पुण्य प्रसून वाजपेयी
लोकसभा चुनाव ने सत्ताधारियों को चेताया कि वह सत्ता पाने के बाद सत्ता की मद में खो ना जाये। दिल्ली चुनाव सत्ताधारियों को चेता रही है कि ईमानदारी जरुरी है। चाहे वह वादों को लेकर हो या फिर आरोप मढ़ने के आसरे
नारों की गूंज की हो। लोकसभा और दिल्ली चुनाव के बीच का वक्त साल भर का भी नहीं है। इसलिये दिल्ली चुनाव झटके में इतना महत्वपूर्ण हो चला है कि जीत-हार के आसरे राजनीतिक सुधार देश में होगा या नहीं बहस इस पर भी चल पड़ी है। और संयोग से ज्यादा बहस उस सोशल मीडिया में है, जिसके जिन्न को लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी दल के हथियार बनाया और अब वह उसे ढाल बनाना चाहता है। यह संभव है नहीं क्योंकि दिल्ली चुनाव के तौर तरीके या कहें आरोप प्रत्यारोप ने झटके में पहली बार तीन सवालो को जन्म दे दिया है। और संकेत भी दे दिये हैं कि गठबंधन से आगे सत्ता की चकाचौंध पर ईमानदारी भारी पड़ सकती है। यह तीन सवाल राजनीतिक सुधार के भी है और तीन सवाल गैर बराबरी को खत्म करने वाले भी हैं। पहले बात राजनीतिक सुधार की। राजनीतिक घोषणापत्र सिर्फ बोलने और बताने के लिये नहीं होता। अब जरुरत आ गयी है कि पार्टियों के घोषणापत्र को कानूनी तौर पर मान्य माना जाये। दूसरी बात देश के बजट सरीखे पार्टियो का भी बजट पेश होना चाहिये। यानी जिस तरह सरकार हर बरस देश का बजट पेश कर बताती है कि उसकी योजना कहां से पैसा लाने की है और कहा खर्च करने की है तो फिर राजनीतिक दलों को भी इसी तरह हर बरस
पना बजट पेश करना चाहिये। जिससे पार्टियों में कालाधन ना जमा हो। क्रोनी कैपिटलिज्म का खेल सत्ता के पर्दे पीछे पार्टी फंड के नाम पर ना हो। और हार के बाद या जीतने वाले हालात में पहुंचने वाली पार्टियों का बजट भी पारदर्शी रहे। जिससे सत्ता पाने के बाद नीतियो का खेल सिर्फ फंड देने वालों के लिये ना हो। तीसरी बात कानून की सत्ता के आगे सत्ताधारी और राजनीतिक दल भी समान रुप से देश के बाकि संस्थानों या कारपोरेट तरीके ही आये। यानी सत्ता को लेकर कानून का नजरिया इसलिये लग नहीं होना चाहिये कि वह जनता की नूमाइन्दगी कर रही है। यानी इमानदारी का यह चेहरा नहीं चलेगाकि मंत्री के बेटे ने बाप के हदे के नाम पर कमाई कर ली और फंड में आने पर सारी रकम पार्टी फंड में जमा करा दी। यानी मौजूदा वक्त में पार्टी फंड को ईमानदार करार देकर जिस तरह सत्ता काम करती है और चुनाव के वक्त पार्टी फंड ही सबसे ताकतवर हो जाता है उसमें जनता की भागेदारी किसी भी चुनाव में सिर्फ इतनी रहती है कि जो सत्ता में आयेगा उससे मिलेगा क्या। या फिर सत्ता में आने क लिये चुनाव कौन कितना महंगा लड़ सकता है।
इसकी बारीकी को समझे तो सत्ताधारी पार्टी का कार्यकर्ता दूसरी पार्टी के कार्यकर्ता से इसलिये ताकतवर दिखायी देता है क्योंकि पार्टी फंड में जमा कराने वाले के काम उसके जरीये हो सकते है। और देश में पार्टी कार्यकर्ताओं के लिये यही रोजगार होता है कि दस लाख पार्टी फंड में तो एक लाख अपनी जेब में। यह रकम करोड़ों में भी हो सकती है। यानी जो सक्षम है उसके काम पार्टी के जरीये सरकार करती है और चुनाव के वक्त पार्टी ही सरकार हो जाती है क्योंकि संगठन का चेहरा ही चुनाव लड़कर जीतने के आस में बनाया जाता है। जाहिर है राजनीतिक सुधार पर अभी तक देश में बहस हुई नहीं है क्योंकि राजनीतिक सत्ता पने पैरो पर इमानदारी का पत्थर क्यों मारेगी। लेकिन इसी ने देश के नागरिकों के लेकर भी सवाल निकलते है और दिल्ली चुनाव के संकेत पहली बार उसी दिशा में राजनीति को लेजाने का प्रयास भी है। क्योंकि जीतने के बाद जिम्मेदारी से मुक्ति तो तभी हो जाती है जब राजनीतिक दलों के पास विकास का मॉडल या कहे जनहित का मॉडल कारपोरेट या उद्योगपतियो की पूंजी पर टिका हो। यानी राज्य की भी कोई जिम्मेदारी होनी और राजनीतिक दल जब सत्ता में आ जाये तो जिस तर्ज पर सत्ता में ने से पहले वह सड़क पर हक के लिये नारेलगाता था सत्ता में आने के बाद उसे पूरा करने की जिम्मेदारी ले। कह सकते हैं बच्चे उच्च शिक्षा पाये यह हर सत्ता चाहती है। पानी हर किसी को मिले, यह नेहरु के दौर से नरेन्द्र मोदी तक कहते हैं। बिजली चौबिसों घंटे मिलेगी। स्वास्थ्य सेवा हर किसी को मिलनी चाहिये । खुले आसमान तले कोई नहीं सोना चाहिये। रोजगार की व्यलस्था हर किसी के पास होनी चाहिये। यह कौन नहीं चाहती है। लेकिन इस पर राजनीतिक पार्टियां सत्ता पाते ही खामोश क्यों हो जाती है। इच्छा है दिल्ली चुनाव के वक्त शिक्षा, पानी, बिजली, स्वास्थ्य को लेकर सवाल उठे है और एक दो राजनीतिक दल इसे राज्य की जिम्मेदारी मानने को भी तैयार दिखायी दे रहा है।
लेकिन देश के कठघरे में गर राज्य सत्ता को खड़ा कर दे तो हालात त्रासदी से भी बदतर नजर आयेंगे। जरा कल्पना कीजिये दिल्ली जैसी जगह में अगर कोई छात्र बारहवी क्लास में नब्बे फीसदी कम अंक लाता है तो उसका एडमिशन किसी यूनिवर्सिटी के किसी कालेज में हो ही नहीं सकता। तो क्या नब्बे फीसदी से कम अंक लाने वाला छात्र नालायक है। या फिर सत्ताधारियों ने देश में शिक्षा के नाम पर एक ऐसी व्यवस्था बना ली है जो शिक्षा के निजीकरण को मान्यता देती है। महंगी शिक्षा को मान्यता देती है। सबकुछ गिरवी रखकर बैक से लोन लेकर या किसी साहूकर से लोन लेकर ही बच्चे को पढ़ाना मजबूरी बना दिया गया है। और इन्हीं निजी शिक्षा संस्थानों का सबसे ज्यादा डोनेशन पार्टियों के फंड में पहुंचता है। दूसरा सवाल देश में जितने भी स्वास्थ्य सेवा केन्द्र है, अगर उस लिहाज से देश की जनसंख्या देखें तो राज्य की जिम्मेदारी देश के सिर्फ 12 फिसदी तक के पहुंच की है। 45 फिसदी नागरिकों का इलाज खुले आसमान तले ही होता है । जबकि देश के 20 फिसदी लोगो के लिये निजी हेल्थ स्वास्थ्य सेवा। और नौकरी पेशा लोगो के लिये हेल्थ इंश्योरेंस के जरीये ही होता है। लेकिन कल्पना कीजिये की देश में आजादी के बाद से स्वास्थ्य सेवा के लिये जो बजट रहा अगर से जोड़ भी दिया जाये तो बीते दस बरस के निजी हेल्थ इंश्योरेंस की रकम भारी पड़ेगी। मौजूदा वक्त में हर बरस हेल्थ इंश्योरेंस से जुड़े देश के 21 फिसदी लोग बाकी 79 फिसदी लोगों से तीन गुना हेल्थ सर्विस पर खर्च करते है। इतना ही नहीं स्वास्थ्य मंत्रालय के बजट से सिर्फ तीन गुना ज्यादा कमाई मौजूदा वक्त में स्वास्थय सेवा को धंधा बनाये लोगों को होता है। दिल्ली में स्वास्थ्य सेवा का भी सवाल उठा है जो पूरी तरह राज्य की निगरानी में ही नहीं बल्कि राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिये। तो मनाइये कि दिल्ली के आगे बी यह सवाल बढ़ जाये। वहीं सबसे बड़ा सवाल देश में न्याय व्यवस्था का भी है। निचली अदालत के आगे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक
न्याय की गुहार के लिये देश के सिर्फ 10 फिसदी लोग ही पहुंच पाते है। क्योंकि औसतन हाईकोर्ट में आपराधिक मामले केस को निपटाने में न्यूनतम 10 लाख रुपये लगते ही है। वकील की औसतन सबसे कम फिस हर पेशी के वक्त सिर्फ मौजूद रहने की देश में 10 हजार है। कोई भी केस 15 पेशी से कम पर खत्म होता नहीं। वहीं सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंच गया तो न्याय के लिये संघर्ष की रकम बढकर न्यूनतम अस्सी लाख रुपये पा कर जाती है। ऐसे में बड़ा सवाल यह भी है कि न्याय सेवा और अंतिम न्याय भारत में बहुसंख्य तबके के लिये निचली अदालत से आगे बढ़ नहीं पाता है। तो फिर अदालतों में तीन लाख से ज्यादा मामले लंबित हो या तीन करोड रुपये फर्क पड़ता क्या है जब दिल्ली के तिहाड में ही ढाई सौ से ज्यादा आरोपी अपराधी इसलिये बंद है क्योंकि उनके पास जमानत की रकम तक देने के लिये नहीं है । देश भर की जेलों में बंद तीस हजार से ज्यादा आरोपी अपराधियों की हालत ऐसी है कि उनकी सुनवाई हो कैसे। वकील के लिये रकम इनके पास है नहीं और सरकारी वकीलो की तादाद भी कम है और जजों के पास आने वाले मामले भी अत्य़ाधिक है। चूंकि राज्य जिम्मेदारी से मुक्त है। उसके पास जनता के जीवन को बेहतर बनाने का ब्लूप्रिट कारपोरेट.
उघोगपतियो या मुनाफा बनाकर जनसेवा करने वाला है तो हर रास्ता पूंजी पर जा टिका है। राजनेता अपनी सत्ता को लेकर जिस तरह स्वार्थी है या कहे सत्ता का मतलब ही जब जन-लूट से हो चुका है तो दिल्ली चुनाव का यह मैसेज कि सत्ता सेवा के लिये होनी चाहिये तो क्या यह संदेश मौजूदा राजनीति को बदल सकता है। या वाकई देश में राजनीतिक ताकत या राजसत्ता जनता के साथ खड़े होकर सडक,बिजली पानी, शिक्षा स्वास्थ्य को पूरा करने में लग सकती है। यह असंभव से हालात को थामने के लिये दिल्ली या तो एक प्रयोगशाला बन सकती है या फिर संसदीय राजनीति पंरपरिक लीक पर ही चले। जहां सत्ता पाने का मतलब हर सुविधा की लूट है। सामाजिक विषमता को बरकरार रखने की ताकत है। तो इंतजार किजिये दिल्ली चुनाव से संकेत निकले है तो रास्ता भी निकलेगा।
(लेखक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं)