‘ईश्वर के सत्यस्वरूप के ज्ञान तथा वेद प्रचार से युक्त जीवन ही सर्वोत्तम एवं श्रेयस्कर है’

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ओ३म्

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हम वर्तमान में मनुष्य हैं। हम इससे पहले क्या थे और परजन्म में क्या होंगे, हममें से किसी को पता नहीं। यह सुनिश्चित है कि इस जन्म से पूर्व भी हमारा अस्तित्व था और मृत्यु के बाद भी हमारी आत्मा का अस्तित्व रहेगा। हमारी विशेषता है कि हमारे पास अन्य पशु-पक्षियों से भिन्न प्रकार के दो हाथ, दो पैर और सत्यासत्य का विवेचन करने वाली बुद्धि विद्यमान है। मनुष्य को मनुष्य शरीर संसार में सर्वव्यापक रूप से विद्यमान सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान परमेश्वर से ही प्राप्त होता है। ईश्वर के अतिरिक्त संसार में चेतन जीवात्मा और जड़ प्रकृति का अनादिकाल से अस्तित्व है जो कभी नाश अथवा अभाव को प्राप्त नहीं होता। ईश्वर अनादि, नित्य, अजन्मा, अमर तथा अनन्त स्वरूप वाली सत्ता वा पदार्थ है। महाभारत युद्ध के बाद देश व विश्व में ईश्वर के सत्यस्वरूप को लेकर अनेकानेक भ्रान्तियों सहित अनेक मिथ्या मत व मान्यतायें प्रचलित हो गयीं थी। इस काल में संसार के लोग ईश्वर के सनातन सत्यस्वरूप से परिचित वा अभिज्ञ नहीं थे। इस कारण मनुष्य जाति को ईश्वर द्वारा मनुष्य को जन्म देने के उद्देश्य व उसके कर्तव्यों का सत्य व यथार्थ ज्ञान भी नहीं था। इस अज्ञान व इससे जुड़ी भ्रान्तियों का समाधान ऋषि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ एवं ज्ञान पिपासा की पूर्ति कर प्राप्त किया था। ऋषि दयानन्द ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने सहित मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए ही अपने मातृ-पितृ गृह का त्याग कर ईश्वर के सत्यस्वरूप को जाननेवाले ज्ञानियों की खोज में देश-देशान्तर में घूमे थे।

अनेक प्रयत्न करने पर भी ऋषि दयानन्द को देश में ऐसा कोई गुरु प्राप्त नहीं हुआ था जो ईश्वर के सत्यस्वरूप विषयक उनकी जिज्ञासाओं को दूर करता। ऋषि दयानन्द ने भी बिना निराश हुए सत्यज्ञान की खोज के अपने प्रयत्न छोड़े नही थे। वह एक स्थान के बाद दूसरे स्थान का चयन कर वहां जाते और वहां धार्मिक गुरुओं व विद्वानों से मिलते थे और उनका सत्संग व संगति कर उनसे उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त करते थे। ऐसा करते हुए वह एक उच्च कोटि के योगी बने जिन्हें समाधि सिद्ध हुई थी। समाधि सिद्ध योगी को समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार हुआ करता है। सौभाग्य से स्वामी दयानन्द को संन्यास देने वाले आचार्य व संन्यासी स्वामी पूर्णानन्द जी से अपने एक शिष्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा का पता ज्ञात हुआ था। वह सन् 1860 में विद्याध्ययन हेतु उनकी शरण में पहुंचे थे और उनका शिष्यत्व प्राप्त किया था। अद्वितीय गुरु विरजानन्द सरस्वती के चरणों में तीन वर्ष तक रहकर उन्होंने उनसे वेद-वेदांगों व व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया था। इससे उन्हें ज्ञान के आदि स्रोत ईश्वर प्रदत्त ज्ञान चार वेदों की जानकारी सहित वेदार्थ वा वेदों के सत्यार्थ की कुंजी अष्टाध्यायी-महाभाष्य एवं निरुक्त पद्धति का ज्ञान हुआ था। गुरु जी के पास रहकर उनको इस विद्या का प्रायः सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी योग विद्या, योगाभ्यास में प्रवीणता एवं समाधि अवस्था की प्राप्ति भी वेदों के सत्य वेदार्थ जानने में उनकी सहयोगी बनीं थी। ऐसा करके वह वेदों के यथार्थस्वरूप एवं वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थों को जानने में समर्थ हुए थे। अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुप्रथाओं के निवारण सहित सामाजिक असमानताओं को दूर करने को बनाया था। उनका मुख्य उद्देश्य मनुष्य समाज की अविद्या को हटाकर सबको विद्या के ज्ञानसमुद्र में स्नान कराना था। इससे जहां ऋषि दयानन्द स्वयं लाभान्वित हुए थे वहीं उन्होंने सारे संसार को भी लुप्त व अनुपलब्ध ईश्वर, आत्मा और सृष्टि उत्पत्ति के ज्ञान से आलोकित व लाभान्वित किया था।

ऋषि दयानन्द ने अज्ञान व अन्धविश्वास आदि को दूर करने के लिए वेदों के सत्यस्वरूप व सत्य वैदिक मान्यताओं का देश भर में प्रचार किया। उनकी सभी मान्यतायें एवं सिद्धान्त तर्क एवं युक्तियों पर आधारित होने सहित अकाट्य तथ्यों पर आश्रित थे। उन्होंने वेद विरुद्ध असत्य मान्यताओं व अज्ञान का खण्डन तथा वेदानुकूल विचारों व मान्यताओं का मण्डन किया था। उन्होंने बताया कि संसार में तीन पदार्थ अनादि व नित्य हैं। ये तीन पदार्थ हैं ईश्वर, जीव एवं प्रकृति। उन्होंने इन तीनों पदार्थों की सत्ताओं का सत्यस्वरूप अपने ग्रन्थ मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश में विवेचनापूर्वक प्रस्तुत किया है जिससे कोई भी पाठक इन्हें समझ व जान सकता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर को आर्यसमाज के दूसरे नियम, स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश तथा आर्योद्देश्यरत्नमाला में परिभाषित किया है। उनके सभी ग्रन्थों में ईश्वर के सत्यस्वरूप की विस्तारपूर्वक चर्चा हुई है। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेदभाष्य आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर के प्रायः सभी व अधिकांश सत्यस्वरूप से परिचित हुआ जा सकता है। हम यहां ईश्वर के सत्यस्वरूप पर संक्षेप में प्रकाश डाल रहे हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वह लिखते हैं ‘ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में वह कहते हैं कि ‘ईश्वर’ कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।’ लघुग्रन्थ आर्योद्देश्यरत्नमाला में ऋषि दयानन्द लिखते हैं ‘जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान्, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्यगुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं।’ ऋषि दयानन्द द्वारा उपर्युक्त पंक्तियों में ईश्वर का यथार्थ व सत्यस्वरूप प्रस्तुत किया गया है। वेदाध्ययन सहित उपनषिद, दर्शन आदि ग्रन्थों से भी ईश्वर का यही स्वरूप प्राप्त होता है। ईश्वर के गुणों व स्वरूप का चिन्तन मनन करने से भी यही स्वरूप सत्य सिद्ध होता है। अतः संसार के सभी मनुष्यों को अपने हित व लाभ के लिए भी ईश्वर के इसी स्वरूप को मानना चाहिये। जिस मनुष्य को ईश्वर के इस स्वरूप में कहीं भ्रम व शंका हो, उसे वैदिक विद्वानों से दूर कर लेना चाहिये।

ईश्वर का सत्यस्वरूप जान लेने के बाद मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसे भी हम वैदिक साहित्य और मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से जान सकते हैं। मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना, वेदों का अध्ययन करना और सत्य वेदार्थ को प्राप्त होना है। सत्य वेदार्थ को प्राप्त होकर मनुष्य को अपना कर्तव्य बोध हो जाता है। इस आधार पर मनुष्य का कर्तव्य ईश्वर की प्रतिदिन स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना, दैनिक अग्निहोत्र करने सहित पंच महायज्ञों को करना है। मनुष्य ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ आदि जिस आश्रम में भी हो, उसे उस आश्रम के कर्तव्यों को करते हुए अपनी अविद्या को दूर करने के साथ अपने ज्ञान को बढ़ाते जाना तथा परोपकार आदि से युक्त कर्मों को करना है। मनुष्य के सांसारिक जीवन में भी पवित्रता होनी चाहिये। वह सभी प्रकार का ज्ञान व विज्ञान पढ़े तथा सभी प्रकार के कामों को शुद्ध हृदय व पवित्र भावनाओं से युक्त होकर करे। देश और समाज के हित सहित परहित का ध्यान रखे। यम व नियमों का पालन करे। इन कार्यों को करने के साथ मनुष्य का कर्तव्य होता है कि वह अपने ज्ञान का सदुपयोग कर अपने सभी बन्धुओं की भी अविद्या वा अज्ञान को दूर करे। इसके लिए उसे संसार में सर्वोत्तम अमृत के समान वेदज्ञान के अनुसार देश व समाज लोगों को शिक्षित करना होता है। उन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण तथा महाभारत आदि ग्रन्थों सहित उन शास्त्रों की शिक्षाओं का ज्ञान कराना होता है। ऐसा करने ये अल्पज्ञानी लोगों को लाभ होता है और ऐसे कार्यों से वेदज्ञान प्रचारक के पुण्य कर्म जो वर्तमान व भविष्य सहित परजन्म में सुख व आत्मा की उन्नति के लिए लाभकारी होते हैं, उन कर्मों वा सुखों का संचय होता है। वैदिक सिद्धान्त है कि वैदिक आचरण से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष का अर्थ आत्मा को होने वाले सभी प्रकार के दुःखों की मुक्ति होती है। यह केवल वेदाचरण करते हुए परोपकारमय जीवन व्यतीत करने से ही होती है। यदि जीवन में एक भी अशुद्ध आचरण होगा तो मनुष्य को उस अशुभ वा पाप कर्म को भोगना ही होगा जिससे उसकी मोक्ष प्राप्ति में बाधा आती है। अतः किसी भी मनुष्य को जीवन में कोई अवैदिक एवं अशुभ कर्म नहीं करना चाहिये और वेदाध्ययन करते हुए सभी वैदिक शुभ कर्मों को अधिकाधिक करना चाहिये। ऐसा करने में मनुष्य जीवन की सफलता होती है।

हम देखते हैं कि प्राचीन काल में हमारे ऋषि, मुनि, योगी एवं विद्वान वेदाचरण, सत्याचरण व धर्माचरण किया करते थे। यह सब कार्य धर्म के पर्याय हैं। सामाजिक व्यवस्था में भी सभी आश्रम के लोग वैदिक धर्म का पूर्णतया पालन करते थे। राजा का कार्य भी प्रजा को वेदाध्ययन एवं वेदानुकूल आचरण में प्रवृत्त करना ही होता था। इसी से देश व समाज सहित मनुष्य की व्यक्तिगत उन्नति होती थी। उन्नीवसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्पन्न ऋषि दयानन्द का जीवन एक महान पुरुष का आदर्श जीवन था। उनके प्रमुख शिष्यों का जीवन भी उन्हीं के अनुरूप वैदिक धर्म का पूर्णतया पालन करते हुए लोकोपकार के कार्यों को करने में ही व्यतीत हुआ। ऐसा ही सबको करना व होना चाहिये। हमें आधुनिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने सहित संस्कृत व हिन्दी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य सहित उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों का भी हमें अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने ये ही हमारा जीवन सफल होगा और हमारा सनातन वैदिक धर्म एवं संस्कृति बच सकेगी। अतः सफल एवं आदर्श जीवन व्यतीत करते हुए हमें अपने जीवन में सभी उचित कार्यों को करते हुए वेदाध्ययन एवं वेद प्रचार के कार्यों को भी करना चाहिये। इतिहास में महान व्यक्तियों में ऋषि दयानन्द का जीवन आदर्श एवं अनुकरणीय है। हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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