अमृत महोत्सव लेखमाला
सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ — भाग-10
नरेन्द्र सहगल
सशस्त्र क्रांति के नवयुवक योद्धाओं द्वारा अत्याचारी अंग्रेज शासकों के सीने पर निरंतर पड़ रहे प्रचंड प्रहारों से दुखी होकर अथवा घबराकर अंग्रेजों ने एक बार फिर साम दाम दंड भेद की एकतरफा नीति के तहत भारतीयों को कुछ राजनीतिक सुविधाएं देने का षड्यंत्र रचा। वास्तव में सरकार इस पुकार के सुधारों का लॉलीपॉप देखकर अंग्रेजभक्त गद्दारों का सहारा लेकर सशस्त्र क्रांति को पूरी तरह कुचल देना चाहती थी।
इतिहास साक्षी है कि भारत की स्वतंत्रता के लिए भारतवासियों ने गत 1200 वर्षों में तुर्कों, मुगलों, पठानों और अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया है। एक दिन भी परतंत्रता को स्वीकार न करने वाले भारतीयों ने आत्मबलिदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मात्र अंग्रेजों के 150 वर्षों के कालखंड में हुए देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम में लाखों बलिदान दिए गये । परन्तु अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए सामूहिक आत्मबलिदान ने लाखों क्रांतिकारियों को जन्म देकर अंग्रेजों के ताबूत का शिलान्यास कर दिया।
जलियांवाला बाग़ का वीभत्स हत्याकांड जहाँ अंग्रेजों द्वारा भारत में किये गये क्रूर अत्याचारों का जीता जागता सबूत है । वहीं ये भारतीयों द्वारा दी गयी असंख्य कुर्बानियों और आजादी के लिए तड़पते जज्बे का भी एक अनुपम उदाहरण है । कुछ एक क्षणों में सैकड़ों भारतीयों के प्राणोत्सर्ग का दृश्य तथाकथित सभ्यता और लोकतंत्र की दुहाई देने वाले अंग्रेजों के माथे पर लगाया गया ऐसा कलंक है जो कभी भी धोया नहीं जा सकता।
अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए अखिल भारत में फैल रही क्रांति को कुचलने के लिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा अनेक काले कानून बनाये जा रहे थे । स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज़ को सदा के लिए खामोश करने के उद्देश्य से अंग्रेज सरकार ने रोलेट एक्ट बनाया । इस कानून का सहारा लेकर राजद्रोह के शक में किसी को भी गिरफ्तार करके जेल में डालना आसान हो गया था । भारत में बढ़ रही राजनीतिक और क्रान्तिकारी गतिविधियों को दबाने के लिए रोलेट एक्ट में कथित राजद्रोही को अदालत में जाकर अपना पक्ष रखने का कोई अधिकार नहीं था । बिना चेतावनी दिए लाठीचार्ज और गोलीबारी का अधिकार पुलिस और सेना को दे दिया गया था । ये रोलेट एक्ट 1919 में ब्रिटेन की सरकार ने वहां की इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कोंसिल में एक प्रस्ताव के माध्यम से पारित किया था ।
इस कानून के खिलाफ सारे देश में आक्रोश फ़ैल गया । जलसों-जुलूसों और विरोध सभाओं की झड़ी लग गयी । अनेक नेता और स्वतंत्रता सेनानी कार्यकर्ता गिरफ्तार करके बिना मुकदमा चलाए जेलों में डाल दिए गये । अमृतसर के दो बड़े सामाजिक नेता डॉ सत्यपाल और डॉ सैफुद्दीन किचलू जब गिरफ्तार कर लिए गये तो अमृतसर समेत पूरे पंजाब में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष फैल गया । उन दिनों 13 अप्रैल 1919 को वैशाखी वाले दिन पंजाब भर के किसान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में वैशाखी स्नान करने के लिए एकत्र हुए थे । इसी दिन जलियांवाला बाग़ में एक विरोध सभा का आयोजन हुआ । जिसमे लगभग 20 हजार लोग उपस्थित थे । ये सभा काले कानून रोलेट एक्ट को तोड़कर हो रही थी । पंजाब के अंग्रेज गवर्नर जनरल माइकल ओ ड्वायर के आदेश से जनरल डायर के नेतृत्व वाली ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने जलियांवाले बाग को घेर लिया और बिना चेतावनी के गोलीवर्षा शुरू कर दी ।
आधुनिक इतिहासकार प्रो. सतीश चन्द्र मित्तल ने अपनी पुस्तक ‘कांग्रेस अंग्रेजभक्ति से राजसत्ता तक’ के पृष्ठ 56 पर ऐतिहासिक तथ्यों सहित लिखा है “1857 ईस्वी के महासमर के पश्चात भारतीय इतिहास में पहला क्रूर तथा वीभत्स नरसंहार 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में हुआ । रोलेट एक्ट के विरोध की प्रतिक्रिया स्वरुप ब्रिटिश सरकार ने उसका बदला 11 अप्रैल को जनरल डायर को बुलाकर तथा वैशाखी के पर्व पर जलियांवाला बाग़ में सीधे पंजाब के कृषकों एवं सामान्य जनता पर 1650 राउंड गोलियों की बौछार करके लिया। ये गोलियां सूर्य छिपने से पूर्व 6 मिनट तक चलती रहीं….. सभी नियमों का उलंघन करके गोलियां उस ओर चलाई गयी जिस ओर भीड़ सर्वाधिक थी । हत्याकांड योजनापूर्वक था । जनरल डायर के अनुसार उसे गोली चलाते समय ऐसा लग रहा था मानों फ़्रांस के विरुद्ध किसी मोर्चे पर खड़ा हो । गोलियों के चलने के पूर्व एक हवाई जहाज उस स्थान का चक्कर लगा रहा था ।”
इस सभा में लगभग 20 हजार लोग उपस्थित थे । गोलियां तब तक चलती रहीं जब तक ख़त्म नहीं हुई। सरकारी संशोधित आंकड़ों के अनुसार 379 व्यक्ति मारे गये तथा लगभग 1200 घायल हुए । इम्पिरियल कौन्सिल में महामना मदन मोहन मालवीय ने मरने वाले लोगों की संख्या 1000 से अधिक बताई । स्वामी श्रद्धानन्द ने गाँधी जी को लिखे के पत्र में मरने वाले लोगों की संख्या 1500 से 2000 बताई ।
जलियांवाले बाग़ में एक कुआं था जो आज भी है । इसी कुएं में कूदकर 250 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान दे दी थी । इस हत्याकांड के बाद रात्रि आठ बजे अमृतसर में कर्फ्यू लगा दिया गया था । पूरे पंजाब में मार्शल ला लागू कर दिया गया ।
इतने भयंकर हत्याकांड के बाद भी अंग्रेज शसकों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। अनेकों निरपराध सत्याग्रहियों को जेलों में ठूस दिया गया । अमृतसर में बिजली और पानी की सप्लाई बंद कर दी गयी। लोगों को मार्शल लॉ का निशाना बनाया गया । बाहर से आने वाले समाचार पत्र बंद कर दिए गये । पत्रों के संपादकों पर झूठे मुकदमे बनाकर उन्हें एक-एक दो-दो वर्षों की सजायें दी गयीं । अमृतसर, लाहौर इत्यादि स्थानों पर मार्शल लॉ के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आये । अंग्रेज सरकार ने 852 व्यक्तियों पर झूठे आरोप लगाये । इनमे 581 लोगों को दोषी घोषित किया गया । दोषियों में 108 को मौत की सजा, 265 को जीवन भर के लिए देश निकाला तथा अन्य सजाएँ दी गयीं । लोगों को बंद रखने के लिए लोहे के पिंजरे भी बनवाए गये । सम्पूर्ण पंजाब कई महीनों तक शेष भारत से कटा रहा।
जलियांवाले बाग़ का नरसंहार भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम में एक परिवर्तनकारी घटना साबित हुई। पूरे देश में सशस्त्र क्रान्तिकारी सक्रिय हो गये । प्रतिक्रियास्वरूप रविन्द्र नाथ ठाकुर ने अपनी नाईटहुड की उपाधि वापस कर दी । बालक सरदार भगत सिंह ने जालियांवाले बाग़ की रक्तरंजित मिट्टी को उठाकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने का प्रण किया । इस नरसंहार के लिए जिम्मेदार गवर्नर ओ ड्वायर को 21 साल बाद 1940 में सरदार उधम सिंह ने इंग्लैण्ड में जाकर गोलियों से भून दिया ।
यद्यपि सरदार उधम सिंह के किसी बड़े क्रांति दल से सम्बंध नहीं थे परन्तु यह युवा राष्ट्र भक्त सरदार भगत सिंह इत्यादि चुनिदा क्रांतिकारियों के संपर्क में था। निहत्थे भारतियों का नरसंहार करने वाले जनरल डायर को यम लोक पहुँचाने के उद्देश्य से ऊधम सिंह 1919 को ही लंदन चला गया। अंग्रेजों के इस शहर में वह बीस वर्षों तक रहा और जनरल डायर को मारने की उचित प्रतीक्षा करता रहा। उसी कालखंड में उसके वीर सावरकर जैसे क्रांतिकारियों से सम्बंध बन गए।
13 मार्च 1940 को वह क्षण आया जिसकी ऊधम सिंह को प्रतीक्षा थी। लंदन के कैस्टन हॉल में एक कार्यक्रम चल रहा था। उसी सभा में सर माइकल ओ डायर जैसे ही बोलकर स्टेज से नीचे उतरा, वहां उपस्थित ऊधम सिंह ने तुरंत उसे गोलियों से भून डाला। इसी बक्त इस युवा ने वहां उपस्थ्ति लार्ड एटलैंड, लार्ड रमीगटन और लार्ड लुईस को भी मौत के घाट उतार दिया। उसके रिवोल्वर की गोलियां समाप्त हो गईं अन्यथा हॉल में उपस्थित एक भी अंग्रेज अथिकारी नहीं बचता।
ऊधम सिंह के इस साहसपूर्ण कार्य की वीर सावरकर और डॉ. मुंजे सहित अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने प्रशंसा की परन्तु महात्मा गांधी इत्यादि कांग्रेस के नेताओं ने इस कृत्य की निंदा की। 31 जुलाई 1940 को ऊधम सिंह को लंदन में ही फ़ासी दे दी गई। फांसी का फंदा गले में डालने से पहले इस वीर स्वतंत्रता सेनानी ने कहा था – “मैं मौत से नहीं डरता, मैंने अपने देशवासियों को भूख से तड़फते देखा है, मैंने वह वीभत्स दृश्य भी अपनी आँखों से देखा है जब जलियांवाला बाग में निहत्थे देशभक्त भारतीयों को अंधाधुंध फायरिंग से मारा जा रहा था। मैंने उसी साम्राज्यवादी तानाशाही को सबक सिखाने के लिए जनरल डायर और उसके कुछ साथियों को मारा है – – – भारत माता की जय, क्रांति अमर रहे – ब्रिटिश तानाशाही का नाश हो।” …………. जारी
नरेन्द्र सहगल
पूर्व संघ प्रचारक, लेखक – पत्रकार
बंधुओं मेरा आपसे सविनय निवेदन है कि इस लेखमाला को सोशल मीडिया के प्रत्येक साधन द्वारा आगे से आगे फॉरवर्ड करके आप भी फांसी के तख्तों को चूमने वाले देशभक्त क्रांतिकारियों को अपनी श्रद्धान्जलि देकर अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाएं। भूलें नहीं – चूकें नहीं।