विदेश सचिव सुजाता सिंह का अचानक हटाया जाना भद्रलोक में चर्चा का विषय जरुर बन रहा है लेकिन जिस नाटकीय वातावरण में ए.पी. वेंकटेश्वरन को राजीव गांधी ने हटाया था, कम से कम वैसा तो नहीं हुआ है। भारत सरकार को यह अधिकार है कि वह किसी सचिव को कब तक उसके पद पर रहने दे लेकिन विदेश मंत्रालय की यह परंपरा रही है कि विदेश सचिव अपनी दो वर्ष की अवधि पूरी करते हैं। सुजाता को हटाने के कारणों के बारे में जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उन्हें दो-तीन माह पहले बता दिया गया था। यदि ऐसा था तो उन्हें किसी भी महत्वपूर्ण देश में राजदूत बनाकर भेजा जा सकता था लेकिन उन्हें अब जिस तरह से हटाया गया है, उसकी प्रतिक्रिया विदेश मंत्रालय में भी हो रही है और प्रचारतंत्र में भी!
माना यह जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से कोई शिकायत नहीं है लेकिन सुजाता सिंह उन्हें मनमानी नहीं करने देती थीं। हर मुद्दे पर वे भारत की परंपरागत विदेश नीति की दुहाई देती थीं और हर काम नियमानुसार करने पर जोर देती थीं। हो सकता है कि उन्होंने पाकिस्तान से विदेश सचिव-वार्ता भंग करने के निर्णय को भी अनुचित बताया हो। जो भी हो, सुजाता को हटाने में यह सरकार शालीनता का परिचय दे सकती थी।
सुजाता की जगह एस. जयशंकर को लाने के निर्णय का स्वागत है। सुजाता को शायद जयशंकर की वजह से ही हटना पड़ा है। वे दो दिन बाद सेवा-निवृत्त होने वाले थे। यदि सुजाता बनी रहतीं तो जयशंकर की सेवाओं से सरकार को वंचित रहना पड़ता। जयशंकर बहुत योग्य, परिश्रमी और विद्वान अफसर हैं। वे हमारे मित्र और वरिष्ठ सहयोगी स्व. के. सुब्रह्मण्यम के सुपुत्र हैं। उन्हें विदेश नीति और प्रतिरक्षा का ज्ञान जन्म-घुट्टी में मिला है। वे रुसी, जापानी और चीनी भाषाएं भी जानते हैं। अपने पिता के विपरीत वे हिंदी धाराप्रवाह बोलते हैं। शायद वे पहले विदेश सचिव हैं, जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. हैं। वे मोदी के आज्ञाकारी नौकरशाह और शिक्षक, दोनों का काम करेंगे। अब सुषमा स्वराज का बोझ पहले से भी हल्का हो जाएगा।
क्या जयशंकर जैसा विद्वान विदेश सचिव हमारी विदेश नीति को नई दिशा देने का प्रयत्न करेगा? क्या वह दक्षिण एशिया में एक साझा संसद, साझा बाजार और महासंघ खड़ा कर सकता है? क्या वह कोई ऐसी पहल कर सकता है, जिसकी वजह से पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंध सहज हो जाएं? विदेश-नीति के निर्माण में विशेषज्ञों की विशेष मदद लेकर मोदी की सरकार भारत को कुछ ही वर्षों में महाशक्तियों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर सकती है।