सड़क चलते लोग ओबामा की भारत-यात्रा पर फिदा हो जाएं तो ओबामा को भी आश्चर्य नहीं होगा जबकि इस यात्रा के असली सत्य को उनसे ज्यादा कौन जानता है? दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के नायक को किसी देश का नेता उसके पहले नाम से पुकारे, इससे अधिक खुलापन और अनौपचारिकता आप कहां देखते हैं? यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास की अपूर्व-सी घटना लगती है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि सोवियत नेता ब्रेझनेव अपने पर निर्भर देश अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री को ‘बबरक’ या ‘करमाल’ कहकर बुला सकते थे? या भारत का कोई प्रधानमंत्री नेपाल के प्रधानमंत्री को सिर्फ ‘सुशील’ या ‘कोइराला’ कहकर पुकार सकता है? यदि मोदी ने ओबामा को ‘बराक’ कहा और बराक ने मोदी, तो कोई शक नहीं रह गया कि दोनों नेताओं के व्यक्तिगत समीकरण उच्चतम स्तर पर पहुंच गए हैं। ओबामा ने बार-बार नमस्ते बोलकर, दोनों हाथ जोड़कर और अपने भाषणों में हिंदी बोलकर भारतीय जनता को यह बता दिया कि वे सिर्फ गणतंत्र दिवस के आतिथ्य का रस लेने के लिए ही नहीं, बल्कि उससे भी बड़े और गहरे लक्ष्य के लिए भारत आए हैं।
वह लक्ष्य क्या था? वह था, अपने कार्यकाल के इस आखिरी दौर में अमेरिकी जनता को यह बताना कि उसके हितों की रक्षा के लिए ओबामा ज़मीन-आसमान एक कर सकते हैं। वे सिर्फ भारत की यात्रा के लिए चार दिन निकाल सकते है। अपने राष्ट्रपतीय संदेश की तिथि बदल सकते हैं तथा हिंदी और नमस्ते के डोरे डालकर भारतीयों को सम्मोहित कर सकते हैं। उन्होंने किया भी। सबसे अधिक सम्मोहित तो उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री को कर दिया। प्रधानमंत्री ने पहले ही अमेरिकी पूंजी के लिए भारत के द्वार खोल रखे थे। अब उन्होंने और अधिक सुविधाएं देने का वादा कर दिया है, लेकिन ओबामा ने भारत में अमेरिकी पूंजी कितनी आएगी, इसका कोई संकेत नहीं दिया। प्रत्येक अमेरिकी को पता है, जो भी अमेरिकी डाॅलर किसी देश में जाता है, वह एक के तीन होकर लौटता है। जापान और चीन के नेताओं ने तो 35 और 20 अरब डाॅलर लगाने की बात कही है, लेकिन ओबामा ने शायद इसलिए कुछ नहीं कहा कि अमेरिकी पूंजीपति अपने निर्णय स्वयं करते हैं।
उन्होंने द्विपक्षीय व्यापार आदि बढ़ाने के लिए चार अरब डाॅलर लगाने की बात कही है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। इसी तरह जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा आशाएं भारत ने लगा रखी थीं, वह भी अधर में लटका हुआ है। पिछले 45 दिनों में भारतीय और अमेरिकी प्रतिनिधि लंदन में बैठकर यह तय करने वाले थे कि यदि कोई परमाणु दुर्घटना हो जाए तो उसके मुआवजे की व्यवस्था क्या होगी। यह तो पता चला है कि भारत ने कुछ नरमी दिखाई है यानी परमाणु-सप्लायर तथा परमाणु-संयंत्र के आॅपरेटर का भेद मान लिया है और उनकी अलग-अलग जिम्मेदारी भी मान ली है। इसके अलावा उन संयंत्रों का बीमा कराया जाए, यह बात भी दोनों पक्षों ने मान ली है, लेकिन सारी शर्तों को प्रकट नहीं किया गया है। वह भी शायद इसलिए कि अमेरिका की परमाणु कंपनियां इन शर्तों को मानेंगी भी या नहीं? यदि भारत अमेरिकी शर्तों को मान ले तो भी एक नई समस्या यह खड़ी हो सकती है कि फ्रांस और कनाडा भी नई शर्तों का दावा करने लगें। दूसरे शब्दों में अमेरिका के साथ जिस परमाणु सौदे के लिएमनमोहन सिंह ने सरकार दांव पर लगा दी थी, वह मोदी सरकार के लिए अब भी चुनौती बना हुआ है।
जहां तक अमेरिका का प्रश्न है, वह इस सौदे को लागू करने पर आमादा है। क्यों है? इसलिए कि उसके पास 1986 से कई परमाणु भट्ठियां बेकार पड़ी हुई हैं। उसे अब परमाणु-ऊर्जा पर भरोसा नहीं रह गया है। उसका जोर आजकल सौर-ऊर्जा पर है। वह अपनी परमाणु भट्ठियां भारत के मत्थे मढ़ना चाहता है और दुर्घटना की स्थिति में कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है। यदि वैसी ही भट्ठियां भारत बनाए तो प्रति मेगावाट खर्च मुश्किल से सात करोड़ रुपए आता है