बहुत ही गौरवशाली इतिहास रहा है मेवाड़ राज्य का
मेवाड़ राज्य का इतिहास
उगता भारत ब्यूरो
मेवाड़ का गुहिल वंश – मेवाड़ रियासत राजस्थान की सबसे प्राचीन रियासत है, इसे मेदपाट, प्राग्वाट, शिवि जनपद आदि उपनामों से जाना जाता है। मेवाड़ का गुहिल वंशी राजघराना एकलिंगजी (शिव) का उपासक था, इसी कारण मेवाड़ के शासक एकलिंगनाथजी को स्वयं के राजा/ईष्ट देव तथा स्वयं को एकलिंगनाथजी का दीवान मानते हैं। गुहिल वंश की कुल देवी बाण माता है। मेवाड़ रियासत के सामंत ‘उमराव’ कहलाते थे। मेवाड़ के महाराणा राजधानी छोड़ने से पहले एकलिंगजी से आज्ञा लेते थे, उसे ‘आसकाँ’ कहते थे। मेवाड़ के महाराणा ‘हिन्दूआ सूरज’ कहलाते हैं क्योंकि वो स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। गुहिल वंश के राजध्वज पर ‘उगता सूरज एवं धनुष बाण’ अंकित है तथा इसमें उदयपुर का राजवाक्य “जो दृढ़ राखै धर्म को, तिहीं राखै करतार है” अंकित है। ये शब्द उनके स्वतंत्रता, प्रियता एवं धर्म पर दृढ रहने के सकते देते है। मेवाड़ में 1877 में महाराणा के कोर्ट का नाम बदलकर ‘इजलास खास’ कर दिया गया था। मेवाड़ राज्य/रियासत के विभिन्न शासको का कालक्रम निम्न प्रकार है :-
गुहिलादित्य –
गुहिलादित्य के पिता का नाम शिलादित्य एवं माता का नाम पुष्पावती था।
गुहिलादित्य (गुहिल/गुहादित्य) ने लगभग 566 ईस्वी के आसपास मेवाड़ में गुहिल वंश की स्थापना की थी, इसलिए गुहिलादित्य को गुहिल वंश का संस्थापक माना जाता है।
गुहिलादित्य ने नागदा को अपनी राजधानी बनाया था।
बप्पा रावल (कालभोज/मालभोज) –
बप्पा रावल हारित ऋषि के शिष्य थे और उनकी गायें चराते थे।
हारित ऋषि मेवाड़ के शासकों के इष्टदेवता एकलिंगनाथजी के मुख्य पुजारी थे।
हारित ऋषि ने इन्हें ‘बप्पा रावल’ की उपाधि दी थी।
बप्पा रावल ने हारित ऋषि के आर्शीवाद से 734 ईस्वी में चित्तौड़गढ़ के राजा मानमोरी को हराकर मेवाड़ में गुहिल साम्राज्य की नींव रखी थी, इसलिए बप्पा रावल को मेवाड़ में ‘गुहिल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक’ कहा जाता है।
बप्पा रावल ने मेवाड़ में सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाये व अपने इष्ट देव एकलिंग जी का कैलाशपुरी गाँव में मन्दिर बनवाया। इस मंदिर से कुछ ही दूरी पर नागदा में इनका देहांत हुआ तथा यही पर बप्पा रावल की समाधि है।
अल्लट या आलूराव –
अल्लट ने सर्वप्रथम आहड़ को अपनी राजधानी बनाया।
अल्लट ने हूण राजकुमारी हरिया देवी से शादी की थी।
अल्लट ने मेवाड़ में सर्वप्रथम नौकरशाही का गठन किया, जो वर्तमान में भी चल रही है।
रणसिंह या कर्णसिंह –
रणसिंह 1158 ईस्वी में मेवाड़ का शासक बना था।
रणसिंह के शासन काल में गुहिल वंश दो भागों में बंट गया। प्रथम रावल शाखा – रणसिंह के पुत्र क्षेमसिंह ने रावल शाखा का निर्माण कर चित्तौड़ पर शासन किया। द्वितीय राणा शाखा – रणसिंह के पुत्र राहप ने सिसोदा गाँव बसाकर राणा शाखा की नींव रखी, सिसोदा गांव में रहने के कारण ये सिसोदिया कहलाए।
जैत्रसिंह (1213 ईस्वी – 1250 ईस्वी) –
जैत्रसिंह के काल को मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल कहते है।
भूतैला का युद्ध – जैत्रसिंह ने 1227 ई. में राजसमंद में भूताला के युद्ध में इल्तुतमिश को पराजित किया। इसकी जानकारी जयसिंह सूरि कृत ‘हम्मीर-मद-मर्दन’ से मिलती है। (डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने यह युद्ध 1221-1229 ई. के मध्य हुआ बताया है), इस युद्ध में इल्तुतमिश ने नागदा को काफी नुकसान पहुँचाया था।
जैत्रसिंह ने इल्तुतमिश के आक्रमण से परेशान होकर अपनी राजधानी नागदा से चित्तौड़ को बनाया।
जैत्रसिंह मेवाड़ का एकमात्र ऐसा शासक था, जिसने दिल्ली के छः सुल्तानों का शासन देखा था।
तेजसिंह (1250-1273 ईस्वी) –
इनकी उपाधि – उमापतिवारलब्ध तथा इनकी रानी का नाम जेतल दे था।
तेजसिंह के समय मेवाड़ का प्रथम चित्रित ग्रन्थ – ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी’ जिसके लेखक कमलचंद थे।
तेजसिंह ने चित्तोड़ में श्यामपार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।
समरसिंह (1273-1301 ईस्वी) –
समरसिंह के शासन काल में उसके पुत्र कुम्भकरण ने नेपाल में गुहिल वंश की स्थापना की तथा दूसरे पुत्र रतनसिंह ने चित्तौड़ पर शासन किया।
रावल रतनसिंह ( 1301-1303 ईस्वी) –
रावल रतनसिंह रावल शाखा का अंतिम शासक था।
रावल रतनसिंह के समकालीन दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्यवादी नीति के तहत चित्तौड पर 1303 में आक्रमण किया। इस युद्ध में 26 अगस्त, 1303 ई. को रतनसिंह, गोरा (पद्मिनी का चाचा) एवं बादल (पद्मिनी का भाई) लड़ते हुये मारे गये (केसरिया) तथा महारानी पद्मिनी व अन्य रानियों ने 1600 महिलाओं के साथ जौहर किया। यह चित्तौड़ का प्रथम साका था। मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ ग्रंथ’ के अनुसार यह युद्ध राघव चेतन के कहने पर रावल रतनसिंह की रूपवती महारानी पद्मिनी की चाह में किया गया। रानी पद्मिनी के तोते का नाम हिरामनी (मनुष्य की आवाज में बोलने वाला) था।
चित्तौड़गढ़ का प्रथम साका राजस्थान का सबसे बड़ा साका है।
यह साका राजस्थान का दूसरा साका था।
इस युद्ध का सजीव चित्रण प्रसिद्ध इतिहासकार एवं कवि अमीर खुसरो ने किया क्योंकि अमीर खुसरो इस युद्ध के समय खिलजी के साथ था।
अलाउद्दीन खिजली ने चित्तौड़ का नाम अपने पुत्र खिज्र खाँ के नाम पर ‘खिज्राबाद’ रखकर वहाँ का शासक अपने पुत्र खिज्र खाँ को बनाया और चित्तौड़गढ़ पुत्र खिज्र खां को सौपकर दिल्ली चले गए।
अलाउद्दीन खिलजी के बीमार हो जाने पर खिज्र खां दुर्ग की जिम्मेदारी मुछला मालदेव को सौपकर दिल्ली चला गया। मालदेव ने दुर्ग की जिम्मेदारी अपने पुत्र जयसिंह/जैसा को सौंप दी।
राणा हम्मीर देव (1326-1363 ईस्वी) –
राणा हम्मीर देव (अरिसिंह के पुत्र) ने मालदेव के पुत्र जैसा/जयसिंह को 1326 में हराकर मेवाड़ में सिसोदिया वंश की स्थापना की थी, इसलिए राणा हम्मीर देव को ‘मेवाड़ का उद्दारक, सिसोदिया साम्राज्य का संस्थापक’ कहते हैं।
कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में राणा हम्मीर देव को विषम घाटी पंचानन (विकत आक्रमणों में सिंह के सदृश अडिग रहने वाला) व कुम्भा द्वारा निर्मित गीत गोविन्द पुस्तक की टीका ‘रसिक प्रिया’ में इसे ‘वीर राजा’ की उपाधि दी गई है।
राणा हम्मीर देव के समय से चित्तौड़ पर राणा शाखा ने शासन करना शुरू किया।
हम्मीर सिसोदिया ने ‘सिंगोली के युद्ध’ (चित्तौड़गढ़) में दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को पराजित किया।
राणा हम्मीर देव ने चित्तौड़ में अन्नपूर्णा मंदिर का निर्माण करवाया था।
राणा लाखा/लक्षसिंह (1382-1421 ईस्वी) –
इसकी शादी वृद्धावस्था में मारवाड़ के रावचूड़ा की पुत्री व रणमल राठौड़ की बहिन हंसाबाई से सशर्त (उत्पन्न होने वाली संतान मेवाड़ का उत्तराधिकारी) हुई।
महाराणा लाखा का बड़ा पुत्र व हंसाबाई का सौतेला पुत्र राणा चूंडा था। राणा चूंडा ने मेवाड़ का राज्य हंसा बाई के होने वाले पुत्र को देने व जीवन भर कुँवारा रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की थी, इसलिए राणा चूड़ा को ‘मेवाड़ का भीष्म पितामह/राजस्थान का भीष्म’ कहा जाता है।
महाराणा लाखा एवं हंसाबाई के मोकल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
राणा लाखा के शासन काल में जावर (उदयपुर) में चांदी (सीसा + जस्ता) की खान निकली थी।
राणा लाखा के शासन काल में छीतर (पिच्छू) नामक बंजारे ने पिछोला झील (उदयपुर में) का निर्माण करवाया था।
राणा मोकल (1421-1433 ईस्वी) –
राणा मोकल की राजमाता हंसाबाई तथा इसका संरक्षक चूड़ा था।
1433 ई० में अहमद खाँ के साथ हो रहे जीलवाड़ा युद्ध के मैदान में महपा पंवार के कहने पर चाचा व मेरा (दोनों राणा क्षेत्रसिंह की खातिन प्रेमिका कर्मा के अवैध संताने थी) ने इनकी हत्या कर दी।
मोकल की रानी कमलावती ने युद्ध में अहमदशाह के सामना किया था तथा रानी सौभाग्यवती कुम्भा (मोकल का पुत्र) को लेकर चित्तोड़ चली गयी।
महाराणा मोकल ने समिद्धेश्वर मंदिर का जीर्णोद्वार करवाया तथा द्वारिकानाथ मंदिर का निर्माण करवाया था।
महाराणा कुम्भा (1433-1468 ईस्वी) –
महाराणा कुम्भा राणा मोकल व रानी सौभाग्य देवी का पुत्र था।
महाराणा कुम्भा का जन्म 1423 ई. में कुम्भलगढ़ दुर्ग के कटारगढ़ में हुआ।
महाराणा कुम्भा के उपनाम – महाराणा कुम्भा को हिन्दू सुरताण (मुस्लिम शासको को पराजित करने के कारण), अभिनव भरताचार्य (संगीत ज्ञान के लिए), हालगुरु (गिरी दुर्गो का निर्माता), राणौरासो (विद्वानों का आश्रय दाता), राजगुरु (विद्वान), राणेराय, दानगुरु, अश्वपति, नरपति, शैल गुरु आदि उपनामो से जाना जाता है।
महाराणा कुम्भा के संगीत गुरु – सारंग व्यास।
महाराणा कुम्भा के दरबार में तिलभट्ट, नाथा, मुनि सुन्दर सूरी आदि विद्वान थे।
मेवाड़ के राणा कुम्भा ने संगीत पर ग्रंथ लिखे, जैसे – रसिक प्रिया, संगीतमीमांसा , संगीतराज (5 भागों में विभक्त), सूड़ प्रबंध आदि।
प्रसिद्ध संगीतज्ञ रमा बाई कुम्भा की पुत्री थी, जिसे ‘वागीश्वरी’ के नाम से जाना जाता हैं।
कुम्भा ने अपने पिता की हत्या का बदला चाचा व मेरा को मारकर लिया।
सारंगपुर के युद्ध – महाराणा कुम्भा ने 1437 ई० में ‘सारंगपुर के युद्ध’ (मध्य प्रदेश) में मालवा/मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित कर मालवा पर विजय के उपलक्ष्य में 9 मंजिले कीर्ति स्तम्भ/विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया। इसकी ऊंचाई लगभग 120 मीटर है। विजय स्तम्भ की भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष/हिन्दू देवी-देवताओं का अजायबघर कहते है। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के रचयिता कवि अत्रि थे लेकिन इनके निधन हो जाने से उनके पुत्र कवि महेश ने इसे पूरा किया था।
महाराणा कुम्भा व राव जोधा के मध्य कुम्भा की दादी व राव जोधा की बुआ हंसाबाई ने 1453 ई. में पाली में ‘आवल-बावल’ की संधि करवाई जिसके तहत मेवाड़-मारवाड़ की सीमा का निर्धारण हुआ तथा राव जोधा ने अपनी पुत्री शृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ करवाया।
महाराणा कुम्भा के काल में राजस्थान में चित्रकला की शुरूआत हुई।
कुम्भा द्वारा निर्माण कार्य : कुम्भलगढ़ दुर्ग (पत्नि कुम्भलदेवी की याद में राजसमंद में), अचलगढ़ दुर्ग (आबू), बसंती एवं मचान (सिरोही), भोमट दुर्ग (भोराट के पठार पर), कुम्भ स्वामी मंदिर आदि।
कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थ – संगीतराज, संगीत मीमांसा, सूंड प्रबंध, कामराज रतिसार, हरवर्तिका, जयदेव के गीत गोविन्द पर टीका ‘रसिक प्रिया’, संगीतक्रम दीपिका, नवीन गीत गोविन्द, वाद्य प्रबंध, संगीत सुधा, संगीत रत्नाकर टीका आदि।
कुम्भा ने ‘एकलिंग महात्म्य’ के प्रथम भाग ‘राजवर्णन’ की रचना की थी।
वीर विनोद पुस्तक के लेखक श्यामलदास के अनुसार मेवाड़ के 84 दुर्गा में से 32 दुर्ग महाराणा कुम्भा ने बनवाए, इसलिए कुम्भा को ‘स्थापत्य कला का जनक’ कहते हैं।
कुम्भा की उनके पुत्र ऊदा ने 1468 ईस्वी में हत्या कर दी, इसलिए उदा (उदयकरण) को ‘पितृहन्ता शासक’ कहते है।
चम्पानेर की संधि – गुजरात के सुल्तान कुतुबशाह (कुतुब्दीन) तथा मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की संयुक्त सेना ने मेवाड़ के महाराणा कुम्भा को हराकर कुम्भा के मुल्क को आपस में बाँटने के लिए 1456 में चम्पानेर की संधि की। लेकिन 1457 ईस्वी में बदनौर के युद्ध में महाराणा कुम्भा इनकी सेना से पराजित नहीं हो सके, जिससे इनकी चम्पानेर की संधि सफल नहीं हो सकी। इस विजय के उपलक्ष्य में कुम्भा ने कुशाल माता के मंदिर (बदनौर) का निर्माण करवाया।
राणा सांगा (1509-1528 ईस्वी) –
महाराणा साँगा के पिता रायमल व माता शृंगार देवी थी।
महाराणा साँगा का जन्म 12 अप्रैल, 1482 को हुआ तथा सांगा 1509 ई. में मेवाड़ का शासक बना।
महाराणा सांगा को हिन्दूपत व सैनिकों का भग्नावशेष (शरीर पर लगभग 80 घाव) नामों से जाना जाता है।
महाराणा सांगा राजस्थान का अंतिम हिन्दू राजा था, जिसके सेनापतित्व में पूरे राजपूतों ने मुगलों को भारत से बाहर निकालने का प्रयास किया।
खतौली का युद्ध – राणा साँगा ने 1517 में खातोली (बूंदी) के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त किया।
बाड़ी का युद्ध – राणा सांगा ने 1518 में बाड़ी (धौलपुर) के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त किया।
गागरोन का युद्ध – राणा सांगा ने 1519 में गागरोन के युद्ध (झालावाड़) में मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय को पराजित किया।
बयाना का युद्ध – 16 फरवरी, 1527 ई. में हुये बयाना के युद्ध में साँगा के सैनिकों ने बाबर के सैनिकों (दुर्ग रक्षक बाबर का बहनोई मेहंदी ख्वाजा) को हराकर बयाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
खानवा का युद्ध – यह युद्ध राणा सांगा एवं बाबर के मध्य 17 मार्च, 1527 को लड़ा गया। खानवा के युद्ध में राणा साँगा बाबर से पराजित हो गया। खानवा के युद्ध (रुपवास-भरतपुर) में बाबर ने ‘जिहाद/धर्म युद्ध’ का नारा दिया। इस युद्ध में सांगा ने ‘पाती पेरवन’ प्रथा का प्रयोग किया जिसके तहत इसमें राजस्थान के 7 राजा, 9 राव तथा 104 सामंत शामिल हुए। बाबर ने इस युद्ध में ‘तुलुगमा युद्ध पद्धति’ का प्रयोग किया जिसमे उनकी सेना के पास तोपें एवं बंदूकें थी। युद्ध में सांगा के सिर पर एक तीर लगा जिससे सांगा घायल हो थे, उन्होंने अपना राजचिह्न एवं हाथी सादड़ी के झाला अज्जा को दे दिए एवं युद्ध का मैदान छोड़कर बसवा गांव (दौसा) पहुँच गए। बसवा (दौसा) में ‘सांगा का चबूतरा’ बना हुआ है।
साँगा को कालपी (मध्यप्रदेश) नामक स्थान पर साथियों ने जहर देकर 30 जनवरी, 1528 ई. को मार दिया।
महाराणा सांगा का दाह संस्कार माण्डलगढ़ में किया गया, जहाँ इसकी छतरी बनी हुई है।
महाराणा साँगा ने इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी व हसन खाँ मेवाती दो अफगानों को शरण दी थी।
मेवाड़ के महाराणा सांगा ने प्रतिज्ञा की थी, कि ”जब तक वह अपने शत्रु को पराजित नहीं कर लेगा, तब तक चित्तौड़ के फाटक में प्रवेश नहीं करेगा”|
विक्रमादित्य –
विक्रमादित्य छोटी उम्र में राजा बना जिस कारण राजकार्य का संचालन इनकी माता हाडारानी कर्मावती करती थी।
विक्रमादित्य के शासन काल में 1533 ई० में गुजरात के बहादुर शाह ने आक्रमण किया। लेकिन हाडा रानी कर्मावती ने संधि कर ली जिससे बहादुर शाह वापस चला गया।
विक्रमादित्य के शासन काल में 1534 ई० में गुजरात के बहादुर शाह ने फिर से आक्रमण किया। हाड़ारानी कर्मवती/कर्णवती ने बादशाह हुमायूँ से सहायता के लिए राखी भेजी थी, लेकिन हुमायूँ की समय पर मदद न मिलने के कारण विक्रमादित्य व उदयसिंह को ननिहाल बूँदी भेज दिया गया। हाड़ारानी कर्मावती ने दुर्ग की जिम्मेदारी देवलिया के बाघसिंह को सौंपी। देवलिया (प्रतापगढ़) के रावत बाघसिंह के नेतृत्व में सैनिकों ने युद्ध किया व लड़ते हुये मारे गये (केसरिया ) तथा हाडारानी कर्मावती ने 1200 महिलाओं के साथ जौहर किया। यह चित्तौड़गढ़ का दूसरा साका था।
पृथ्वीराज सिसोदिया की दासी पूतलदे के पुत्र बनवीर ने विक्रमादित्य की 1536 ईस्वी को हत्या कर दी लेकिन उदयसिंह को स्वमीभक्ता पन्नाधाय ने अपने पुत्र चन्दन का बलिदान देकर बचा लिया और उदयसिंह को लेकर कुम्भलगढ़ चली गयी। वहां के किलेदार आशा देवपुरा ने उन्हें अपने पास रखा।
राणा उदयसिंह (1537-1572 ईस्वी) –
महाराणा उदयसिंह के पिता का नाम महाराणा संग्राम सिंह व माता का नाम कर्मावती था।
राणा उदयसिंह का जन्म चित्तौड़गढ़ दुर्ग हुआ।
राणा उदयसिंह का 1537 ई० में कुम्भलगढ़ में प्रथम राज्याभिषेक हुआ। उदयसिंह ने 1540 ई० में बनवीर की हत्या कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया था तथा उदयसिंह का दूसरा राज्याभिषेक चित्तौड़गढ़ में 1540 में हुआ था।
उदयसिंह मेवाड़ का ऐसा प्रथम शासक था जिसने अफगान शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार की एवं चित्तौड़गढ़ की चाबियाँ शेरशाह सूरी के पास भेज दी व 1559 में धूणी नामक स्थान पर उदयपुर नगर बसाया तथा उदयसागर झील भी बनवायी।
उदयसिंह के शासन काल में 1567-68 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उदयसिंह सेनापतियों जयमल व फत्ता को किले का भार सौंपकर गोगुन्दा चला गया। 23 फरवरी, 1568 ई. को जयमल, फत्ता एवं जयमल के भतीज कल्लाजी (चार हाथ के लोक देवता) इस युद्ध में मारे गये( केसरिया ) व उनकी रानियों ने फूल कँवर (वीर फता की पत्नी) के नेतृत्व में जौहर किया, यह चित्तौड़ का तीसरा व अन्तिम साका था।
उदयसिंह का 28 फरवरी, 1572 को होली के दिन गोगुन्दा में देहांत हो गया। यही पर उसकी छतरी बनी हुई है।
अकबर ने उदयसिंह को अपने अधीन करने के लिए दो शिष्टमण्डल भेजे, जिनमे पहला शिष्टमंडल – राजा भारमल तथा दूसरा शिष्टमंडल – टोडरमल व भगवंत दास के नेतृत्व में भेजा ।
महाराणा प्रताप (1572-1597 ईस्वी) –
महाराणा प्रताप के उपनाम – मेवाड़ का रक्षक, मेवाड़ केसरी, हल्दीघाटीका शेर, पाथळ (साहित्यिक नाम), राणा कीका, गजकेसरी, नीला घोडा रा असवार आदि।
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई० में उदयसिंह व जयवंता बाई (पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री) के यहाँ कुम्भलगढ़ दुर्ग (राजसमन्द) में हुआ।
महाराणा प्रताप के बचपन का नाम कीका था।
महाराणा प्रताप का सर्वाधिक बचपन राजसमंद जिले में गुजरा।
महाराणा प्रताप का प्रथम बार राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 को गोगुन्दा में हुआ तथा इनके तलवार कृष्णदास ने बांधी।
महाराणा प्रताप को समझाने (समझौता) के लिए अकबर ने चार बार क्रमशः जलाल खाँ कोरची (1572 में पहली बार), मानसिंह कच्छवाहा (जून 1573 में दूसरी बार),भगवंतदास (सितम्बर 1573 में तीसरी बार) व टोडरमल (दिसंबर 1573 में अंतिम बार) के नेतृत्व में चार शिष्टमण्डल भेजे।
हल्दीघाटी का युद्ध – 18 जून (ए.एल. श्रीवास्तव एवं राजस्थान बोर्ड की पुस्तकों के अनुसार ) 21 जून (डॉ. गोपीनाथ शर्मा एवं हिन्दी साहित्य अकादमी की पुस्तकों के अनुसार) 1576 ई. में अकबर की तरफ से मानसिंह तथा महाराणा प्रताप (हरावल भाग का नेतृत्व हाकिम खां सूरी ने किया) के मध्य हल्दीघाटी का युद्ध हुआ। इसमें प्रताप की पराजय हुई, लेकिन वे प्रताप को बन्दी नहीं बना सके। हल्दीघाटी के युद्ध में मुगलों और महाराणा के सैनिकों के साथ-साथ दोनों पक्षों के लूणा, रामप्रसाद, गजराज, गजमुक्त हाथियों ने बहुत वीरता दिखाई थी। युद्ध में महाराणा प्रताप घायल होने के बाद राजचिह्न झाला बींदा/मन्ना को धारण करवाकर युद्ध भूमि से बाहर बलीचा चले गए। वहां पर प्रताप के घोड़े चेतक ने अंतिम साँस ली थी। यहां बलीचा में चेतक का चबूतरा/स्मारक बना हुआ है।
रक्त तलाई का सम्बन्ध हल्दीघाटी से है।
हल्दीघाटी के युद्ध को कर्नल जैम्स टॉड ने ‘राजस्थान/मेवाड़ की थर्मोपल्ली’ कहा।
हल्दीघाटी के युद्ध को अबुल फजल ने ‘खमनौर का युद्ध’ कहा।
हल्दीघाटी के युद्ध का आँखों देखा हाल लिखते हुए बदायूनी ने इसे ‘गोगुन्दा का युद्ध’ कहा।
हल्दीघाटी के युद्ध को डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने ‘अनिर्णायक युद्ध’ कहा।
दिवेर का युद्ध – महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की भूमि को मुक्त करने के लिए अभियान दिवेर से प्रारम्भ किया था। 1582 ई० में प्रताप व अकबर के मध्य दिवेर का युद्ध हुआ जिसे कर्नल जैम्स टॉड ने मैराथन का युद्ध कहा क्योंकि यहाँ से महाराणा प्रताप की विजय की शुरूआत हुई। दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगल गढ़ पर आक्रमण किया, जिसके परिणामस्वरूप अकबर द्वारा मेवाड़ की 36 मुगल चौकियों को बंद करना पड़ा था। महाराणा प्रताप ने माण्डलगढ़ व चित्तौड़गढ़ के अलावा पूरे मेवाड़ पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।
महाराणा प्रताप ने अंतिम समय में 1585 ई. में ‘चावण्ड’ को अपनी आपातकालीन राजधानी बनाई।
चावंड में 19 जनवरी, 1597 ई. को महाराणा प्रताप की 57 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।
महाराणा प्रताप का अंतिम संस्कार बाण्डौली (उदयपुर) में किया गया, जहाँ इनकी आठ खम्भों की छतरी बनी हुई है।
महाराणा प्रताप के समय अकबर ने शाहबाज खां को तीन बार मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजा था, लेकिन तीनो बार असफल रहा था।
अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ईस्वी) –
अमरसिंह प्रथम महाराणा प्रताप के पुत्र थे, जिनका राज्याभिषेक चावण्ड़ में हुआ
अमरसिंह प्रथम के पुत्र कर्णसिंह व सिसोदिया सरदारों के कहने पर अमरसिंह ने 5 फरवरी, 1615 ई० में मुगलों के साथ संधि की तथा निम्न शर्ते रखी – चित्तौड़गढ़ दुर्ग मेवाड़ के शासको को लेकिन दुर्ग की मरम्मत कभी नहीं करा सकेंगे, मुग़ल-मेवाड़ वैवाहिक सम्बन्ध स्वीकार नहीं, मेवाड़ महाराणा मुग़ल दरबार में उपस्थित नहीं होगा, शाही सेना में महाराणा 1000 सवार रखेगा, महाराणा का ज्येष्ठ कुंवर शाही दरबार में उपस्थित होगा आदि।
अमरसिंह प्रथम का देहांत 26 जनवरी, 1620 को हुआ तथा इनकी छतरी आहड़ (उदयपुर) में बनी हुई है।
अमरसिंह मेवाड़ का पहला महाराणा था, जिसने मुगलों के साथ संधि की तथा जहाँगीर ने एकमात्र मेवाड़ राज्य के शासक को मुगल दरबार में उपस्थित होने की छूट दी।
इस संधि के बारे में कथन कर्नल टॉड ने कहा कि – ‘बादशाह ने मेवाड़ के राणा को आपस के समझौते से अधीन किया था, न कि बल से।’
कर्णसिंह (1620-1628) –
पिछोला झील के किनारे जगमंदिर महल निर्माण कार्य कर्णसिंह ने प्रारम्भ किया था तथा इसको जगतसिंह प्रथम ने पूर्ण करवाया था।
कर्णसिंह ने 1623-24 ई. में शाहजहाँ (शहजादा खुर्रम) को पिछोला झील के जगमन्दिर महल में शरण दी।
कर्णसिंह ने कर्णविलास तथा दिलखुश महलों का निर्माण करवाया था।
जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ईस्वी) –
जगतसिंह प्रथम ने पिछोला झील के किनारे बने जगमंदिर महल का निर्माण कार्य पूर्ण करवाया।
जगतसिंह प्रथम ने उदयपुर में जगदीश मंदिर का निर्माण करवाया था। जगन्नाथ प्रशस्ति के लेखक कृष्णजी भट्ट थे।
जगतसिंह प्रथम ने धाय माँ नौजू बाई के नाम पर नौजूबाई का मंदिर बनवाया।
राजसिंह (1652-1680 ईस्वी) –
राजसिंह को ‘विजय कट कातु’ तथा ‘हाइड्रोलिक रूलर’ की उपाधियाँ प्राप्त गई।
विश्व का सबसे बड़ा शिलालेख सिसोदिया वंशीय शासक महाराणा राजसिंह द्वारा स्थापित करवाया गया। महाराणा
राजसिंह ने किशनगढ़ के राजा रूपसिंह की पुत्री चारुमती से जबरन विवाह किया तथा औरंगजेब द्वारा लगाये गये जजिया कर का विरोध कर हिन्दू देव मूर्तियों को संरक्षण प्रदान किया।
राजसिंह के निर्माण कार्य – सप्तध्वजा/श्रीनाथ जी का मन्दिर (नाथद्वारा-राजसमंद), अम्बा माता का मन्दिर (उदयपुर), द्वारिकाधीश का मंदिर (कांकरोली, राजसमंद), जानासागर तालाब, त्रिमुखी बावड़ी आदि।
दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के पुत्रों में हुए 1657 ई. के उत्तराधिकारी युद्ध में औरंगजेब ने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया।
‘चूड़ावत मांगे सैनानी, सर काट दे दियो क्षत्राणी’ पंक्ति हाड़ी रानी सहल कँवर के लिए प्रसिद्ध है क्योंकि हाडा रानी सहल कंवर ने अपना सिर काटकर राजसिंह की सलूम्बर जागीर के सामंत अपने पति रतनसिंह चुण्डावत के पास भेज दिया था।
राजसिंह ने अकाल राहत कार्य हेतु राजसमंद झील का निर्माण करवाया। इस राजसमंद झील की उत्तरी भाग की नौ चौकी पाल पर 25 शिलालेख वाली राजप्रशस्ति है, जिसके लेखक/रचनाकार रणछोड़भट्ट तेलंग थे। यह राजप्रशस्ति विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति है।
जयसिंह (1680-1698 ईस्वी) –
जयसिंह ने जयसमंद झील का निर्माण करवाया था, जिस पर सात टापू है, जिनमे सबसे बड़ा ‘बाबा का मगरा’ तथा सबसे छोटा ‘पाइरी’ है।
अमरसिंह द्वितीय (1698-1710 ईस्वी) –
अमरसिंह द्वितीय ने आमेर के सवाई जयसिंह के साथ अपनी पुत्री चन्द्र कँवर का विवाह सशर्त ( सशर्त चन्द्र कँवर से उत्पन्न पुत्र आमेर का उत्तराधिकारी होगा) किया।
देबारी समझौता – यह समझौता मेवाड़, मारवाड़ तथा आमेर के मध्य आमेर की गद्दी सवाई जयसिंह को दिलाने के लिए किया गया।
( साभार)
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