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संपादकीय

नीतीश कुमार भागे नहीं, भगाए गए हैं

राजनीति चौसर का खेल है। जिसमें सत्ता स्वार्थ साधने के लिए बड़ी-बड़ी चीजों को दांव पर लगा दिया जाता है। कहा जाता है कि राजनीति में कभी कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता। यहां परिस्थितियां बड़ी तेजी से परिवर्तित होती हैं। ऐसे में यदि बिहार की बात करें तो बिहार की राजनीति में आए वर्तमान परिवर्तन से हमें कुछ ऐसा ही आभास होता हुआ दिखाई देता है। राजनीति में मित्र बदले जाते हैं, यह तो हम सबने सुना है, परंतु राजनीति में मित्र बदलवा भी दिए जाते हैं, इस ओर हमने कभी ध्यान नहीं दिया।
बिहार के बारे में आज के संदर्भ में यही बात सच सिद्ध होती है कि नीतीश कुमार राजग से भागे नहीं हैं, बल्कि भगाए गए हैं। उन्होंने मित्र नहीं बदले हैं बल्कि उनसे मित्र बदलवा दिए गए हैं। आज आरजेडी, जेडीयू ,कांग्रेस और उनके अन्य मित्र राजनीतिक दल यह सोच रहे हैं कि जैसे उन्होंने बिहार में आरजेडी और जेडीयू की सरकार बनवा कर बहुत बड़ा काम कर लिया है। उनका मानना है कि भाजपा ने शिवसेना की चल रही उद्धव सरकार को गिरा कर जिस प्रकार विपक्ष को महाराष्ट्र में झटका दिया था, अब बिहार में उसने भाजपा को पटखनी देकर हिसाब पूरा कर लिया है। पर सच यह नहीं है। जिस भाजपा के रणनीतिकारों ने महाराष्ट्र में उद्धव सरकार को चलता किया था उन्हीं की रणनीति ने ऐसी परिस्थितियां बनानी आरंभ की कि नीतीश कुमार के लिए भाजपा के साथ चलना एक-एक दिन कठिन होता चला गया। इन रणनीतिकारों का एक ही उद्देश्य था कि भाजपा के लिए कोई यह ना कहे कि भाजपा ने अपने मित्रों को बदल दिया है। इसके स्थान पर इनकी सोच यह थी कि जनता में यह संदेश जाना चाहिए कि भाजपा मित्रों को नहीं बदलती है बल्कि सत्ता के स्वार्थी लोग स्वयं भाजपा को छोड़ कर चले जाते हैं। नीतीश इस बात के लिए पहले ही बदनाम हैं कि वह सत्ता से चिपके रहने के लिए मित्रों को बदलने में देर नहीं करते हैं। कभी सत्ता के लिए वे महाभ्रष्ट आरजेडी के साथ चले जाते हैं तो कभी उससे दूरी बनाते हैं और कभी फिर उसी की शरण में जाना उचित मानते हैं। जिस आरजेडी को नीतीश कुमार पानी पी पीकर कोसते रहे, जिसके शासनकाल को बिहार के लिए जंगलराज कहते रहे, सत्ता के लिए बार-बार उसी के पास जाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता।
नितीश के बारे में सच यह है कि वह राजनीति के चाहे जितने बड़े खिलाड़ी हों, पर वह इस समय मोटा भाई के जाल में फंस गए हैं। उन्हें मोदी और अमित शाह की जोड़ी के गुणा भाग को समझने में अभी समय लगेगा। उन्हें नहीं पता कि पिछले विधानसभा चुनावों के समय उनकी पार्टी को 45 तक समेट कर रखना भी किसी रणनीति का एक भाग था। उस रणनीति के अंतर्गत भाजपा अपनी गोटियों को चलने में सफल हुई। इसके उपरांत भी भाजपा ने नीतीश कुमार को ही प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। इसका कारण केवल एक था कि नीतीश कुमार के माध्यम से भाजपा को अपने राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भी बनवाने थे। यद्यपि भाजपा ने नीतीश कुमार से पल्ला झाड़कर अगला विधानसभा चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ने का निर्णय ले लिया था, पर इसके लिए नीतीश के साथ-साथ आरजेडी को भी रास्ते से हटाना आवश्यक था। उस योजना को कैसे सिरे चढ़ाया जाए ? – चिंतन केवल इस बात पर चल रहा था। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के तुरंत पश्चात इस चिंतन को क्रियान्वित किया जाना भी रणनीति का एक हिस्सा था। बस, बिहार के अगले विधानसभा चुनावों के दृष्टिगत बनाई गई भाजपा की इस रणनीति के अंतर्गत नीतीश कुमार को राजग से भगा दिया गया है।
वास्तविकता यह है कि बिहार की वर्तमान राजनीति में अपना भविष्य टटोलती भाजपा इस बात के लिए बहुत अधिक बेचैन है कि जैसे कई अन्य प्रांतों में उसकी अपनी सरकारें चल रही हैं, वैसी ही सरकार उसकी बिहार में बननी चाहिए अर्थात वहां पर किसी अन्य राजनीतिक दल का मुख्यमंत्री न होकर अपनी पार्टी ( भाजपा ) का मुख्यमंत्री हो। अपने इस “स्वच्छता अभियान” के अंतर्गत बड़ी सधी हुई चाल प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने बिहार के संदर्भ में चली है। जो लोग यह मान रहे हैं कि भाजपा के विरुद्ध नई सरकार बना कर नीतीश कुमार ने बड़ा काम कर दिखाया है, वर्तमान हालात में भाजपा के नजरिए से उन्हें यह पता होना चाहिए कि इसी “बड़े काम” के जाल में फंस कर नीतीश कुमार की “राजनीतिक मृत्यु” निश्चित है।
प्रधानमंत्री श्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां पैदा करने का प्रयास किया कि नीतीश कुमार स्वयं ही भाजपा और राजग का पल्ला झाड़ कर चले जाएं। जिससे कि उन्हें दलबदलुओं का सिरमौर कहकर बदनाम किया जा सके। इसके अतिरिक्त भाजपा को वर्तमान परिस्थितियों में यह चिंता भी सता रही थी कि यदि फिर नीतीश कुमार के साथ मिलकर अगला विधानसभा चुनाव लड़ा गया तो उस समय आरजेडी अपनी बढ़त बनाकर सरकार बना सकती है या फिर वहां पर त्रिशंकु विधानसभा आ सकती है। ऐसी परिस्थितियों में भाजपा को क्षति होना संभावित था। भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनावों के अंतर्गत नितीश कुमार की पार्टी को बहुत नीचे के बिंदु पर लाकर खड़ा करने में सफलता प्राप्त की थी। इस बार उसे शून्य करना था, पर उसे साथ रहकर शून्य करने की कोई तरकीब भाजपा के पास नहीं थी। इसके लिए एक ही उपाय था कि वह राजग से भगाए जाएं और परिस्थितियां ऐसी बनाई जाएं कि वह आरजेडी के साथ जाकर मिलें।
अतः आरजेडी की लोकप्रियता को समाप्त करने के लिए उसे नीतीश कुमार के साथ आने दिया जाना नितीश मोदी और अमित शाह की रणनीति का एक हिस्सा है। आरजेडी को शून्य पर लाने का एक ही उपाय था कि वह सत्ता में आए और सत्ता में आकर अपनी परंपरागत नीतियों के अंतर्गत भ्रष्टाचार या गुंडागर्दी को प्रोत्साहित कर नितीश कुमार की नाक में दम करे। नीतीश कुमार के लिए ऐसी परिस्थितियों में आरजेडी को छोड़ना अब असंभव होगा। कहने का अभिप्राय है कि अगले विधानसभा चुनावों तक आरजेडी और जेडीयू दोनों मिलकर बदनाम हो जाएंगे और जनता की नजरों में गिर जाएंगे। उस स्थिति में जनता के लिए एक ही विकल्प होगा और वह भाजपा होगी। जहां तक कांग्रेस की बात है तो कांग्रेस तो इस समय अपने आपको स्वयं ही नष्ट कर चुकी है।
नीतीश कुमार के पाला बदलने से सबसे अधिक हानि ममता बनर्जी को होगी। ममता बनर्जी अपने आपको पश्चिमी बंगाल तक सीमित करके देखने में असुविधा अनुभव करती रही हैं। उनका निरंतर प्रयास रहा है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में उभरें।
उनका प्रयास है कि राहुल और सोनिया की कांग्रेस को पीछे धकेल कर वे स्वयं मोदी का विकल्प बनें। यद्यपि उनका अक्खड़पन और मुस्लिम तुष्टिकरण की उनकी सोच उनके भीतर छुपे हुए उनके ऐसे दो बड़े शत्रु हैं जो उन्हें इस प्रकार राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने में सबसे बड़ी बाधा रहे हैं। इन दोनों शत्रुओं के रहते हुए वह अभी तक राष्ट्रीय राजनीति में अपने आपको स्थापित करने में सफल नहीं हो पाई हैं और निकट भविष्य में लगता भी नहीं कि वह अपने इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगी।
इसके अतिरिक्त कांग्रेस की सोनिया गांधी कभी भी यह नहीं चाहेंगी कि उनके लाडले राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने के सम्मान पूर्ण स्थान से पीछे धकेल कर ममता बनर्जी सामने आएं। यद्यपि कांग्रेस की सोनिया गांधी तात्कालिक आधार पर नीतीश कुमार को यह सम्मान दे सकती हैं कि वह अगले लोकसभा चुनाव में विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री के संयुक्त प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरें। इसके पीछे कारण केवल एक है कि नीतीश कुमार की ढलती हुई उम्र और गिरता हुआ स्वास्थ्य सोनिया गांधी को यह भरोसा दिलाता है कि वह अधिक से अधिक एक बार विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के संयुक्त प्रत्याशी हो सकते हैं, परंतु अगले लोकसभा चुनावों में वह यह देखती हैं कि उस समय जब नीतीश नहीं होंगे तो राहुल गांधी ही उस समय के विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। इतनी देर में वह नीतीश कुमार के राजनीतिक भविष्य को समाप्त होता देखती हैं और उसके बाद का मैदान राहुल गांधी के हाथों में सुरक्षित अनुभव करती हैं। वैसे नीतीश कुमार ने स्वयं भी यह कहा है कि वह प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं हैं, परंतु यह उनका राजनीतिक चातुर्य मात्र है। इसके उपरांत भी उनके हावभाव यह दिखा रहे हैं कि वह अब अपना राजनीतिक भविष्य बहुत देर तक सुरक्षित नहीं देख रहे हैं। उन्हें पता है कि अब उनका राजनीतिक सफर समाप्ति की ओर है। अतः “अबकी बार – अंतिम बार” की तर्ज पर वह आरजेडी की शरण में गए हैं।
कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी को पता है कि इस बार के लोकसभा चुनावों में नीतीश कुमार के नेतृत्व में भी विपक्ष कोई बड़ा काम नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत वह जानती हैं कि यदि मैदान ममता बनर्जी के हाथों चला गया तो स्थितियां कुछ भी हो सकती हैं। ममता बनर्जी इस समय चाहे बोलने के लिए कितना ही बोल रही हों पर वह भीतर से हताश हैं , क्योंकि उन्होंने जिस प्रकार देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बनवाने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने का प्रयास किया था उसमें वह सफल नहीं हो पाईं और विपक्ष ने भी उन्हें यह आभास करा दिया कि वह उनके नेतृत्व में काम नहीं करेगा। यही कारण है कि ममता बनर्जी अब अपने आप में कुछ अलग थलग सी पड़ी हुई दिखाई देती हैं। सारे विपक्ष ने जिस प्रकार नीतीश कुमार को लगते हाथों लिया है, उससे वह और भी अधिक दुखी हैं।

जहां तक आरजेडी के तेजस्वी यादव का प्रश्न है तो वह भी यह भली प्रकार समझ रहे हैं कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाकर उन्हें क्षति कुछ भी नहीं हो सकती बल्कि उन्हें कुछ ना कुछ मिलेगा ही। सत्ता की शीघ्रता उन्हें भी इस मोड़ पर ले आई है। उनकी सोच है कि नीतीश बाबू के बाद वही बिहार के क्षत्रप होंगे। उन्हें नहीं पता कि उनके क्षत्रप बनने की संभावनाओं पर पानी फेरने के लिए ही उन्हें इस समय जेडीयू के निकट जाने दिया गया है। यदि वह अपने गठबंधन को बहुत ही सहज रूप से चलाने में सफल हो गए और आगामी विधानसभा चुनावों में बिहार की जनता ने उन्हें अपना समर्थन भी दे दिया तो निश्चय ही वह बिहार के अगले क्षत्रप भी हो सकते हैं। पर उस मुकाम तक पहुंचने से पहले उन्हें भाजपा के रणनीतिकारों द्वारा खड़ी की जाने वाली कई चुनौतियों का सामना करना होगा।
प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकारों की सोच है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति में जितने लोग भी बाधक हैं, उन्हें रास्ते से दूर किया जाए। प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक विरोधी उनके इस प्रकार के आचरण को तानाशाही कहते हैं। उन पर यह आरोप भी लगाते हैं कि वह लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का अस्तित्व समाप्त करने का गंभीर अपराध कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी इस प्रकार के सभी आरोपों को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।
उन्होंने अब तक हर उस व्यक्ति से लाभ लेने का प्रयास किया है जो उनके मिशन में सहायक हो सकते थे। यदि कोई व्यक्ति उनके साथ दस कदम चलने का साथ दे सकता था तो उससे इतनी दूरी का साथ लिया है। राजनीति में सत्ता स्वार्थ से बढ़कर मिशनरी भाव से जब काम किया जाता है तो मिशन में जो जो लोग सहायक हो सकते हैं और जितनी देर के लिए सहायक हो सकते हैं, उनसे उतनी देर का सहयोग लेना राजनीति का एक आवश्यक गुण होता है। राजनीति का यह चरित्र होता है कि उसमें अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए लोगों को प्रयोग करते चलो और जैसे ही वे इसके अयोग्य हो जाएं तो उन्हें छोड़ने में देर मत करो। राजनीति में नैतिकता अथवा धर्म की नितांत आवश्यकता होती है, परंतु जिन लोगों के सिद्धांत या नीतियां किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक हों, उनके प्रति किसी प्रकार की नैतिकता का प्रदर्शन करना अपने लक्ष्य से भटकना होता है। इस बात को प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकार भली प्रकार जानते हैं।
नीतीश कुमार के बारे में यह भली प्रकार जाना समझा जा सकता है कि वह हिंदुत्व की राजनीति को अपनी राजनीतिक बाध्यता ओं के अंतर्गत स्वीकार करते रहे हैं। उनका राजनीतिक चरित्र हिंदुत्ववादी राजनीति का नहीं है। वह अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए राजग के मंच पर आ आकर बैठते रहे हैं पर भीतर से वह भाजपा की विचारधारा से सहमत नहीं रहे हैं। भाजपा जब अपना जनाधार फैलाती जा रही है, तब ऐसे दोगले मित्रों से दूरी बनाना और अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना भाजपा का तात्कालिक नहीं बल्कि दूरगामी राजनीतिक उद्देश्य भी है। विशेष रूप से यह बात तब और भी अधिक समझ लेनी चाहिए जब प्रधानमंत्री मोदी इसके प्रति बहुत अधिक सतर्क हों। इन सारी परिस्थितियों में नितीश कुमार का पत्ता कटना या उन्हें राजग से भगाना भाजपा के लिए अपने राजनीतिक उद्देश्यों के दृष्टिगत समय की आवश्यकता थी।
प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकारों के जाल में फंसे नीतीश कुमार के इस प्रकार राजग छोड़कर भागने के क्या परिणाम होंगे ? यह तो समय बताएगा। आज तो हमने केवल तात्कालिक परिस्थितियों की पड़ताल मात्र की है। मोदी अमित शाह के द्वारा चली गई गोटियां यदि भविष्य में जाकर राष्ट्रहित में उचित परिणाम लाने में सफल होती हैं तो निश्चय ही इतिहास इस घटना का भी अभिनंदन करेगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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