रंजीत कुमार
अल कायदा के सरगना ऐमन अल जवाहिरी को काबुल स्थित उसकी गोपनीय रिहाइश पर ड्रोन हमले में मार गिराकर अमेरिका ने एक बार फिर बड़ी कामयाबी हासिल की है। इसी तरह मई 2011 में उसने अल कायदा के संस्थापक और मुखिया ओमामा बिन लादेन को पाकिस्तान के एबटाबाद स्थित गोपनीय निवास पर मार कर दुनिया को चौंकाया था। लादेन के मारे जाने के बाद अल जवाहिरी ने अल कायदा की कमान संभाली थी। अक्सर उसके विडियो संदेश जारी होते थे, लेकिन उसके गुप्त ठिकाने का अमेरिका को तब तक पता नहीं चल सका, जब तक पाकिस्तान ने उसे जानकारी नहीं दी।
पाकिस्तान की मदद
कहा जा रहा है कि ओसामा बिन लादेन की तरह अल जवाहिरी को मार गिराने में भी पाकिस्तान का अहम योगदान है। इस बारे में राजनयिक हलकों में उठ रही कुछ बातें गौर करने लायक हैं:
जुलाई के अंत में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल बाजवा वॉशिंग्टन में आला अमेरिकी अधिकारियों से मिले और अमेरिका से पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का कर्ज दिलवाने में मदद की अपील की थी। इसके बाद पाकिस्तान को 1.2 अरब डॉलर का कर्ज जारी करने पर सहमति हुई। पाकिस्तान गंभीर वित्तीय संकट से गुजर रहा है और उसके लिए यह कर्ज अत्यावश्यक हो गया था।
वॉशिंग्टन में जनरल बाजवा ने अमेरिकी मदद के एवज में अल जवाहिरी का ठिकाना बताया और ड्रोन हमले में सहयोग करने का वचन दिया।
सवाल सिर्फ यह है कि जिस ड्रोन से हमला हुआ क्या उसे पाकिस्तानी वायुसेना ने अपने आसमान से होकर काबुल जाने दिया या वह ड्रोन पाकिस्तान के किसी सैनिक अड्डे से ही छोड़ा गया? अफगानिस्तान के इर्द-गिर्द जो देश हैं, वे अमेरिका को अपने आसमान से होकर ड्रोन हमले की इजाजत नहीं दे सकते।
अफगानिस्तान में तालिबान शासन की वापसी के बाद ही अल जवाहिरी को काबुल पहुंचाया गया, ताकि उसे वहां सरकारी संरक्षण मिल सके। पाकिस्तान ने इस तरह जवाहिरी को काबुल भेजकर उसे छुपाए रखने की अपनी नैतिक जिम्मेदारी से मुक्ति प ली थी।
बहरहाल, अमेरिका ने इस तरह पाकिस्तान की कथित मदद से एक हैरतअंगेज कार्रवाई में एक आतंकवादी सरगना को तो मार गिराया है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे आतंकवाद खत्म हो जाएगा? ऐसा नहीं कहा जा सकता। आतंकवादी विचारधारा जिंदा है और जिंदा रहेगी। आतंकवाद को हथियार बना कर काबुल की सत्ता पर काबिज तालिबान को उसकी मंजिल तक पहुंचाने में खुद अमेरिका का बहुत बड़ा योगदान माना जा सकता है। पिछले अगस्त में तालिबान के खौफ से रातोंरात काबुल छोड़ कर भागने वाला अमेरिका अल जवाहिरी को मार कर अपनी पीठ भले थपथपाए, उसने जाने-अनजाने आतंकवाद को उसका साम्राज्य सौंप दिया। पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबान के आगे उसने जिस तरह से आत्मसमर्पण किया, वह अमेरिकी इतिहास का सबसे काला दिन कहा जाए तो गलत नहीं होगा। लेकिन अमेरिकी राजनयिक उस शर्मनाक वाकये को याद नहीं करना चाहते।
देखा जाए तो 2001 में 9/11 के अल कायदा के आतंकवादी हमले (जिसमें अल जवाहिरी ने बड़ी भूमिका निभाई थी) के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान के तालिबानी और अल कायदा ठिकानों पर मिसाइली हमले कर एक तरह से आतंकवाद की रीढ़ तोड़ डाली थी। मगर सैन्य कार्रवाई के मामले में आतंकवादी तत्वों को कुचल देने वाला अमेरिका कूटनीतिक टेबल पर उनसे हारता रहा। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सहयोग देने के नाम पर पाकिस्तान उसे बेवकूफ बनाता रहा। अमेरिका इस गफलत में रहा कि पाकिस्तान इस लड़ाई में उसके साथ है। मगर पाकिस्तान की दिलचस्पी उससे अनुदान लेते रहने में थी। वह बीच-बीच में एकाध आतंकवादी सौंपते हुए अमेरिका से अरबों डॉलर का अनुदान लेता रहा। दूसरी तरफ उस पूरे इलाके में पाकिस्तान की जानकारी में आतंकवाद की खेती होती रही। अमेरिका ने आतंकवाद से लड़ने के लिए पाकिस्तान को 30 अरब डॉलर से भी अधिक की मदद दी, मगर नतीजा ठन-ठन गोपाल ही कहा जाएगा। इसीलिए पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने इस नीति की तुलना घर के पिछवाड़े में सांप पालने और उसे दूध पिलाने जैसी कहावत से की थी।
इन सबसे यह बात साफ उजागर होती है कि पाकिस्तान आज भी आतंकवाद का संरक्षक बना हुआ है। ऐसे में यदि आतंकवाद को जड़ से खत्म करना है तो पाकिस्तान से निबटना होगा। लेकिन सवाल तो यह है कि क्या अमेरिका पाकिस्तान को लेकर अपने रवैये में बदलाव लाएगा? इसी बिंदु पर इस सवाल से भी टकराना होगा कि अमेरिकी सेनाएं आतंकवाद के खिलाफ जो उपलब्धि हासिल करती हैं, अमेरिकी राजनयिक उसे वार्ता टेबल पर क्यों खो देते हैं।
बहरहाल, अल जवाहिरी भले मारा जा चुका हो, जहां तक आतंकवाद के फलने-फूलने की आशंका की बात है तो कुछ बातों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
एक, अफगानिस्तान में अल कायदा के छह सौ से अधिक जिहादी रह रहे हैं जो देर-सबेर इस्लामिक स्टेट खुरासान (आइसिस- के) में भर्ती होकर नया सिरदर्द बन सकते हैं।
दो, आइसिस-के तालिबान का भी विरोधी है और यदि इसने पाकिस्तान सरकार का दुश्मन माने जाने वाले तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) से हाथ मिला लिया तो न केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान बल्कि पूरे मध्य और दक्षिण एशिया के लिए मुसीबत बन सकता है।
तीन, अमेरिका अब तक यही मानता रहा है कि केवल अल कायदा ही उसका दुश्मन है। बाकी जिहादी आतंकवादी तंजीमें उसके लिए खतरा नहीं पैदा करतीं।
नई रणनीति चाहिए
ऐसे में अल जवाहिरी को मार कर भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन अपनी गिरती घरेलू साख को बहाल करने की कोशिश करें, इस इलाके से आतंकवाद के खतरे को कम करने का दावा नहीं कर सकते। इसके लिए उन्हें अफगानिस्तान पर राज कर रहे आतंकवादी संगठन तालिबान और उसके संरक्षक पाकिस्तान से निबटने के लिए यथार्थपूर्ण रणनीति अपनानी होगी।
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