श्रावणी का वैदिक स्वरूप
श्रावण माह अज्ञानियों के लिए ज्ञान का संदेशवाहक बनकर आता है और जनसामान्य को कल्याणपथ पर चलने की ओर प्रेरित करता है। गर्मी के बाद जब वर्षा होती है, तो मानव चित्त वातावरण के अनुकूल होने से शान्त रहता है तथा मन प्रसन्न रहता है। श्रावणी का उत्सव इसी वर्षा के साथ आता है और चराचर जगत् को आनन्दित और उल्लासित करता है। बहिनें, भाइयों को राखी बांध उनसे आत्मरक्षण और अभय की आशा रखती हैं। स्त्री, पुरुष, पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधु आदि जन यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनकर ऋषि, पितृ तथा देव ऋणों से उऋण होने का संकल्प लेते हैं। वेदपथिक अपने पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करते हुए आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़ते हैं। सम्पूर्ण वातावरण वैदिक ऋचाओं से गुंजित होता है। तात्पर्य यह है कि श्रावण आत्मोन्नतिपथ का माह है।
श्रावणी का सन्देश वेदादि ग्रन्थों में दिये उपदेशों से सम्बन्ध रखनेवाला है। बृहदारण्यक उपनिषद् (२/४) में जगमाया की छाया से अभिभूत होकर “येनाहं नामृता स्यां, किमहं तेन कुर्याम्?” “अमृतत्वस्य तु नाशाऽस्ति वित्तेन” के तंत्री-नाद को सुनने में लीन हुई मैत्रेयी को ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने जो उपदेश दिया था वही श्रावणी का सन्देश है- “आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।” आत्मा का दर्शन करना चाहिए, कैसे? श्रवण, मनन एवं साक्षात्कार (निदिध्यासन) के द्वारा। श्रवण के बिना मनन एवं निदिध्यासन निस्सार है। अथर्ववेद के कुन्तापसूक्त में उद्बोधन है-
पृष्ठं धावन्तं हर्योरौच्चैः श्रवसमब्रुवन्।
स्वस्त्यश्व जैत्रायेन्द्रमा वह सुस्रजम्।। -अथर्व० २०/१२८/१५
अर्थात् हे ऊंचा सुनने वाले! कल्याण मार्ग में विजयी होने के लिए इन्द्र को माला पहिना, आत्मा की स्तुति कर।
इस मन्त्र में आत्मा का वेदमन्त्रों से अलंकरण करने का कितना सुन्दर, मधुर और मनमोहक उपदेश है। आत्मा की धीमी आवाज को कोई “नीचै: श्रवा” ज्ञानी पुरुष ही सुन सकता है। इसी दैवी आवाज को सुनाने के लिए ही श्रावणी आकर कर्णकुटी के आसपास जोर-शोर से कहती है-
एतं पृच्छ कुहं पृच्छ, कुहाकं पक्वकं पृच्छ।। -अथर्व० २०/१३०/५,६
अर्थात् रे नादान! आत्मा के बारे में किसी परिपक्व विचार ज्ञानी भक्त से पूछ।
शास्त्रों ने एक ओर जहां आत्मश्रवण द्वारा अभ्युदय प्राप्ति का उपदेश दिया है, वहीं इसके श्रवणद्वार तक पहुंचने का साधन भी बतलाया है; गुरुमुख और ग्रन्थमुख।
(क) गुरुमुख से- आत्मा के श्रवण का एक मार्ग अज्ञान को दूर करने वाले गुरुमुख से उपदेश सुनना है। मुण्डकोपनिषद् (१/२/१२) में आया है-
“तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।”
अर्थात् हृदय के काम, क्रोधादि विकारों की समिधाओं को गुरु की अग्नि में डालकर, ब्रह्मज्ञान के महानल में राख बनाकर ही शिष्य सच्ची गुरुसेवा और अग्निहोत्र के तत्व को समझ सकता है।
यद्यपि इस संसार में सच्चे गुरु की प्राप्ति दुर्लभ है, तब ऐसी स्थिति में अन्तःकरण में एक प्रश्न ध्वनित होता है कि क्या सच्चा गुरु न मिलने से आत्मा की आवाज को दबा देना चाहिए? यह कृत्य आत्मा के स्वभाव के सर्वथा विपरीत है। सच्चे मनोनीत गुरु की तलाश में पल-पल मग्न होते हुए भी प्राचीन गुरुओं के रूप में वेदाधारित आध्यात्म ग्रन्थों का सहारा लेना चाहिए।
(ख) ग्रन्थमुख से- आर्ष ग्रन्थ आत्मा को मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले दर्पण हैं। वेद, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां नाना मुख से उसी सच्चिदानन्दस्वरूप जगदीश्वर का गान करते हैं। सत्यग्रन्थ आत्मा के वे गुरु हैं जो विदेह और वीतराग होते हुए भी निष्पक्ष रूप से ज्ञान का अमर उपदेश किया करते हैं।
इसी श्रावण माह में प्रकृति भी आंखमिचौली खेलते हुए आत्मा की झांकी लेने का अवसर प्रदान करती है। वह ब्रह्मचर्य का महान् पाठ सिखाती है। वर्षा का ठण्डा जल, पेड़-पौधों की सुनहरी हरियाली, नदियों की कलकल ध्वनि, मेघ की घनघोर घटायें, पक्षियों की मधुर ध्वनि आदि हृदय को प्रफुल्लित करते हैं। हृदय की गुफा से भी आत्मा की आवाज सुनाई देती है। प्राचीन ऋषि-मुनि तथा महर्षि दयानन्द ने भी आत्मा की आवाज सुनकर ही प्रेरणा प्राप्त की थी। हमारा प्रिय धर्म इसी हृदय की ही तो पुकार है- “हृदयेनाभ्यनुज्ञात: यो धर्मस्तं निबोधत (मनु० १/१२०)”। अतः आत्मश्रवण करते हुए कल्याण मार्ग का पथिक बनना ही श्रावणी का सन्देश है।