मन मोहन कुमार आर्य
सृष्टि का आरम्भ तिब्बत से हुआ। ईश्वर ने वेदो का ज्ञान सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु , आदित्य व अंगिरा व उनके माध्यम से सभी मनुष्यों को प्रदान किया। इन मनुष्यो को ‘‘आर्य ’’ नाम की संज्ञा दी गई । बाद में गुण, कर्म, स्वभाव व भौगोलिक कारणो से मनुष्यों के अनार्य , दास, राक्षस व नाना नाम पड़े । सारी भूमि खाली पड़ी थी। मनुष्य की उत्पत्ति के कुछ समय बाद सृष्टि के आरम्भिक दिनों में यह आर्य तिब्बत से नीचे उतरे और खाली पड़ी भूमि मे आर्यवर्त्त देश बसाया। वर्तमान सृष्टि व मानव सम्वत् 1, 96, 08, 53, 113 हवां वर्ष चल रहा है। अब से लगभग 5, 100 वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ जिससे कल्पनातीत विनाश होने के कारण धार्मिक, राजनैतिक व सामाजिक सभी प्रकार की वैदिक व्यवस्थाये अवरूद्ध वा समाप्त हो गई और पतन होता रहा। मध्यकाल आता है जब हमारे देश में अन्ध-विश्वास व कुरीतियों की वृद्धि होती है। यज्ञों में पशुओं की बलि आरम्भ हो गई , स्त्री व शुद्रों को वेदाध्ययन के अधिकारों से वंचित किया गया। गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गई । वैदिक ज्ञान-विज्ञान विस्मृत कर दिया गया। इस काल में अनेक कारणों से बौद्ध व जैन मत अस्तित्व में आये । इनके आचार्यो की मृत्यु के पश्चात मूर्ति पूजा का आरम्भ हुआ। फिर फलित ज्योतिष भी यूनान से भारत में आ गया और इसने भारत के लोगों को भाग्यवादी बनाकर पुरूषार्थ व बल हीन बना डाला। बौद्ध व जैन मतो के पराभव के बाद वेदों के मानने वालों ने भी मूर्ति पूजा आरम्भ कर दी। अज्ञान, स्वार्थ व अन्धानुकरण इसके प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं । इनसे समाज कमजोर होता गया। तभी हम अपनी धार्मिक, राजनैतिक व सामाजिक कमजोरियों व मूर्खतापूर्ण निर्णयों के कारण मुगलों के गुलाम हो गये । उसके बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने बौद्धिक छल-कपट आदि से प्रायः सारे भारत को अपने नियन्त्रण में ले लिया। गुलामी का दौर चला, देशवासियों पर अमानवीय अत्याचारों का दौर भी चलता रहा।
ऐसे समय में सन् 1863 में वैदिक ज्ञान विज्ञान से सम्पन्न एक साहसी, वीर, ब्रह्मचर्य के बल से प्रदीप्त, युवा, अभूतपूर्व देशभक्त, इतिहास-भूगोल के ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण महर्षि दयानन्द का राष्ट्र की क्षितिज पर अवतरण होता है। वह देशवासियों मे वैदिक धर्म के उदात्त विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार तो करते ही हैं साथ ही साथ देश की स्वतन्त्रता, स्वराज्य, अतीत में भारत के सर्वत्र चक्रवर्ती राज्य आदि समयानुकूल विचारों का प्रचार करते हुए स्वतन्त्रता के मन्तव्य व विचार को भी जनता पर प्रकट कर उन्हें इसकी प्राप्ति के लिए तैयार करते हैं। यही कारण है कि महादे व गोविन्द रानाडे, उनके शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले , गोखले जी के शिष्य गांधीजी तथा दूसरी ओर क्रान्ति के आद्य आचार्य पं.श्यामजी कृष्ण वर्मा, उनके शिष्य वीर सावरकरतथा इनके अन्य सभी क्रान्तिकारी शिष्यों को महर्षि दयानन्द का मानस व परम्परा से उत्पन्न पुत्र कह सकते हैं। उन दिनों एक तरफ आजादी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न बढ़ रहे थे तो दूसरी ओर उसको दबाने व कुचलने के लिए शासक क्रूर व क्रूरतम कार्य करते थे। उसी का परिणाम पंजाब के अमृतसर में जलियाबाग का काण्ड था जहां बैसाखी 13 अप्रैल, 1919 के दिन शान्तिपूर्वक सभा कर रहे निहत्थे व शान्त लोगों पर अंग्रेज सरकार के अधिकारियों द्वारा गोलियों की बौछार कर एक हजार से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। ऊधमसिंह इस सभा में सम्मिलित थे व इसके प्रत्क्षदर्शी थे। उस समय उनकी आयु 19 वर्ष 4 महीनों की थी। इस अमानुषिक, निर्दयतापूर्वक किये गये जनसंहार ने उनकी आत्मा को अन्दर तक हिला दिया था। उस युवा बालक के हृदय में यह संकल्प जागा कि इस क्रूर कर्म के दोषी को सजा देनी है तभी वह पं. राम प्रसाद बिस्मिल कुमार आर्य भारत माता के ऋण से उऋण होगें और उससे भविष्य में अन्य शासको को ऐसा दुस्साहस करने का अवसर नहीं मिलेगा। दिनांक 13 मार्च, 1940 को लन्दन के कैक्स्टन हाल में इस घटना के उत्तरदायी माइकेल ओडायर को अपनी पिस्तौल की गोलियों से धराशायी कर उन्होने भारत माता पर कुदृष्टि डालने वाले की आंखे सदा-सदा के लिए बन्द कर दीं । 26 दिसम्बर, 2013 को भारत माता के इस वीर बांके महापुरूष का जन्म दिवस है। इस अवसर पर उनकेप्रति कृतज्ञता व्यक्त करना राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है एवं उनके निर्भीक व साहसी जीवन पर एक दृष्टि डाल लेना भी समीचीन है। यहां यह भी लिखना अनुपयुक्त न होगा कि जलियांवाला बाग काण्ड की इस घटना के विरोध मे कांग्रेस ने यहां 26 दिसम्बर, 1919 को अपना अधिवेशन किया जहां उसके स्वागताध्यक्ष का भार महर्षि दयानन्द के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने ऊपर लिया। उन्होने अपना स्वागत भाषण हिन्दी में पढ़कर कांग्रेस के मंच से एक नई परम्परा को जन्म दिया तथा साथ ही कांग्रेस के मंच से दलितोद्धार पर भी कांग्रेस इतिहास में प्रथमवार अपने मार्मिक विचार व्यक्त किए थे। शहीद ऊधमसिंह का जन्म दिनांक 26 दिसम्बर 1899 को पटियाला रिसायत के सुनाम स्थान पर पिता टहल सिंह के यहां हु आ था। उनके पिता पास के एक रेलवे फाटक की एक चैकी ‘उपाल्ल’ पर चैकीदार-वाचमैन का काम करते थे। बचपन में इनका नाम शेरसिंह व इनके भाई का नाम मुक्तासिंह था। इनके 7 वर्ष का होने तक इनके माता पिता दोनों का निधन हो गया। 24 अक्तूबर 1907 को यह अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक खालसा अनाथालय में भर्ती हुए। यहां सिख धर्म मे दीक्षित कर उन्हें ऊधमसिंह व साधू सिंह नाम दिए गये । इसके 10 वर्ष बाद भाई साधूसिंह दिवंगत हो गये । सन् 1918 मे मै ट्रिक पास कर इन्होंने अनाथाश्रम छोड़ दिया। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में जो अमानवीय घटना घटित हुई , उस सभा में भी आप सम्मिलित थे। यहां हो रही शान्तिपूर्ण सभा में रिजीनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर के आदेश से निहत्थे लोगों को गोलियों से भून दिया गया। 1,000 से अधिक लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठे । बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे। बाग में एक कुआं था, जो अब भी है, उसमें लोग अपनी जान बचाने को कूद पड़े परन्तु बड़ी सं ख्या में लोगो के उसमें कूदने से सभी एक दूसरे के नीचे दब कर मर गये । ऊधम सिंह ने घायल लोगों की सहायता की। उन्हें बाहर निकालने में उन्हें सहारा दिया। इस नृषं स काण्ड से दुःखी हो कर उन्होने 20 वर्ष की आयु में ही इस अमानुषिक काण्ड के खलनायक को सजा देने का सं कल्प लिया जो इसके 21 वर्षो बाद 13 मार्च, 1940 को पूरा किया। जलियांवाला बाग की घटना के कुछ समय बाद वह अमेरिका चले गये । अन्याय के विरूद्ध युद्धरत बब्बर अकालियों की गतिविधियों से प्रभावित हो कर वह सन् 1920 मे भारत लौट आये । अमेरिका से छुपाकर वह एक पिस्तौल भारत लाये थे। अमृतसर में पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें जेल जाना पड़ा जहां से रिहा हो कर सन् 1931 में वह अपने जन्म के गांव सुनाम मे आ गये । वहां पुलिस द्वारा परेशान करने पर आप अमृतसर आ गये और यहां दुकान खोल कर दुकानों के नामपट्ट लिखने व पेण्टर का काम किया। उन्हें अपना नाम बदलना उचित लगा तो वह राम मुहम्मद सिंह आजाद बन गये ।
सन् 1935 में वह शहीद भगत सिंह व उनकी पार्टी की देशभक्ति के कार्यो से प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरू तुल्य मानने लगे। वह महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के अनुयायी शहीद पं. राम प्रसाद बिस्मिल व उनके देशभक्तिके गीत,गानों , गजलोंव तरानों आदि से भी प्रभावित हुए जो उनकी जुबान पर रहा करते थे। पं. राम प्रसाद बिस्मिल क्रान्तिकारियों के रहनुमा थे और भगतसिंह सहित सभी क्रान्तिकारी उनकी गजलों व गीतों को गाया व गुनगुनाया करते थे। उनकी काकोरी काण्ड व फांसी की घटना देशभक्त युवकों के लिए अनन्य उदाहरण थी। यहां से वह कश्मीर जाकर रहे और उसके बाद इंग्लैण्ड आ गये । यहां आकर वह जलियांवाला बाग काण्ड के अवसर पर लिये गये अपने संकल्प को पूरा करने के लिए अवसर की तलाश में लगे रहे। उनका संकल्प पूरा होने का समय आ गया जब वह कैक्सटन हाल में 13 मार्च, 1940 को ईस्ट इण्डिया एसोसियेशन द्वारा रायल सेन्टल एशियन सोसायटी से सम्बन्धित सायं 4:30 बजे आयोजित बैठक में जा पहुँचे । उन्होने जेब से पिस्तौल निकाल कर पंजाब के भूतपूर्व गवर्नर माइकेल ओडायर पर 5-6 गोलियां बरसाई और उसे सदा-सदा के लिए मौत की नींद सुला दिया। जलियांवाला बाग काण्ड में जो लोग मरे थे वह निहत्थे व निर्दोष थे और अब जो व्यक्ति मरा वह उन सहस्रधिक लोगों की मृत्यु का दोषी था। इस घटना से एक नया इतिहास निर्मित हुआ जिससे सरदार ऊधम सिंह सदा के लिए अमर हो गये । बताया जाता है कि ऊधमसिंह जी ने दो बार गोलियां चलाई जिससे माई केल ओडायर भूमि पर गिर पड़े और उनकी मृत्यु हुई । इस घटना में सभा की अध्यक्षता कर रहे भारत राज्य के सचिव मि. जेटलैण्ड घायल हुए। इस घटना के बाद ऊधम सिंह जी ने घटना स्थल से भागने का कोई प्रयास नहीं किया और लोगों को बताया कि उन्होने देश के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा किया है। ओल्ड बैले के केन्द्रीय क्रिमीनल न्यायालय के न्यायधीश एटकिन्सन ने 4 जून 1940 को उन्हें मौत की सजा सुनाई । मात्र 1 अप्रैल 1940 से 4 जून 1940 तक 4 दिनों मे इस मुकदमें का फैसला कर दिया गया। 31 जुलाई, 1940 के दिन ऊधम सिंह ने लन्दन की पेनटोउविले जेल में फांसी पर झूलकर अपना प्राणोत्सर्ग किया और भारतमाता के वीर अमर पुत्र बन गये। कारावास के दिनों में श्री शिव सिंह जौहल को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि वह बहुत साहसी तथा हाजिर जवाबी मिजाज वाले व्यक्ति थे। लन्दन में वह स्वयं को राजा जार्ज का मेहमान कहते थे। उनका मानना था कि मृत्यु एक दुल्हन है जिससे उनका विवाह हो रहा है । फांसी के फन्दे तक वह प्रसन्न मुद्रा में पहुंचें जिस प्रकार से पं . राम प्रसाद बिस्मिल और भगत सिंह आदि शहीद पहुंचें थे। अपने मुकदमें की सुनवाई के दिनों मे उन्होने इच्छा व्यक्त की थी कि उनके अवशेष भारत भेज दिये जाये जिसे स्वीकार नही किया गया था। सन् 1975 मे पंजाब सरकार की प्रेरणा पर भारत सरकार ने ब्रिटिश सरकार से इसके लिए अनुरोध किया जिससे उनकी अस्थियां व अवशेष देश में पहुँचे जिन्हें देश के लाखों लोगों ने एकत्र हो कर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि भेंट की।
जब हम जलियांवाला बाग काण्ड की घटना पर विचार करते हैं तो हमें सन् 1857 में महारानी विक्टोरियां द्वारा की गई घोषणाओं का ध्यान आता है जिसमें उन्हों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से शासन की बागडोर अपने हाथो मे लेकर कहा था कि धर्म, मत, सम्प्रदाय व मजहब के नाम पर किसी भी भारतीय प्रजा के साथ कोई भेदभाव नही किया जाये गा और वह एक माता के समान भारतवासी प्रजा की रक्षा व पालन करेगीं। हमें लगता है कि यदि इस घोषणा का पालन किया जाता तो पं. राम प्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह व इनके सभी साथियों के साथ जो व्यवहार किया गया वह न हो ता। देश को सन् 1947 में स्वतन्त्रता मिलने तक अंग्रेज भारतवासियों पर जिस प्रकार अत्याचार करते रहे, उनसे उक्त घोषणा का असर उनकी क्रियाओं व कार्यो मे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। आर्य समाज के संस्थापक इस बात को अच्छी तरह से समझते थे और इसीलिए उन्होने सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम् समुल्लास में इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया की उक्त घोषाणाओं के उत्तर में लिखा था कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर रहित, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय व दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक कभी नहीं हो सकता। सन् 1875 में लिखी गई इन पंक्तियों व 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने तक हम देखते हैं कि अंग्रेजों ने उक्त घोषणा के शब्दों व वाक्यो का पालन नहीं किया अन्यथा जलियां वाला बाग का जघन्य काण्ड हुआ ही न होता। इसके अतिरिक्त यदि माइकेल ओडायर या जनरल डायर ने यह काण्ड किया भी तो इसकी सजा देने के स्थान पर उन्हें पुरूस्कार दिया गया लगता है जिससे यह विदित होता है कि इंसाफ नहीं किया गया। एक ओर पं. रामप्रसाद बिस्मिल व उनके तीन साथियों द्वारा मात्र दस हजार रूपयों की चोरी या लूट के लिए मृत्यु दण्ड दिया जाता है वहीं एक हजार से अधिक निहत्थे व निदोर्ष लोगों की हत्या करने वालों को कोई सजा नहीं मिलती। अतः हमें यहां शासको व साम्राज्यवादियों की कथनी व करनी में जमीन व आसमान का अन्तर प्रतीत हो ता है व उनकी न्यायप्रियता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। माई कल ओडायर के प्रति ऊधम सिंह को जो करना पड़ा वह इसलिये कि उन्हें उसके किए की सजा नहीं दी गई थी। हमें यह भी लगता है कि ऊधमसिंह को जो सजा दी गई वह उनके अपराध के उपयुक्त न हो कर उससे अधिक थी। वह अपराधी तभी होते जब मा. ओडायर को उचित दण्ड दिया गया होता। ऊधमसिंह ने किसी निर्दोष व्यक्ति को तो मारा नहीं अपितु अपने सहस्रधिक भाईयों के हत्यारे अपराधी को मारा क्योंकि उसे उसके कृत्यो का दण्ड नहीं दिया गया था। हम समझते हैं कि अमर शहीद ऊधमसिंह जी ने जो कार्य किया वह पं. राम प्र साद बिस्मिल, अषफाक उल्ला खां, चन्द्रषेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी, सुखदेव, राजगुरू आदि की तरह स्तुत्य है। इस घटना का प्रभाव कू्रर षासकों के भावी व्यवहार व कार्य पर भी असर हुआ होगा और जलियांवाला बाग जैसी योजनाये बनाते हुए व कार्य करते हुए उन्हे ऊधमसिंह अवश्य याद आते रहे होंगे । शहीद ऊधम सिंह जी ने जो कार्य किया उससे भारतीयों के साहस, वीरता,शौर्य व देशभक्ति की नई मिसाल कायम हुई। शहीद ऊधम सिंह जी को हमारी कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धांजलि।