*भारत में ‘मूलनिवासी’ संकल्पना – वामपंथियों की गहरी साजिश जिसे समझना आवश्यक है।*
“If there is to be revolution , there must be a revolutionary party”
ये माओ के विचार थे। सम्पूर्ण क्रान्ति यह कम्युनिस्ट विचार धारा का एक प्रमुख लक्ष्य है। अगर क्रान्ति का लक्ष्य प्राप्त करना है तो उनके लिए समस्या होना जरूरी है। समस्या उपलब्ध है तो अच्छा ही है नहीं तो समस्या निर्माण करो यह वामपंथियों की कार्य पद्धति रही है। उनके सद्भाग्य से भारत जैसे विशाल देश में समस्याओं की अपार उपलब्धता उनको प्राप्त हुई, जिसने वामपंथ के लिए क्रांति के नए रास्ते पैदा किए।
इनमें से एक रास्ता 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नाम के गाँव से होकर गुजरा। भारत में नक्सलवाद-माओवाद के जनक चारु मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल थे। बंगाल में भू-आंदोलन के बाद नक्सलवादी आंदोलन लगभग समाप्त हो गया। मगर उसके विश्लेषण से जो बात निकली वो साफ थी कि संथाल जनजातियों की तरह, भारत के कई राज्यों में अन्य अन्य जनजातीय समाज रहते हैं, जिनकी समस्याओं के रास्ते नई क्रांति फिर पैदा करने की तैयारी की गई।
इस माओवादी वामपंथी आंदोलन का आधार मूलनिवासी अवधारणा ही था। जो जनजातियों को एक अलग मूलनिवासी पहचान देकर भारत के संविधान के खिलाफ एक हथियार बंद क्रान्ति के रास्ते उनकी समस्या का समाधान दिलवाने के नाम पर अलगाववाद फैला रहे हैं।
भारत के कई जाने माने संस्थान इन विचारों को पोषित करने का कार्य कर रहे है। अलग पहचान खड़ी करने के उदेश्य से जनजाति क्षेत्र में महिषासुर दिवस, रावण दहन विरोध, दुर्गा पुजा विरोध के लिए नया नया साहित्य तैयार कर जनजातीय बहुल इलाकों में फैलाया जा रहा है।
हजारों सालों से साथ रह रहे एक ही रक्त एवं एक ही परम्परा, संस्कृति के अंग होने के बावजूद अन्य समाजों को जनजातियों के दुश्मन सिद्ध करने का पूरा नरेटिव तैयार किया जा रहा है।
‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे आंदोलन का मूल अलग-अलग जनजातीय समाजों के बीच वैमनस्य पैदा करना है ताकि क्रान्ति फैलाई जा सके। हाल ही में माओवादी गतिविधियों के समर्थन में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी. एन. साईबाबा जो की आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं, जो कई माओवादी घटनाओं के प्रणेता रहे हैं, उन पर नर्मदा अक्का नामक नक्सली कमांडर से माओवादी विचारों को फैलाने का आरोप सिद्ध हुआ। उनके साथ JNU के तीन अन्य छात्रों को भी आजीवन कारावास की सजा मिली है। मगर उन्हें रिहा करने संयुक्त राष्ट्र के स्पेशल रेपोर्टज़ ने भारत सरकार से अनुरोध किया है । साईबाबा के एक भाषण में उन्होने कहा “ “Naxalism is the only way and denounces the democratic government setup.” ऐसे कई अन्य वैचारिक अलगाववादी साहित्य, भारत के प्रजातांत्रिक के खिलाफ वैश्विक मंच पर कार्य कर रहे हैं।
*वैश्विक षड्यंत्र:-* भारत के विरोधी पाकिस्तान, चीन और औपनेविशिक ताकतों को भारत के जनजाति समाज के रूप में एक नया वर्ग मिल गया था, जिसका उपयोग वे भारत की तरक्की को रोकने और भारत के क्षेत्रीय आधार पर फिरसे टुकड़े करने के लिए करना चाहते थे। लेकिन शिक्षा की कमी, भौगोलिक विषमता और संचार माध्यमों के अभाव से वे जनजाती समाज को तोड़ने में अधिक सफल नहीं हुये।
हाल के वर्षों में सूचना क्रान्ति और सोशल मीडिया ने इन भौगोलिक और भाषाई अवरोधों को लगभग हटा दिया है। फिर से विघटनकारी शक्तियाँ इनके उपयोग से बलवती हो रहीं हैं। जिसके परिणाम भारत की अखंडता के लिए घातक हो सकते हैं।
11 वी सदी से ही Crusades और Commercialprosperity एक दूसरे की पूरक रही हैं। इसका आधार ‘न्यू क्रिश्चियन इकॉनोंमी थियरि’ है, जो पूरे विश्व के अश्वेत या अयुरोपिय लोगों को क्रिश्चियन धर्म के अंतर्गत लाना चाहते हैं। इसके लिए विकासशील देशों में विश्व की बड़ी यूरोपियन शक्तियाँ छद्म रूप से कार्यरत हैं, जो बहुत बड़ी संख्या में हुमानीटेरियन कार्य के बहाने पहले धार्मिक परिवर्तन और फिर धर्म आधारित राष्ट्र के सिद्धांत पर कार्य करते हैं।
अश्वेत और गैरयूरोपिय देशों में अलग देश की मांग करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNPO द्वारा सहायता प्रदान की जाती है। भारत से नागालैंड के अलगाववादी संगठन (नागालिम) UNPO का सदस्य है, जो भारत से अलग देश की मांग कर रहा है। जिसके पीछे नॉर्वे और कई यूरोपीय देश, धार्मिक आधार पर नागालैंड को अलग देश की हिमायत कर रहे हैं। पूर्वी तिमोरे इसका ज्वलंत उदाहरण है। जिसे इसी संस्था द्वारा शांति सेनाओं के माध्यम से नए राष्ट्र की शक्ल मिली।
प्रकृतिक संसाधनों पर उपनिवेशिक शक्तियों की नज़र है और उनके शक्ति संतुलन को बनाए रखने के लिए रक्षा संबंधी हथियारों का बाज़ार बहुत महत्वपूर्ण है। दुनिया के बहुत से देश जहाँ पर विकसित प्रजा तंत्र नहीं है, वहाँ की सत्ता किस के पास होगी ये इस बात पर निर्भर करता है की वहाँ के प्रकृतिक संसाधनों पर किस समूह का कब्जा है।
इस संघर्ष को जीतने के लिए आपस में संघर्षरत समूहों को आधुनिक हथियारों की आवश्यकता है, जिसे उपनिवेशिक ताक़तें पूरा करती हैं।
प्रजातन्त्र का विकास उपनिवेशिक बाजारवादी शक्तियों के लिए खतरा है। कई वर्षों के सत्ता संघर्ष के बाद भी विश्व के कई देशों में प्रजातन्त्र और शांति पूर्वक अपने संसाधनों को नियंत्रित करना चाहते है, जो इन वैश्विक बाजारवादी उपनिवेशिक ताकतों के लिए एक बाज़ार के खत्म होने जैसा है। उपनिवेशिक ताकतों के बजरवादी मंसूबों के लिए छोटे छोटे देशों और बड़े प्रजा तांत्रिक देशों में बढ़ती प्रजातंत्रिक शासन प्रणाली उनके ‘न्यू क्रिश्चियन इकॉनमी’ के लिए सकारात्मक नहीं है। क्यूंकी इस इकोनोमिक मॉडल के तहत नए देशों का आधार धार्मिक होना चाहिए ना की भाषाई या क्षेत्रीय। भारत और अफ्रीका के कई देश इस नई “तोड़ो और राज करो” की नीति के निशाने पर हैं।
*जनजाति समाज को तोड़ने का षड्यंत्र:-* 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद जनजातीय क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कंपनिया एक ओर हमारे संसाधनों पर गिद्ध की तरह आँख गड़ाए हैं और पिछले दरवाजे से उनके NGO संगठन उनके लिए बनने वाले विपरीत माहौल को राष्ट्र विरोधी दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। इस आर्थिक शोषण का लाभ उठा कर वे राष्ट्र विरोधी आंदोलनों में हमारे देश मे रहने वाले जनजातियों को पहली पंक्ति में खड़ा करके हमारी आर्थिक उन्नति पर सेंध लगाना चाहते हैं।
अलग देश की मांग का सबसे मजबूत आधार धार्मिक है और 1947 में अंग्रेजों द्वारा भारत के तीन टुकड़े इसी धार्मिक आधार पर किए। क्या इसीलिए बहुत बड़ी संख्या में भारत के 705 के लगभग जनजाति समुदायों को हिन्दू धर्म से अलग पहचान खड़ी की जा रही है ?
जनजातीय समाज के लिए कई विदेशी संस्थाएं अलग धर्म कोड के लिए या 2021 की जनगणना में हिन्दू धर्म से अलग धर्म की मांग के लिए संघर्षरत हैं ताकि विश्व पटल पर हिंदुओं की संख्या को कम किया जा सके और मिशन संस्थाओं द्वारा इन नए धर्म को ईसाई धर्म में मिलाया जा सके, जो धार्मिक अलगाववाद का कारण बन सके।
बाद में फिर से अलग अलग जनजातियों को बांटकर अलग धर्म के नाम पर फिर समाज के टुकड़े किए जाएँ ?
हमारे देश की विभिन्न राष्ट्र विरोधी ताकतें इसी दिशा मे काम करती हुई दिखाई दे रही है। हमारे देश के विभिन्न राज्यों मे चल रहे विभिन्न छोटे मोटे आंदोलन इस आंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा बनाते जा रहे है।
भारत के मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़ीसा राज्यों में जनजाति प्रतिशत किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई है। इसीलिए इन राज्यों में जन जातियों का धर्म परिवर्तन करके अहिन्दूकरण का कार्य आगे की राजनीतिक संतुलन को बिगाड़ने के उद्देश्य से किए जा रहे है।
पूर्वोत्तर के राज्यों में जनजाति जनसंख्या प्रतिशत अन्य समुदायों से अधिक है। मेघालय, नागालैंड, मिज़ोरम में जनजाती समुदाय अधिकांश ईसाई है। लेकिन फिर भी वे एक दूसरे को स्वीकार नहीं करते। मिजोराम राज्य के लोगो ने इसी राज्य के चकमा जनजाती समुदाय को यहाँ से पहले ही बाहर ढकेल दिया है।
इसी तरह नागा समुदाय ने मणिपुर के जनजाति समुदाय को नागा क्षेत्र से हटाने के लिए कई बार आर्थिक नाकाबंदी की है। अरुणाचल प्रदेश में भी बड़ी संख्या में जनजाति ईसाई धर्म में परिवर्तित हो रहे हैं और उनके अपने ही जनजातीय समुदायों से संघर्ष बढ़ रहे हैं।
ये साफ दर्शाता है की एक ओर जनजातीय समुदायों की पहचान को एक नयी अलग पहचान देने का षड्यंत्र है। दूसरी ओर उनको ईसाई मतांतरित करके उनको एक धर्म के अंदर लाकर धार्मिक अलगाव के बीज बोए जा रहे हैं। अगर इन सभी विघटनकारी शक्तियों को सूक्ष्मता से अध्यन किया जाये तो उपनिवेशिक और धार्मिक शक्तियों द्वारा भारत के जनजातियों को एक धर्म में लाने का प्रयास है और दूसरी ओर उनकी विशिष्ट पहचान को खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि ये आपस में संगठित न हो और इनमें आपसी संघर्ष बना रहे।
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