अमृत महोत्सव लेखमाला
सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ — भाग-8
नरेन्द्र सहगल
बीसवीं सदी के दूसरे दशक के प्रारंभ होते ही विश्वयुद्ध के बादल मंडराने लगे। इन बादलों ने भारत पर अपनी अधिनायकवादी हुकूमत थोपने वाले इंग्लैंड के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया। देश और विदेश में सक्रिय भारतीय क्रांतिकारियों ने इस अवसर पर भारत में 1857 की तरह का ही एक स्वतंत्रता संग्राम छोड़ने की तैयारियां शुरू कर दीं। इस संभावित देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम के संचालन के लिए पर्याप्त धन एवं हथियारों की व्यवस्था भी कर ली गई। इस सशस्त्र क्रांति को सफलतापूर्वक संचालित तथा नियंत्रित करने के लिए गुप्त ठिकानों का चयन भी कर लिया गया और क्रांतिकारियों द्वारा किए जाने वाले गुरिल्ला हिंसक तौर-तरीकों की श्रंखला भी निश्चित कर ली गई।
विश्व युद्ध की आशंका से घबराकर अंग्रेजों ने अब कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने का फैसला कर लिया। समुद्र के किनारे स्थित कलकत्ता में वैसे भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध रोष अपनी चरम सीमा पर था। रोज-रोज के बम विस्फोटों से तंग आ चुके थे ब्रिटिश शासक। इस भयानक परिस्थिति से निपटने के लिए जार्ज पंचम को भारत भेजा गया। 12 दिसंबर को दिल्ली में जॉर्ज पंचम के स्वागत के लिए एक बड़ा समारोह किया गया। इस वैभवशाली शो में ऐसा प्रदर्शन किया गया मानो भारत में पूर्ण शान्ति है और दिल्लीवासी ब्रिटिश शासन से प्रसन्न और सुखी हैं। इस तरह सहानुभूति एवं सद्भावना का वातावरण निर्माण करने का विफल प्रयास किया गया। क्रांतिकारियों ने इसे देश का अपमान समझा।
क्रांतिकारी कोई बड़ा धमाका करके संसार को यह जताना चाहते थे कि भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा जा रहा स्वतंत्रता संग्राम समाप्त नहीं अपितु तीव्र होता जा रहा है। 3 दिसंबर 1912 को भारत के वायसराय लॉर्ड हार्डिंग एक बड़े लाव लश्कर के साथ दिल्ली में प्रवेश करने वाले थे। वायसराय के स्वागत के लिए दिल्ली को सजाया गया। सरकार इस अभूतपूर्व एवं भव्य प्रदर्शन से बताना चाहती थी कि शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ना पूर्णतया असंभव है। वायसराय को एक बग्गी में बिठाकर एक बड़े जुलूस का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शन में तोपों, बंदूकों, एवं अन्य हथियारों से लैश सेना एवं पुलिस की टुकडियां चल रहीं थीं। हजारों अंग्रेजभक्त दिल्ली निवासी प्रदर्शन में चल रही थे।
देशभक्त क्रांतिकारियों को यह अंग्रेजी तमाशा चुनौती दे रहा था। वे भी संसार को यह जानकारी देना चाहते थे जब तक भारत अंग्रेजों के पाश से मुक्त नहीं हो जाता भारतवासी पूरी ताकत के साथ लड़ते रहेंगे। अतः अंग्रेजों द्वारा क्रांतिकारियों को डराने और देशवासियों पर अपनी शक्ति की धाक जमाने के लिए दिल्ली में शानदार समारोह आयोजित किया जा रहा था। लॉर्ड हार्डिंग चारों ओर हो रही अपनी जय जयकार से फूला नहीं समा रहा था। उसे लग रहा था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद अमर/अजर है।
तभी एक जोरदार धमाका हुआ। भव्य जुलूस के चांदनी चौक में पहुंचते ही निकटवर्ती इमारत में छुपे बैठे एक क्रांतिकारी वसंत कुमार ने लार्ड पर बम फेंक दिया। लार्ड बुरी तरह से घायल होकर गिर गया परंतु बच गया। उसका अंगरक्षक वहीँ मारा गया। इस तरह प्रदर्शन, जुलूस और भव्य स्वागत की धज्जियाँ उड़ गईं। सारे सरकारी तमाशे पर पानी फिर गया। धमाके से मची भगदड़ में बहुत से तमाशबीन लोग घायल हो गए।
अंग्रेजों की सेना और पुलिस ने दिल्ली को चारों ओर से घेरकर बम फैंकने वालों की तलाश करना शुरू किया। घरों में घुस-घुस कर तलाशी अभियान चलाया गया। लाख सिर पटकने के बाद भी सरकार को कुछ भी हाथ नहीं लगा। बम फैंकने वाले सुरक्षित भाग गए। यह घटना ब्रिटिश शासकों के लिए एक सन्देश मात्र था कि आने वाले दिनों में जंगे-आजादी और ज्यादा तेज होकर कर पूरे देश में फैल जाएगी। यह सारी योजना उन्हीं रासबिहारी बोस ने बनाई थी जिन्होंने आगे चलकर आजाद हिंद फौज का निर्माण किया था।
दिल्ली के चांदनी चौक में वायसराय के ऊपर गिराए गए बम की आवाज अभी अंग्रेजों के दिल और दिमाग में गूँज ही रही थी कि क्रांतिकारियों ने 13 मई 1913 को लारेंस बाग़ में हो रहे अंग्रेजों के एक विशाल सम्मलेन में बम का धमाका कर दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद भीड़भाड़ वाले इलाकों मद्रेश्वर, नैमन सिंह और मौलवी बाजार में भी क्रांतिकारियों ने बम के भारी विस्फोट कर दिए। सरकार परेशान हो गई की बम कहां बनते हैं? कौन बनाता है? कौन किसके मार्गदर्शन में इसका इस्तेमाल करता है? इन प्रश्नों के उत्तर के लिए सरकार ने जासूसों का जाल बिछा दिया।
सरकार को पता चल गया कि बम की सभी घटनाओं का मार्गदर्शक और संचालक रासबिहारी बोस है। अतः पुलिस बोस को पकड़ने के लिए उनके मकान पर गई तो रासबिहारी तो चकमा देकर भाग गए परंतु उनके घर की तलाशी लेने पर पुलिस को कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज मिल गए। बोस के घर से कुछ बम और क्रांतिकारी पर्चे भी मिले। इसी जानकारी के आधार पर बम विस्फोट की कार्यवाही में शामिल मास्टर अमीरचंद, अवध बिहारी और सुलतान चंद पकड़े गए। पुलिस के हाथ एक ऐसा पत्र मिला जो अवध बिहारी द्वारा अपने ही साथी दीनानाथ को लिखा गया था।
दो-चार दिन की भागदौड़ के बाद यह दीनानाथ भी दबोच लिया गया। इस डरपोक क्रांतिकारी ने बम विस्फोट के सारे पत्ते खोल दिए। इसी तरह मास्टर अमीरचंद के गोद लिए पुत्र सुल्तानचंद ने भी बम विस्फोट के सारे रहस्यों पर से पर्दा उठा दिया। दरअसल यह दोनों अधकचरे क्रांतिकारी पुलिस द्वारा दी गई यातनाओं को सहन नहीं कर सके। इन दोनों की गद्दारी की वजह से लार्ड हार्डिंग पर हुए बम विस्फोट के सारे सूत्र सरकार के हाथ लग गए। परिणामस्वरूप इस दल के अन्य क्रांतिकारी बालमुकुंद, लाला हनुमंत सहाय, चरणदास, बलराज भी गिरफ्तार कर लिए गए।
इन सभी क्रांतिकारी देशभक्तों को जेल में यातनाएं देने के लिए अंग्रेजी सिलसिला प्रारंभ हो गया। सरकार इनसे बम विस्फोट के असली सूत्रधार रासबिहारी बोस को पकड़ना चाहती थी। परंतु सरकारी गुर्गों को बहुत शीघ्र पता चल गया कि यह तो फौलादी क्रांतिकारी हैं और स्वतंत्रता संग्राम में स्वयं की इच्छा से इस जोखिम भरे मार्ग पर चले हैं। यही इनकी मोक्ष प्राप्ति का साधन है।
तरह-तरह की यातनाएं देकर उनके मुंह से क्रांति की पृष्ठभूमि को उगलवाने में विफल रहे पुलिस अफसरों ने 13 अभियुक्त क्रांतिकारियों पर कत्ल, डाका, विस्फोट, राजद्रोह की प्राय सभी धाराएं लगाकर अभियोग चला दिया। आश्चर्यचकित करने वाले अनेक उदाहरण सामने आए। स्वार्थ लालच और गद्दारी किस हद तक जा पहुंचती है इसका अनुमान उस समय लग गया जब मास्टर अमीरचंद का अपना गोद लिया बेटा सुल्तानचंद ही अपने पिता के खिलाफ गवाही देने लगा। अपने पिता को फांसी के तख्ते तक ले जाने वाला यह कुपुत्र सुल्तान चंद बाद में मुखबिरी के पैसे के साथ दिल्ली में मौज मस्ती करता रहा।
बम विस्फोटों के इन सरफरोशी देशभक्तों पर थोपा गया यह मुकदमा पूरे मास तक चलता रहा। अपने ही देश की जेल, अपने देश के पहरेदार और कर्मचारी। फिर भी जेल में डाकू जैसा व्यवहार। यही थी इन स्वतंत्रता सेनानियों की विडंबना और व्यथा। इतना सब कुछ होने के बाद भी इन्होंने न्यायालय में बहुत ही साहस और वीरता का परिचय दिया। जजों, वकीलों और देशद्रोही मुखबिरों के बीच सीना तान कर भारत माता की जय, क्रांति अमर रहे और अंग्रेजों भारत छोड़ो के गगनभेदी नारों से न्यायालय की दीवारें भी हिलने लग जातीं।
आखिर न्यायालय की नाटकबाजी 5 अक्टूबर 1914 को समाप्त हुई। कोर्ट ने अपना वही फैसला सुनाया जिसकी उम्मीद इन अभियुक्तों, देशवासियों और सशस्त्र क्रांति के शेष पुरोधाओं को थी। भाई बाल मुकुंद, मास्टर अमीरचंद, अवध बिहारी और बसंत कुमार को सजा-ए-मौत दे दी गई और लाला हनुमान सहाय व बलराज भल्ला को 7 वर्ष का कारावास।
सजा प्राप्त करने वाले बसंत कुमार मात्र 21 वर्ष के युवा थे। बंगाल के नादिया जिले के रहने वाले बसंत भाई को पहले आजीवन कारावास की सजा दी गई। परंतु बाद में सरकार की अपील पर इस तरुण क्रन्तिकारी को भी मृत्युदंड दिया गया।
फांसी पर लटकने वाला अवध बिहारी कॉलेज का छात्र था। मौत का फंदा उसके गले में डालने से पहले पूछा गया – तुम्हारी क्या इच्छा है – वह जोर से बोल उठा “मेरी अंतिम इच्छा यही है कि अंग्रेजी राज नष्ट-भ्रष्ट हो जाए।” इस अंग्रेज अधिकारी ने कहा कि आखरी समय पर तो शांति से मरो। तो अवध बिहारी जोर से गरज पड़ा –- “शांति कैसी? मैं तो चाहता हूं कि एक प्रलयंकारी आग भड़के। उस आग में तुम जलो, मैं जलूं और भारत की गुलामी जले और उस आग में से मेरा स्वतंत्र भारत कुंदन बन कर निखर उठे।”
मास्टर अमीरचंद दिल्ली के रहने वाले एक संभ्रांत परिवार में से थे। उन्हें लाला हरदयाल ने क्रांति की दीक्षा देकर दिल्ली के क्रांति कार्य की कमान सौंपी थी। मास्टर अमीरचंद मिशन स्कूल में अध्यापक थे। बहुत ही सज्जन वृति के मास्टर जी ने दिल्ली में सशस्त्र क्रांति का जाल बिछा दिया था।
फांसी का तख्ता प्राप्त करने वाला चौथा नाम भाई बाल मुकुंद का था। वे काले पानी की सजा भुगतने वाले प्रसिद्ध हिन्दू नेता भाई परमानन्द के छोटे भाई थे। भाई बालमुकुन्द ने बीए की डिग्री लेने के बाद प्रसिद्ध राष्ट्रभक्त लाला लाजपत राय के मार्गदर्शन में देश की सेवा करने का व्रत लिया था। साहसी एवं देशहित के लिए समर्पित भाई बालमुकुंद ने फांसी की सजा सुनते ही अंग्रेज जज से कहा कि “आज मुझे अत्यंत आनंद हो रहा है। क्योंकि इसी नगर में जहां हमारे पूर्वज पुरुष भाई मतिदास ने देश और धर्म के लिए अपने प्राण त्यागे थे, मैं भी उसी उद्देश्य के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर रहा हूँ।”
उल्लेखनीय है कि भाई बालमुकुंद की पत्नी राम रखी जब अपने पति से मिलने जेल में गई तो उसने देखा कि उसका देशभक्त पति जमीन पर कंबल बिछाकर सोता है। मिट्टी मिले आटे की रोटी और दाल खाता है। रामरखी ने भी घर आकर गर्मी के दिनों में भी जमीन पर कंबल ओढ़ कर सोना शुरू कर दिया। मिट्टी मिले आटे की रोटी खाकर अपनी भूख को शांत करने लगी। अपने पति की भांति कष्ट भोगने में आनंद का अनुभव करने लगी। जिस दिन उसके पति को फांसी पर लटकाया जाना था, उस दिन वह प्रातः जल्दी उठ गई। स्नान इत्यादि करके उसने हार-श्रृंगार किया और शादी वाला लाल जोड़ा (वस्त्र) पहनकर घर के बाहर एक चबूतरे पर बैठ गई। ध्यान में मग्न हो गई। उधर इसके पति का शरीर फंसी पर लटक गया और इधर रामरखी ने अपने प्राण त्याग दिए। पति-पत्नी का एक साथ दाह संस्कार हुआ। रामरखी क्रान्तिकारिणी तो नहीं थी परन्तु अमर हो गई। देश प्रेम और पति प्रेम की मार्मिक कथा है यह ……………….जारी
नरेन्द्र सहगल
पूर्व संघ प्रचारक, लेखक – पत्रकार
बंधुओं मेरा आपसे सविनय निवेदन है कि इस लेखमाला को सोशल मीडिया के प्रत्येक साधन द्वारा आगे से आगे फॉरवर्ड करके आप भी फांसी के तख्तों को चूमने वाले देशभक्त क्रांतिकारियों को अपनी श्रद्धान्जलि देकर अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाएं।
भूलें नहीं – चूकें नहीं।
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