जीतन माझी की बगावत के निहितार्थ
सुरेश हिन्दुस्थानी
वर्तमान में देश के राजनीतिक वातावरण में कब क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। कल कुछ और था तो आज कुछ और, आगे के समय में क्या होगा कहा नहीं जा सकता। मात्र अपनी कुर्सी बचाने तक ही आज की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनता जा रहा है। इस प्रकार की राजनीति देश के लिए उत्थानकारी तो कतई नहीं कही जा सकती, इसके विपरीत हम स्वयं ही राजनीति की उस राह का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें दिशा और दर्शन का अभाव ही है। वर्तमान में बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम को कुर्सी केन्द्रि त राजनीति माना जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी। क्योंकि छोटी कुर्सी त्यागकर बड़ी कुर्सी की चाह रखने वाले नीतिश कुमार ने जब मुख्यमंत्री की कुर्सी का त्याग किया था, तब उन्होंने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि जिस जीतन राम माझी को वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा रहे हैं, वही एक दिन विद्रोह कर देगा और पार्टी के निर्देश के बाद भी वह कुर्सी छोडऩे को तैयार नहीं होगा।
हालांकि यह बात सही है कि हर व्यक्ति का अपना स्वाभिमान होता है, इसे जीतन राम माझी का स्वाभिमान कहा जाए या फिर बगावती तेवर। लेकिन जनता दल यूनाइटेड में जिस प्रकार से राजनीति का दृश्य देखने को मिल रहा है, उसे किसी भी दृष्टि से सहनीय नहीं कहा जा सकता। व्यक्तिगत लाभ के लिए कुर्सी का त्याग करना और फिर कुर्सी प्राप्त करने का कूटनीतिक प्रयास करना यह अक्षम्य राजनीति का हिस्सा ही कहा जाएगा। इसे दूसरे प्रकार से राजनीतिक बेइज्जती करना भी कहा जा सकता है। क्योंकि जिस प्रकार से माझी को दलित प्रचारित करके मुख्यमंत्री बनाया गया, उसे बिना किसी कारण के हटाने का प्रयास करना बेइज्जत करने वाला ही कदम कहा जाएगा।
अपनी ही पार्टी के नेताओं के लिए सिरदर्द बने बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम माझी अब सीधे सीधे बगावती तेवर में आ गए हैं। उन्होंने जहां शुक्रवार को बड़ी राजनीतिक कार्यवाही करते हुए नीतिश समर्थक दो मंत्रियों को बर्खास्त करने की सिफारिश करके पार्टी को खुली चुनौती दी है, वहीं जदयू द्वारा उन्हें हटाने कर हर संभव कोशिश की जा रही है। बड़बोले जीतन राम यूं तो अपने बयानों के लिए चर्चाओं में रहते हैं लेकिन इस बार उनके सुर ज्यादा ही तीखे हैं। जद यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव को सीधे तौर पर ललकारते हुए कहा कि विधायक दल की बैठक को बुलाने का अधिकार सिर्फ सदन के नेता को ही है और जाहिर है सदन के नेता वही हैं। पार्टी की विधायक दल की बैठक सात फरवरी को बुलाई गई है लेकिन पार्टी के इस फरमान के बाद मुख्यमंत्री ने बगावती अंदाज में बैठक को ही अवैधानिक ठहरा दिया। इसके साथ ही मुख्यमंत्री माझी ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए 20 फरवरी को बैठक बुलाने का फरमान जारी कर दिया। कुल मिला कर जदयू की अंदरूनी तकरार अब निर्णायक मोड़ पर नजर आती दिखाई दे रही है। अगर कुछ महीने पीछे जाएं तो जनता दल परिवार के टूट-टूट कर बिखरे जिन दलों में एकता की दुहाई देकर नरेन्द्र मोदी के विजय रथ को थामने की रणनीति बनाई थी उन दलों की आंतरिक कलह सामने आने लगी है। राजनीति में हाशिए पर आ चुकी शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और मुलायम (जिनका अस्तित्व उत्तरप्रदेश तक ही है।) की एकता को जीतन राम माझी ने पलीता लगाकर जदयू में बिखराव के संकेत दे दिए हैं।
बिहार में जिस प्रकार की उठापटक चल रही है, उससे जदयू में फूट के आसार तय हैं और ऐसे में जनता दल के बिखरे हुए कुनबे में एकता के प्रयास कितने कारगर होंगे यह बिहार के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम से स्पष्ट हो गया है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र के बाद जम्मू-कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी ने जीत के जो सोपान तय किए हैं, उसका संदेश यही है कि जनता स्थिर और देश को विकास के रास्ते पर ले जाने वाली सरकार चाहती है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा को जो जनादेश मिला है वह यही है कि जनता कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को पूरी तरह नकार चुकी है। क्षेत्रीय दलों की समाप्ति के खतरे को भांपकर ही इन्होंने एक होने की कवायद की है, जो प्रारंभ से ही बिखरने की ओर जाता हुआ दिखाई दे रहा है। लालू, नीतीश और शरद यादव की राजनीति बिहार से शुरु होती है और इसी राज्य में ही समाप्त होती है। भाजपा के बढ़ते कदमों ने इन नेताओं के लिए ये अवसर भी खत्म कर दिया है। उत्तरप्रदेश में समाजवादी वंशवाद के परिणाम सभी के सामने हैं। समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा माने जाने वाले मुलायम सिंह यादव के भाई, पुत्र, पुत्रवधू और भतीजे तक वर्तमान में सांसद बने हुए हैं। उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी की ओर से इसके परिवार के अलावा दूसरा एक भी सांसद नहीं हैं।
इसी प्रकार उत्तरप्रदेश तक ही सिमटी बहुजन समाज पार्टी के कुशासन को भी उत्तरप्रदेश की जनता भुगत चुकी है। बसपा प्रमुख मायावती की बिग बॉस जैसी स्टाइल को जनता ने पूरी तरह से नकार दिया है। कभी उत्तरप्रदेश में सत्ता का संचालन करने वाली बसपा का आज लोकसभा में एक भी सदस्य नहीं है। इधर दिल्ली में मतदान से पहले चुनावी तस्वीर साफ हो चली है और दिल्ली की सत्ता के लिए भाजपा के बढ़ रहे कदमों को कोई नहीं रोक रहा है। बिहार में जीतन राम ने बगावत का बिगुल फूंक दिया है और विधायक दल की बैठक जदयू की ‘राजनीतिÓ की रही सही कसर भी पूरी कर देगी। जनता कांग्रेस मुक्त भारत के भाजपा के नारे के साथ दिखाई दे रही है और कांग्रेस जैसी ‘गतिÓ राजद और जदयू की भी होना तय है। समाजवाद के नारे की आड़ में जातिवाद और वंशवाद को पालने और पोसने वाले दलों की हकीकत को जनता हालांकि काफी पहले ही समझ चुकी थी लेकिन मजबूत विकल्प के अभाव में इन दलों को ढोना मतदाताओं की मजबूरी थी। अब ऐसा नहीं होगा। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली भाजपा की सरकार है। जन अपेक्षाओं को पूरा करना और विकास को नए आयाम देना जिसका एजेण्डा है। केन्द्र सरकार के कार्यों को देखकर यह तो कहा ही जा सकता है कि भाजपा के कदम आगे ही बढ़ेंगे। इस सत्य को भले ही राजनीतिक नजरिए से गलत साबित करने की कोशिश की जाए, लेकिन सत्य यही है कि बाकी के सभी दलों में एक अनसुलझी घबराहट जैसी दिखाई दे रही है।