परिपक्व राजनेता और किसान के बेटे के रूप में जगदीप धनखड़ बने देश के उपराष्ट्रपति


गाजियाबाद ( ब्यूरो डेस्क ) राजनीति बड़ा अजब गजब खेल है। इसमें कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। लड़ाई कोई लड़ता है तो सेहरा किसी और को जा बंधता है। यदि देश के नए राष्ट्रपति बने जगदीप धनखड़ के बारे में विचार किया जाए तो यही बात सच साबित होती दिखाई देती है। किसान आंदोलन चलाने वाले राकेश टिकैत को निश्चित ही आज जगदीप धनखड़ के उपराष्ट्रपति बनने पर मलाल हो रहा होगा। जबकि सेहरा आज जगदीप के सिर सज गया है ।।वैसे यह कोई गलत बात नहीं है क्योंकि राकेश टिकैत के कारनामे इस सेहरा को पाने के नहीं थे, जबकि जगदीप धनखड़ का जीवन और उनकी जीवन शैली निश्चय ही उन्हें इस मोड़ तक ले आई है।
उपराष्ट्रपति चुनाव तो महज औपचारिकता था। पहले से तय थी एनडीए की जीत और विपक्ष की हार। लेकिन नतीजों से जो तस्वीर उभरी वह बहुत कुछ कहती है। जगदीप धनखड़ की प्रचंड जीत भारतीय राजनीति में पीएम मोदी की अगुआई में बीजेपी के दबदबे के जारी रहने की मुनादी है। दूसरी तरफ यह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता के छिन्न-भिन्न होने का प्रमाण है। पीएम मोदी और जगदीप धनखड़ के खिले चेहरे बिखरे हुए विपक्ष की हताशा की तस्वीर है।
उपराष्ट्रपति चुनाव में संसद के दोनों सदनों से सदस्य ही वोटिंग करते हैं। जगदीप धनखड़ को 528 वोट मिले जबकि विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार मार्ग्रेट अल्वा को महज 182 वोट से संतोष करना पड़ा। चुनाव में 780 वोट पड़ सकते थे लेकिन 725 सांसदों ने यानी 92.9 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इनमें से 15 वोट अमान्य साबित हुए। धनखड़ को 528 वोट यानी कुल वैध मतों का 72.8 प्रतिशत वोट मिले। अल्वा को महज 25.1 प्रतिशत वोट ही मिल सके।
उपराष्ट्रपति चुनाव का नतीजा भारतीय राजनीति में मोदी युग के जारी रहने का संकेत है। सभी शीर्ष संवैधानिक पदों- राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति (जो राज्यसभा के पदेन सभापति भी हैं) और लोकसभा स्पीकर पर बीजेपी का कब्जा है। दूसरी तरफ विपक्ष है जो लाख कोशिशों के बाद भी बिखरा हुआ है, टूटा हुआ है। पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते जिन जगदीप धनखड़ के साथ टीएमसी सुप्रीमो और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के टकराव की खबरें सुर्खियां बटोरती रहती थीं, चुनाव में दीदी ने एक तरह से उनकी ही मदद की। विपक्षी एकता का दम भरने वाली और राष्ट्रीय स्तर पर एंटी-बीजेपी कैंप की अगुआई का सपना देखने वालीं ममता बनर्जी ने टीएमसी सांसदों को वोटिंग में हिस्सा नहीं लेने का फरमान दिया।
ऐसे वक्त में जब भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, हमें एक किसान पुत्र के उपराष्ट्रपति बनने पर गर्व है जो कानूनी ज्ञान और बौद्धिक कौशल में उत्कृष्ट हैं।
टीएमसी के इस कदम से 2024 चुनाव से पहले विपक्षी एकता के गुब्बारे की हवा निकल गई है। नरेंद्र मोदी को एकजुट होकर घेरने की कोशिश में लगे विपक्ष के लिए ये झटका मनोबल तोड़ने वाला है। तभी तो हार के बाद मार्ग्रेट अल्वा टीएमसी चीफ पर भड़ास निकालने से खुद को नहीं रोक पाईं। उन्होंने कहा कि कुछ पार्टियों ने ‘प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर’ बीजेपी की मदद की। उनके निशाने पर खासकर टीएमसी थी। अल्वा ने कहा, ‘यह चुनाव विपक्ष के लिए एकजुट होकर काम करने का एक मौका था…और एक दूसरे पर भरोसा पैदा करने का मौका था। दुर्भाग्य से कुछ विपक्षी दलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर बीजेपी का समर्थन करना चुना, ये एकजुट विपक्ष के विचार को बेपटरी करने की कोशिश है।’ अल्वा ने इस चुनाव को ‘संविधान के रक्षकों और संविधान की जड़ें खोदने वालों’ के बीच वैचारिक लड़ाई के तौर पर पेश करने की कोशिश की थी।
बीजेपी से पहले उपराष्ट्रपति जो संघ की पृष्ठभूमि से नहीं आए
जगदीप धनखड़ उपराष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल करने वाले बीजेपी के पहले ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्होंने अपने सियासी सफर की शुरुआत संघ परिवार से नहीं की। भैरो सिंह शेखावत और वैंकैया नायडू तो संघ में ही राजनीति का ककहरा सीखते हुए बीजेपी के शीर्ष नेताओं में शुमार हुए। इनके उलट जगदीप धनखड़ ने बीजेपी तक का सफर लोकदल और कांग्रेस होते हुए पूरी की। उन्होंने 2008 में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था।
यह चुनाव विपक्ष के लिए एकजुट होकर काम करने का एक मौका था…और एक दूसरे पर भरोसा पैदा करने का मौका था। दुर्भाग्य से कुछ विपक्षी दलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर बीजेपी का समर्थन करना चुना, ये एकजुट विपक्ष के विचार को बेपटरी करने की कोशिश है।
जगदीप धनखड़ को करीब 73 प्रतिशत वोट मिले जो 2017 में वैंकैया नायडू को मिले वोटों से 2 प्रतिशत ज्यादा है। धनखड़ ने अपने प्रतिद्वंद्वी को 346 वोटों के अंतर से हराया। 1997 के बाद पिछले 6 उपराष्ट्रपति चुनावों में जीत का ये सबसे बड़ा अंतर है।हालांकि, उपराष्ट्रपति चुनाव में सबसे बड़ी जीत का रेकॉर्ड केआर नारायणन के नाम है। उन्हें 1992 में कुल पड़े 701 वोटों में से 700 वोट मिले थे। हालांकि, तब उनका मुकाबला किसी पार्टी के उम्मीदवार से नहीं बल्कि निर्दलीय काका जोगिंदर सिंह उर्फ ‘धरती पकड़’ से था। 4 उपराष्ट्रपति ऐसे भी हुए जिन्हें निर्विरोध चुना गया था।
कुछ भी हो भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही शुभ संकेत है कि इस समय देश का राष्ट्रपति हो चाहे देश का प्रधानमंत्री हो और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री हो यह सभी नीचे से निकलकर ऊपर पहुंचे हैं। निश्चय ही इन जैसे लोगों को इस देश के आम आदमी के दुख दर्द की जानकारी है। लोकतंत्र उसी को कहते हैं जिसमें आम जनता के दुख दर्द को समझने वाले जनप्रतिनिधि नीचे से निकलकर ऊपर पहुंचे । आज देश के एक सर्वोच्च संवैधानिक पद पर एक किसान का बेटा बैठा है तो 15 दिन पहले एक साधारण परिवार की बेटी राष्ट्रपति बनी है, ऐसी अवस्था को लोकतंत्र की परिपक्व अवस्था ही कहा जाएगा। देश को जगदीप धनखड़ जैसे परिपक्व राजनेता और किसान के बेटा से बहुत उम्मीद है।

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