किवाड़” !* *हमारी प्राचीन संस्कृति व संस्कार की पहचान*
*क्या आपको पता है ?*
*कि “किवाड़” की जो जोड़ी होती है !*
*उसका एक पल्ला “पुरुष” और,*
*दूसरा पल्ला “स्त्री” होती है।*
*ये घर की चौखट से जुड़े-जड़े रहते हैं।*
*हर आगत के स्वागत में खड़े रहते हैं।।*
*खुद को ये घर का सदस्य मानते हैं।*
*भीतर बाहर के हर रहस्य जानते हैं।।*
*एक रात उनके बीच था संवाद।*
*चोरों को लाख-लाख धन्यवाद।।*
*वर्ना घर के लोग हमारी ,*
*एक भी चलने नहीं देते।*
*हम रात को आपस में मिल तो जाते हैं,*
*हमें ये मिलने भी नहीं देते।।*
*घर की चौखट के साथ हम जुड़े हैं,*
*अगर जुड़े-जड़े नहीं होते।*
*तो किसी दिन तेज आंधी-तूफान आता,*
*तो तुम कहीं पड़ी होतीं,*
*हम कहीं और पड़े होते।।*
*चौखट से जो भी एकबार उखड़ा है।*
*वो वापस कभी भी नहीं जुड़ा है।।*
*इस घर में यह जो झरोखे,*
*और खिड़कियाँ हैं।*
*यह सब हमारे लड़के,*
*और लड़कियाँ हैं।।*
*तब ही तो,*
*इन्हें बिल्कुल खुला छोड़ देते हैं।*
*पूरे घर में जीवन रचा-बसा रहे,*
*इसलिये ये आती-जाती हवा को,*
*खेल ही खेल में ,*
*घर की तरफ मोड़ देते हैं।।*
*हम घर की सच्चाई छिपाते हैं।*
*घर की शोभा को बढ़ाते हैं।।*
*रहे भले कुछ भी खास नहीं ,*
*पर उससे ज्यादा बतलाते हैं।*
*इसीलिये घर में जब भी,*
*कोई शुभ काम होता है।*
*सब से पहले हमीं को,*
*रँगवाते पुतवाते हैं।।*
*पहले नहीं थी,*
*डोर बेल बजाने की प्रवृति।*
*हमने जीवित रखा था जीवन मूल्य,*
*संस्कार और अपनी संस्कृति।।*
*बड़े बाबू जी जब भी आते थे,*
*कुछ अलग सी साँकल बजाते थे।*
*आ गये हैं बाबूजी,*
*सब के सब घर के जान जाते थे ।।*
*बहुयें अपने हाथ का,*
*हर काम छोड़ देती थी।*
*उनके आने की आहट पा,*
*आदर में घूँघट ओढ़ लेती थी।।*
*अब तो कॉलोनी के किसी भी घर में,*
*दो पल्ले के “किवाड़” रहे ही नहीं !*
*घर नहीं अब फ्लैट हैं ,*
*गेट हैं इक पल्ले के।।*
*खुलते हैं सिर्फ एक झटके से।*
*पूरा घर दिखता बेखटके से।।*
*दो पल्ले के “किवाड़” में,*
*एक पल्ले की आड़ में ,*
*घर की बेटी या नव वधु,*
*किसी भी आगन्तुक को ,*
*जो वो पूछता बता देती थीं।*
*अपना चेहरा व शरीर छिपा लेती थीं।।*
*अब तो धड़ल्ले से खुलता है ,*
*एक पल्ले का “किवाड़”।*
*न कोई पर्दा न कोई आड़।।*
*गंदी नजर ,बुरी नीयत, बुरे संस्कार,*
*सब एक साथ भीतर आते हैं ।*
*फिर कभी बाहर नहीं जाते हैं।।*
*कितना बड़ा आ गया है बदलाव?*
*अच्छे भाव का अभाव।*
*स्पष्ट दिखता है कुप्रभाव।।*
*सब हुआ चुपचाप,*
*बिन किसी हल्ले गुल्ले के।*
*बदल दिये “किवाड़”,*
*हर घर के, मुहल्ले के।।*
*अब घरों में दो पल्ले के ,*
*”किवाड़” कोई नहीं लगवाता।*
*एक पल्ली ही अब,*
*हर घर की शोभा है बढ़ाता।।*
*अपनों में नहीं रहा वो अपनापन।*
*एकांकी सोच हर एक की है ,*
*एकांकी मन है व स्वार्थी जन।।*
*अपने आप में हर कोई ,*
*रहना चाहता है मस्त,*
*बिल्कुल ही इकल्ला।*
*इसलिये ही हर घर के “किवाड़” में,*
*दिखता है सिर्फ़ एक ही पल्ला!!**”
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*किवाड़” ! हमारी प्राचीन संस्कृति व संस्कार की पहचान
सुप्रभात
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