नीतीश अड़े और मांझी भी डटे

सुरेश हिन्दुस्थानी

बिहार में चल रहे राजनीतिक उठापटक के खेल में यूं तो दिग्गज राजनेता माने जाने वालों के लिए एक चुनौती बनकर सामने आए मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने यह कहकर कि मैं बहुमत साबित करूंगा, नीतीश कुमार के सामने बहुत बड़ा पेंच स्थापित कर दिया है। ऐसे में तमाम प्रयास करने के बाद भी अगर नीतीश मुख्यमंत्री बनने में असफल सिद्ध होते हैं तो यही कहा जाएगा कि वर्तमान राजनीतिक क्षितिज पर नए नए छाए जीतन राम मांझी ने धुरंधरों के सपनों पर बहुत बड़ा सवाल पैदा कर दिया है। वर्तमान में जीतनराम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री हैं, इसलिए संवैधानिक दृष्टि से यही कहा जाएगा कि वे ही विधायक दल के नेता हैं इसलिए मांझी का यह कहना कि नीतीश कुमार का चुनाव असंवैधानिक है, सही कहा जा सकता है। संवैधानिक अधिकारों के अंतर्गत विधायक दल का नेता ही विधायक दल की बैठक बुला सकता है। जब विधायक दल का नेता बार बार कह रहा है कि शरद यादव द्वारा बुलाई गई बैठक गलत है, तो पहली बार में ही वह बैठक अवैध ही मानी जाएगी। अगर बैठक के बारे में मांझी कुछ भी नहीं बोलते तो शायद बैठक की कार्रवाई को उचित माना जा सकता था, लेकिन खुद मांझी ही उस पर आपत्ति लगा चुके हैं, तब बैठक की प्रासंगिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक ही है।

एक तरफ मांझी द्वारा बहुमत साबित करने की बात कहना और दूसरी तरफ नीतीश द्वारा सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करने से बिहार की राजनीति में पेंच निर्मित होता जा रहा है। इस पेंच के चलते बिहार में क्या परिणाम सामने आएगा, फिलहाल समझ में नहीं आ रहा है। दरअसल चूंकि अभी मुख्यमंत्री पदासीन हैं, इसलिए नीतीश का दावा करना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि सरकार बनाने का दावा तभी किया जा सकता है जब प्रदेश में सरकार नहीं हो, या फिर मुख्यमंत्री बहुमत साबित कर पाने में असफल साबित हुए हैं। अभी बिहार में दोनों ही स्थितियां पैदा नहीं हुईं हैं। जब मांझी ने बहुमत साबित करने का समय मांगा है तब राज्यपाल को यह समय देना ही होगा। जिस प्रकार से नीतीश कुमार ने राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी को सरकार बनाने का दावा पत्र प्रस्तुत किया है, उसमें उन्होंने 130 विधायकों के समर्थन का दावा किया है। इसमें राजद और कांगे्रस के विधायकों की संख्या भी शामिल है। ऐसी स्थिति में यह तो साफ दिखाई दे रहा है कि जनतादल यूनाइटेड में फूट पड़ गई है।संख्या बल में भले ही कम हों, लेकिन मांझी के समर्थन में भी पार्टी के विधायक हैं, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनतादल यूनाइटेड के कुछ और विधायक समय की प्रतीक्षा में हों, जिसमें दम उसके हम वाली तर्ज पर वह किसी भी पाले में आने को तैयार हो सकते हैं।

बिहार की राजनीति से एक प्रकार से बेदखल हो चुके लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक मजबूरियां हैं, उन्हें अपना भविष्य खतरे में दिखाई दे रहा है। ऐसे में उनका नीतीश कुमार का समर्थन करना एक बड़ी भारी मजबूरी भी है और व्यक्तिगत रूप से राजनीतिक भूल भी। चूंकि न्यायालय की ओर से उन पर चुनाव न लडऩे पर रोक है, इसलिए वह इस बहाने से अपने परिवार को सत्ता का आनन्द दिलाना चाहते हैं। हालांकि नीतीश कुमार उनके गहरे राजनीतिक दोस्त हैं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। एक समय जानी दुश्मन की भूमिका में रहे नीतीश और लालू का समीप आना किसी गहरी राजनीति की ओर ही संकेत करते दिखाई देते हैं। लालू की खासियत ही है कि वे हमेशा ही इस प्रकार की राजनीति करते हैं कि किसी भी प्रकार से हो सत्ता के सारे सुख उनके परिवार को ही मिलें। इसी के चलते उनके दल में फूट पडऩे के आसार कई बार दिखाई दिए हैं, और इस बार भी ऐसी ही स्थितियां बनने के संकेत नजर आ रहे हैं।

बिहार का हर राजनेता अपनी राजनीतिक पारी को आगे जारी रखना चाहता है, वर्तमान विधायक संदेह के घेरे में हैं, उन्हें लालू और नीतीश के साथ ही कांगे्रस में अपना भविष्य सुखमय दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए उनके मन में एक अकल्पित भय का वातावरण बना हुआ है। ऐसे में कई विधायक दोनों दलों से टूटकर मांझी का समर्थन करने के लिए तैयार हो जाएं, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि मांझी की ओर से इस बात का ताजा दावा किया गया है कि जदयू और राजद के 56 विधायकों का उनको समर्थन प्राप्त है। इस बात को लेकर लालू और नीतीश के माथे पर पसीना जरूर आ रहा होगा, क्योंकि जिस राजनीतिक विजय की वह कल्पना कर रहे हैं, कहीं वह हार में परिवर्तित न हो जाए।

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