वैदिक संपत्ति : वेद और ब्राह्मण
गतांक से आगे ….
वेद और ब्राह्मण
प्राचीन काल में वेद शब्द बड़े महत्व का समझा जाता था । जिस प्रकार शास्त्र शब्द किसी समय अनेक विषयों के लिए प्रयुक्त होने लगा था और धर्मशास्त्र , ज्योतिषशास्त्र आदि नामों से अनेकों विद्याएँ कही जाती थीं , जिस प्रकार किसी जमाने में सूत्रों का महत्व बढ़ा और धर्मग्रन्थ , क्रियाग्रन्थ , व्याकरण और दर्शन आदि समस्त ग्रन्थ सूत्रों में ही लिखे , पढ़े जाने लगे , जिस प्रकार स्मृतिकाल में अनेकों ग्रन्थ स्मृति के नाम से , ब्राह्मणकाल में अनेकों ग्रन्थ ब्राह्मणों के नाम से , पुराणकाल में पुराण शब्द का महत्व होने से अनेकों ग्रन्थ पुराण शब्द से लिखे , पढ़े जाने लगे , ठीक उसी तरह वैदिक काल में वेद शब्द की महत्ता के कारण अनेकों विद्याएँ अनेकों पुस्तकें वेद के ही नाम से कही जाती थीं । यही कारण है कि ‘ मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् ‘ अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद कहा जाने लगा ।
इतना ही नहीं वेद के नाम से अनेकों विद्याएँ प्रसिद्ध हो गईं । गोपथ ब्राह्मण १।१० में प्रसिद्ध चारों वेदों के अतिरिक्त पाँच प्रकार में अन्य वेदों का वर्णन है । यहां लिखा है कि ‘ ताभ्यः पञ्चवेदान्तिरमियत । सर्पवेदं पिशाच वेदम सुरवेदमितिहासवेदं पुराणवेदमिति ‘ अर्थात् उससे सर्पवेद , पिशाचवेद , असुरवेद , इतिहासवेद और पुराणवेद निर्माण हुए । यहाँ इतिहास और पुराण भी वेद हो के नाम से कहे गये हैं । भरतकृत नाट्यशास्त्र में लिखा है कि –
सङ्कल्य भगवानेहं सर्ववेदाननुस्मरन् । नाटघवेदं ततश्र्वकं चतुर्वेदाङ्ग सम्भवम् ||
जग्राह पाठच ऋग्वेदात्सामेभ्यो गीतमेव च । यजुर्वेदावभिनयान् रसानाथर्वणावपि || ( नाट्यशास्त्र )
अर्थात् चारों वेदों से संकलन करके भगवान् ने नाट्यवेद बनाया । ऋग्वेद से पाठ ( Part ) लिया , सामवेद से गीत लिया , यजुर्वेद से अभिनय लिया और अथर्ववेद से रसों का ग्रहण किया । यहाँ स्पष्ट ही नाट्यशास्त्र को नाट्यवेद कहा गया है । यही क्यों , चरक और सुश्रुत को आयुर्वेद , नारदसंहिता को गान्धर्ववेद और एक अन्य पुस्तक को धनुर्वेद सभी लोग कहते हैं और इन्हीं नामों से व्यवहार करते हैं । यहाँ तक कि महाभारत को भी पञ्चम वेद के नाम से लिखा गया है और अल्लोपनिषद् भी वेद ही के नाम से प्रसिद्ध है । हमने तो एक कवि को एक राजा के सम्मुख यह कहते हुए सुना है कि ‘ भूपति तिहारो गुन वेदन में गायो है ‘ । इसने अपनी इस कविता को भी वेद ही बना दिया है , इसलिए केवल वेद शब्द के द्वारा हम अपने अभीष्ट वेदों तक नहीं पहुँचा सकते धौर न श्रुति , आम्नाय आादि विवादास्पद शब्द से भी हमारा अभिप्राय सिद्ध हो सकता है । अतएव हम इस नाम के जाल से हटकर अब यह जानना चाहते हैं कि वह कौन सी पुस्तक या वाक्यसमूह है , जो आदिसृष्टि से आज तक ईश्वरप्रदत्त अपौरुषेय ज्ञान के नाम से प्रसिद्ध है । इस विचार के उपस्थित होते ही समस्त वैदिक साहित्य एक स्वर से कहता है कि –
अरे अस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद् ।
बहग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽयर्वाङ्गिरसः॥ ( बृहदारण्यक उपनिषद् )
वेदों की आभ्यन्तरीय परीक्षा
त्रयो वेदा अजायन्त ऋग्वेद एवाग्रजायत ।
यजुर्वेदो बायोः सामवेदः आदिस्यात् ।। ( ऐतरेय ब्राह्मण )
त्रयो वेदा अजायन्त अग्नेॠग्वेदः ।
वायोयंजर्वेदः सूर्यात् सामवेदः । ( शतपथ ब्राह्मण )
अग्नेॠचो वायोर्यजूषि सामान्यादित्यात् ।। ( छान्दोग्य उपनिषद् )
अग्निवापुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुवोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥ ( मनुस्मृति )
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥ ( ऋग्वेद )
यस्मिन्नृचः सामयजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।। ( यजुर्वेद )
यस्माहचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन् ।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम् ॥ ( अथर्ववेद )
इन समस्त प्रमारणों से सिद्ध होता है कि , अपौरुषेयता औौर ईश्वरदत्तता ऋग्यजुस्साम और अथर्व को वृहदारण्यक २।४।१० में लिखा है कि इतिहास , पुराण , उपनिषद् , श्लोक , सूत्र , व्याख्या और अनुव्याख्या भी अपौरुषेय ही हैं । परन्तु हम विगत पृष्ठों में उपनिषदों को मिश्रित सिद्ध करते हुए इस वाक्य के विषय में लिख आये हैं कि इसमें वर्णित सूत्रग्रन्थ बहुत ही आधुनिक हैं और वेदों में सूत्रों का पता भी नहीं है , इसलिए यह वाक्य प्रक्षिप्त है । इतना ही क्यों ? प्रक्षिप्त वचन तो लोगों ने यहाँ तक डाले हैं कि पुराणों को वेद के पहिले का बतला दिया है । मत्स्यपुराण ५३।३ में लिखा है कि-
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् ।
अनन्तरं च वक्तभ्यो वेदास्य विनिर्गतः ( मत्स्यपुराण )।
क्रमशः