संसार की असत्यता
संसार को बिना असत्य माने जैसा कि हम पहले अध्यायों में सिद्ध कर चूके हैं , ईश्वर की सत्यता सिद्ध नहीं होती। अत: ईश्वर का अस्तित्व संसार को असत्य सिद्ध करने में सबसे प्रथम स्थान रखता है। ईश्वर के रुप का चिन्तन करने से संसार आप से आप असत्य प्रतीत होने लगता है। ईश्वर का विचार आते ही यह सोचना पड़ता है कि ईश्वर ने यदि संसार को बनाया तो कैसे बनाया? ईश्वर संसार का निमित्त कारण है उपादान कारण है वा निमित्तोपादान दोनों है? इस तरह जब हम खोज करने चलते हैं तो अन्त में यही सिद्ध होता है कि संसार असत्य वा कल्पना मात्र है जैसा कि इसके पहले हम सप्रमाण और युक्ति सिद्ध कर चूके हैं।
संसार, जगत वा दृश्य को हम लोग सत्य इसलिए मानते हैं कि वह प्रत्यक्ष हो रहा है वा हम लोग उसके अस्तित्व का अनुभव कर रहे हैं। पर विचारने की बात यह है कि दृश्य का अस्तित्व, केवल हमारी कल्पना या अनुभव में है, हमसे पृथक स्वयं उसमें अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं है। अर्थात् संसार का अस्तित्व हमसे बाहर, हमें छोड़कर , स्वतन्त्र रुप में अलग नहीं है। चेतन आत्मा से पृथक वा द्रष्टा से भीन्न दृश्य जगत को (जिसे हम लोग जड़ मानते हैं उसे) स्वयं अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं है किन्तु इसका अस्तित्व द्रष्टा वा आत्मा के ज्ञान कल्पना और अनुभव के भीतर है। अत: संसार चेतन की कल्पना मात्र है और कल्पनामात्र होने से वास्तविक नहीं है। फिर जो वास्तविक नहीं वह मिथ्या और असत्य है। अब संसार की एक-एक वस्तु को लीजिए, बात समझ में आ जायगी।
सामने जिस मेज को हम देख रहे हैं उस मेज में स्वयं अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं है। ‘हम मेज है’ इस बात को स्वयं मेज नहीं जानती, केवल चेतन आत्मा या हम लोग जानते हैं कि यह मेज है। अत: मेज का में मेजत्व मेज का अस्तित्व बाहर उस मेज में नहीं है, किन्तु वह चेतन आत्मा में है हम लोगों के भीतर है। मान लीजिए यदि संसार में कोई चेतन आत्मा न रहे तो कौन कह सकता है कि यह संसार है यह मेज है? संसार को हम सत्य इसलिए मानते हैं कि उसे प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। यदि हम प्रत्यक्ष अनुभव न करते तो कभी सत्य न मानते बात ठीक भी है। यदि संसार में कोई चेतन आत्मा न रहे, तो ‘संसार है’- इसका क्या प्रमाण हो सकेगा? जड़ दृश्य को स्वयं अपने होने का ज्ञान है नहीं और जो उसके अस्तित्व को प्रत्यक्ष करता वा कल्पना करता वह रहा नहीं; ऐसे समय में इससे यह स्पष्ट हो गया कि संसार स्वयं कुछ भी नहीं है-‘संसार है’ इसका क्या प्रमाण? कुछ भी नहीं। इससे यह स्पष्ट हो गया कि संसार स्वयं कुछ नहीं है-यह आत्मा के होने से है और न होने से नहीं है।साफ-साफ बात यह है कि संसार का अस्तित्व, संसार का संसार या मेज का मेजत्व संसार में वा मेज में नहीं है किन्तु हमारी आत्मा की भावना, अनुभव, कल्पना के भीतर है। अत: यदि यह संसार कुछ है तो कल्पना मात्र है और कुछ नहीं।
परन्तु यह बात संसार की तरह आत्मा में, द्रष्टा में या स्वयं चेतन में नहीं है। अर्थात संसार के न रहने से वा जड़ दृश्य जगत के न रहने से, आत्मा के अस्तित्व का नाश नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा को स्वयं अपने अस्तित्व का ज्ञान है, वह जड़ संसार की तरह नहीं है। आत्मा अपने से अपने को जानती है कि हम हैं। आत्मा का अस्तित्व आत्मा के भीतर है। उसे स्वयं मालूम है कि हम हैं और जरुर हैं। अत: आत्मा सत्य है; और इससे भीन्न तमाम जगत तमाम दृश्य-जगत स्वयं अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं रखता। संसार कोई वस्तु वा पदार्थ नहीं है, यह केवल चेतन की कल्पना मात्र है। जैसे स्वप्न का वाजार स्वप्न की सृष्टि और, स्वप्न का जंगल कल्पना मात्र है, उसी तरह यह संसार भी है। एक मौलवीय साहब ने स्वप्न देखा कि एक शैतान आया और उन्होंने उसकी दाढ़ी पकड़कर उसके मुंह पर एक थप्पड़ मारा, नींद टूटी तो देखते क्या है। कि वह अपनी ही दाढ़ी पकड़े हुए अपने मुंह पर थप्पड़ मार रहे हैं। इसका मतलब यह कि स्वप्न में जो कुछ बाहर दिखलाई देता है वह सब हमारे ही भीतर होता है, हम ही एक से अनेक हो जाते हैं, स्वप्न में जंगल दिखाई दिया पर जागने पर उसकी एक डाली या लकड़ी का भी पता नहीं लगता। आखिर उतना बड़ा जंगल हुआ क्या? बात यह है कि स्वप्न का जंगल जो बहर दिखलाई दिया वह बाहर कुछ भी नहीं था। इस तरह यह बाहर का दृश्य जगत बाहर नहीं है, वह हमारे भीतर है और हमारी कल्पना में है। हम ही कल्पना करते हैं कि संसार है; संसार को खूद नहीं मालूम कि हम हैं या नहीं हैं। चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य के अधीन है ठीक इसी तरह से संसार का अस्तित्व, संसार का होना न होना सब आत्मा के अधीन में है। सूर्य के न होने से चन्द्रमा में प्रकाश नहीं हो सकता, क्योंकि चन्द्रमा स्वयं प्रकाशमान नहीं है। पर सूर्य स्वयं प्रकाशमान है अत: उसके प्रकाश के लिए चन्द्रमा के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है यदि चन्द्रमा न रहे तब भी सूर्य में पूर्ववत प्रकाश रहेगा, जैसा कि चन्द्रमा के रहने पर हैं। इससे यह प्रकट हुआ कि जब चन्द्रमा में स्वयं प्रकाश नहीं है, तो उसमें जो प्रकाश दिखलाई पड़ता है वह उसका या उसमें नहीं किन्तु सूर्य का है। इस तरह से संसार में वा संसार का जो अस्तित्व प्रत्यक्ष होता है वह अस्तित्व संसार का वा संसार में नहीं है, किन्तु वह आत्मा का है वा आत्मा में है। जिस तरह चन्द्रमा में जो प्रकाश दिखलाई देता है वह चन्द्रमा में नहीं है, उसीज्ञतरह संसार का जो अस्तित्व हम लोगों को प्रत्यक्ष दिखलाई देता है वह संसार का नहीं है। अत: जिसज्ञतरह एक विज्ञानवेत्ता चन्द्रमा को प्रकाशमान नहीं कह सकता उसी तरह तत्ववेत्ता संसार को अस्तित्व युक्त नहीं कह सकता। जिस तरह से चन्द्रमा का प्रकाश उसका अपना नहीं है। उसी तरह संसार का अस्तित्व भी उसका अपना नहीं है; अर्थात् चन्द्रमा में जो प्रकाश है वह सूर्य का है और संसार में जो अस्तित्व है वह आत्मा का है। सूर्य के न रहने से जैसे चन्द्रमा को कोई प्रकाशमान नहीं देख सकता। उसी तरह आत्मा के न रहने से संसार को कोई देख नहीं सकता। इससे मालूम हुआ कि जिस तरह चन्द्रमा में प्रकाश नहीं है या चन्द्रमा का प्रकाश नहीं है, उसी तरह संसार का अस्तित्व नहीं है या संसार का अस्तित्व नहीं है- यह सिद्ध हो गया। अत: जिसका अस्तित्व नहीं है , वह सत्य नहीं हो सकता और जो सत्य नहीं वह असत्य वा कल्पना मात्र है। इस तरह संसार असत्य वा कल्पना मात्र सिद्ध होता है और यह संसार के असत्य होने में एक अकाट्य प्रमाण है।
जिस तरह चन्द्रमा में प्रकाश नहीं है। किन्तु सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है, उसी संसार आत्मा की सत्तासे सत्य विदित होता है वास्तव में सत्य नहीं है। जैसे मोटी रस्सी की सत्यता से सीपी की सत्यता से या स्वप्नद्रष्टा पुरुष की सत्यता से, क्रमानुसार सर्प, चांदी और स्वप्नसृष्टि सत्य मालूम होती है, उसी तरह आत्मा की सत्यता से यह असत्य जगत भी सत्य मालूम होता है। जिस तरह स्वप्न की सृष्टि असत्य असत्य होते हुए भी प्रत्यक्ष दिखलाई देता है पूर्वोक्त अकाट्य प्रमाणों, युक्तियों और विचारों से यदि संसार सत्य सिद्ध नहीं होता तो केवल प्रत्यक्ष दिखलाई देने से संसार सत्य नहीं हो सकता। स्वप्न भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है और स्वप्नावस्था में वह भि सत
य मालूम होता है, पर क्या वह सत्य है? कभी नहीं; इसी तरह इस संसारको भी कोई सत्य सिद्ध नहीं कर सकता।
इति श्री मुनीश्वर योगेश्वर शिवकुमार शास्त्रि कृते वेदान्त-सिद्धान्ते संसारस्यमिथ्यात्व साधनन्नाम नवमोऽध्याय:।।९।।
प्रस्तुति : डॉ अर्जुन पांडे