीक हैं और लोक व्यवहार से ठीक नहीं है अर्थात् जो जैसा कर्म करे वैसा उसका वर्ण है। उदाहरणार्थ, जो ब्रह्म विद्या जाने वह ब्राह्मण, जो युद्ध करे वह क्षत्रिय, जो जो लेन-देन, हिसाब-किताब करे वह वैश्य और जो सेवा करे वह शूद्र है। यदि ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति क्षत्रिय या शूद्र का काम करे तो ब्राह्मण नहीं। सारांश यह है कि वर्ण कर्मों से होता है, जन्म से नहीं। जन्म से (गुण, कम व स्वभाव से नहीं) यह चारों वर्ण लगभग बारह सौ वर्ष से बने हैं (यह वाक्य ऋषि दयानन्द ने सितम्बर, 1876 में लिखे थे)। जिसने जन्म से यह वर्ण बनाये उसका नाम इस समय स्मरण नहीं परन्तु महाभारत आदि के पीछे बने हैं। ऋषि दयानन्द के इन वचनों वा प्रमाण से यह स्पष्ट होता है कि जन्मना जाति व्यवस्था वा विकृत वर्ण-व्यवस्था अब से लगभग 1350 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आयी थी। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में हजारों ग्रन्थ पढ़े थे जिसमें से वह 3000 ग्रन्थों को प्रामाणिक मानते थे। उन सब ग्रन्थों का निष्कर्ष ऋषि के उक्त विचार हैं जो गहन शोध व अनुसंधान का परिणाम हैं। अतः सभी आर्यसमाज के विद्वान व सदस्यों को यह ज्ञात होना चाहिये कि जन्मना जाति व्यवस्था अब से लगभग 1350 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आयी है। इससे पूर्व जन्मना जाति सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं होता था। तेईस सौ वर्ष पूर्व हुए चाणक्य के काल में जन्मना जातिवाद नहीं था। यदि होता तो आजकल की तरह सबके नाम के साथ जन्मना जाति सूचक शब्द जुड़े हुए होते। यह आचार्य चाणक्य के बहुत वर्षों बाद प्रचलित हुआ। अतः ऋषि दयानन्द की यह घोषणा व खोज तर्क व प्रमाणों के आधार पुष्ट होने से ग्राह्य है।
हमने इस लेख में वैदिक वर्ण व्यवस्था के प्रामाणिक विद्वान ऋषि दयानन्द के विचार दिये हैं। उन्हीं के वचनों के आधार पर जन्मना जाति व्यवस्था के प्रचलित होने की जानकारी भी दी है। बहुत से पढ़े लिखे लोग कई बार बिना छानबीन किए कह देते हैं कि जन्मना जाति व्यवस्था हजारों व लाखों वर्षों से चल रही है। यह पूर्णतया अप्रामाणिक है। इसका निराकरण करने के लिए ही हमने यह पंक्तियां लिखी हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य