#वनराज
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से ही ईसाई मिशनरियों ने गोंड जाति का विशेष अध्ययन करने के प्रयत्न किये। सर्वप्रथम 1842 में जर्मनी से चार ईसाई धर्म प्रचारक (पादरी) मंडला आये और उन्होंने अमरकंटक के पास #करंजिया गाँव में अपना क्षेत्र बनाया, परन्तु जलवायु अनुकूल न होने से प्राकृतिक प्रकोप के कारण चारों की मृत्यु हो गई।
बाद में स्टीफन फुक्स, डी. डी. चेटरटन, सी. यू. विल्स, केप्टन वार्ड, स्लीमेन, कनिंग्घम, रुडमेन, आर. व्ही रसल, हिस्लप तथा वेरियर एलविन ने गोंडों का अध्ययन किया, इनमें से स्टीफन फुक्स, डी. डी. चेटरटन, सी. यू. विल्स, केप्टन वार्ड, स्लीमेन, कनिंग्घम, रुडमेन आदि पादरियों ने गोंडों का इतिहास और पुरातत्व एवं स्टीफन फुक्स, हिस्लप तथा वेरियर एलविन ने सामाजिक जीवन का अध्ययन किया।
स्टीफन फुक्स, हिस्लप ने तो गोंडों के बीच रहकर तथा 40 वर्षीय #वेरियर_एलविन ने 14 वर्षीय गोंड लड़की कौशल्या (जिसे वह कोशी नाम से पुकारता था) से विवाह कर अध्ययन किया।
वेरियर #एलविन ने गोंड जाति में अश्लीलता,#कामुकता व कुरुपता के दर्शन किये और उसे ही अपनी पुस्तक में दर्शाते हुए गोंड जाति का अध्ययन किया।
वेरियर एलविन ने #गोंड_युवतियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कामुकता की मूर्ति (सेक्स सिम्वॉल) बनाकर लिखा है जो कभी माफ नहीं किया जा सकता।
इन पादरियों के अध्ययन करने का एक ही लक्ष्य रहा है कि अध्ययन के नाम पर प्राप्त धन से इन गोंडों की जरुरतों को पूरी कर इनका #धर्म_परिवर्तन कर ईसाई बनाना । और फिर गोंड जाति को पूरी तरह #खत्म कर देना।
इसके लिए इन तथाकथित मानव शास्त्रियों के लिए आवश्यक था कि सनातन #हिन्दू_धर्म में आस्था रखने वाली इस कट्टर हिन्दू गोंड जाति को किन -किन बातों में हिन्दुओं से #अलग किया जा सकता है ? वह सब उन्होंने किया फिर चाहे हमारे देव स्थान हों, पूजा- पध्दति हो, खान-पान हो, रीति- रिवाज हों, रहन-सहन हो, नाच-गान हो, पहरावा हो, गुदना गुदवाने जैसी विभिन्न परम्पराऐं हों आदि सभी को बड़े ही अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से लिखा और अपने मन से उसके अर्थ निकालकर हमारी गोंड जाति को सनातन #हिन्दू_समाज से अलग करने के प्रयास किये हैं।
इनका अध्ययन केन्द्र #मण्डला जिला रहा जहाँ उस समय हर छोटे-बड़े गाँव में पूर्णरूप से गोंडी भाषा बोली जाती थी और अधिकांश लोग अनपढ़ थे उनसे इन्होंने चर्चा कर सैकड़ों पुस्तकें लिख डाली जिनमें यह सिध्द करने के प्रयत्न किये गयें कि गोंड हिन्दू नहीं है वह अलग ही एक अजूबा प्राणी है।
हम कल्पना करें कि इन अंग्रेज़ी भाषी विदेशी मिशनरी पादरियों को न तो ठीक से हिन्दी आती थी और न ही गोंडी भाषा !
हाँ सम्पर्क के लिए कुछ गोंडी के शब्द सीख लिए होंगे उस आधार पर एक अनपढ़ गोंड आदमी से चर्चा कर शब्दों के अर्थ के अनर्थ निकाले गये।
गोंडी के कुछ शब्द हैं जैसे –
* #राऊन – हिन्दी में इसका अर्थ होता है प्राचीन, पुरातन,
पुराना।
सामने वाला कहता है यह हमारे #राऊन_देव, राऊन्या
देव (प्राचीन, पुराना) का देव स्थान है जिसे पादरी
लेखक #रावन_देव लिखता है।
ऐसे अनेक जगह राऊन शब्द का प्रयोग होता है जैसे –
राऊनखेड़ा (पुरानाखेड़ा)
राऊनवाड़ी (पुरानीवाड़ी)
राऊन कुआँ- बावड़ी (पुराना कुआँ- बावड़ी)
इन सभी को लंकापति रावन से जोड़कर लिखा गया।
* #रावेन – हिन्दी में इसका अर्थ होता है #नीलकंठ यानि
महादेव, बड़ादेव, शिव, भोलेनाथ, शम्भुनाथ।
सामने वाला श्रध्दा-आस्थावान अनपढ़ गोंड आदमी
अपने देव बताते हुए कहता है कि ये हमारे #रावेन_देव
हैं। हम रावेन देव की #पूजा करते हैं। जिन्हें #रावन_देव
समझकर लिख दिया कि मंडला के गोंड रावन की पूजा
करते हैं वे रावनवंशी हैं वे राम को नहीं मानते हैं।
यह बात उक्त मिशनरी लेखकों ने अपने ढंग से लिखी
और उनकी लिखी पुस्तकें मानव शास्त्र के अध्ययन
कर्ताओं को संदर्भ ग्रंथ बन गईं ।
आगे जितने भी भारतीय लेखक, मानव शास्त्री हुए उन्होंने अपने शोध- पत्रों में भी वही बात दोहराते हुए डॉक्टर की #उपाधि प्राप्त की।
मंडला व अन्य क्षेत्र के बेचारे अनपढ़ गोंड भाईयों को नहीं पता कि हमसे जो बात हुई उसे किसने, कैसे लिखी।
जब किताब छपी वो वह चल बसा था।
किताब वाचनालयों में शहर के लोगों ने पढ़ी और तद्नुसार उनकी धारणा गोंड जाति के लोगों को देखने की बनी।
1842 में उक्त ईसाई मिशनरी लेखकों ने गोंड जाति के अध्ययन साहित्य में कुटिलतापूर्वक जो #रावन नाम का बीज बोया था उसके परिणाम अब परिलक्षित होते नजर आने लगे हैं।
जिन्हें #धर्मान्तरित गोंड आदिवासी बड़े जोर शोर से प्रचारित करने में लगे हैं।
जिनमें कुछ लोग #राजनैतिक महत्वाकांक्षा से व अन्य लालच से सहभागी हो जाते हैं।
जिससे सदा सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति में आस्था रखने वाले गोंड समाज का कुछ पढ़ा- लिखा वर्ग भ्रमित है।
जो इनका सहयोगी बनकर #विश्व_आदिवासी_दिवस जैसे अवसरों पर अधिकार लेने के नाम पर गोंड आदिवासी युवकों की भीड़ इकट्ठी करते हैं और उसमें डी. जे पर गाना बजाते हैं –
आदिवासी का बच्चा – बच्चा, जय सेवा – #जय_रावन।
हमारे कुछ पढ़े- लिखे गोंड युवक -युवतियाँ (जो आदिवासी के नाम से इन षड़यंत्रकारी लोगों के चंगुल में आ गये हैं) इस गाने की धुन पर ठुमके लगाते हैं पर उन्हें यह भान नहीं होता कि हम क्या कर रहे हैं किस षडयंत्री गाने पर नाच रहे हैं।
बस नाचना है नाच रहे हैं।
इन विघटनकारियों को अराजकता फैलाने के लिए इतना ही पर्याप्त है। गोंड युवा आज #जय_आदिवासी बोल रहा है, वह कल #जय_ईशू बोलने में गौरव महसूस करने लगेगा।
इस बात की चिंता गोंड जाति के #प्रबुद्घ_जनों को करना चाहिए कि हमारी पीढ़ी अपने पूर्वजों के गौरव को बनाये रखे। अपनी #सनातन परम्पराओं को जीवित रखे, देशभक्त हो वह अलगाववादी लोगों के चंगुल में न फंसे।
राम राम – शिवा शिवा (सेवा सेवा)।
✍🏻शुभम वर्मा
संथाल जनजाति बिहार, झारखंड के अलावा बंगाल में भी होती है | बीरभूम जिले के सुलंगा गाँव में इनके करीब सौ घर होंगे | छोटा सा गाँव है, संथालों की आबादी भी वही 500-700 जैसी होगी | इतने मामूली से गाँव का जिक्र क्यों ? क्योंकि बरसों पहले यहाँ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका गया था | जैसा कि बाकी भारत में हुआ था यहाँ भी विद्रोह की मुख्य वजह धार्मिक और आर्थिक ही थी |
ये वो दौर था जब बिहार और बंगाल अलग अलग सूबे नहीं थे | एक ही बंगाल हुआ करता था और लोग भाषाई आधार पर सीमायें मानते थे | 1907 के उस दौर में बिहार के एक करपा साहेब को बुला कर यहाँ का जमींदार बना दिया गया और वो लगे किसानों से लगान वसूलने | इस लगान की दो शर्ते थी, या तो सीधे तरीके से लगान दो, या इसाई हो जाओ तो लगान माफ़ किया जायेगा |
विरोध करने वालों को या तो मार दिया गया था या पकड़ कर असम में कुली बना कर भेजा गया था | इस नाजायज और जबरन वसूली ऊपर से धर्म परिवर्तन के खिलाफ मुर्मू लोग विद्रोह पर उतर आये | जैसा कि बाकी के भारत में होता है और तिलक ने भी किया था वैसे ही यहाँ भी लोगों ने एकजुट होने के लिए त्योहारों का ही सहारा लिया | दुर्गा पूजा की नवमी को बलि प्रदान के दिन जब सब इकठ्ठा होते वहीँ से विद्रोह की शुरुआत हुई थी | विद्रोह के नेता थे बोर्जो मुर्मू और उनके भाई |
दल हित चिन्तक आज महिषासुर को जब संथाल लोगों का वंशज और झारखण्ड इलाके का वासी बताने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्होंने संथाल इतिहास तो जरूर ही देखा होगा ? अब ये सवाल इसलिए है क्योंकि बोर्जो मुर्मू के भाई का नाम दुर्गा मुर्मू था | जब इतिहास में संथाल विद्रोह दर्ज किया जाता है तो दुर्गा मुर्मू और बोर्जो मुर्मू का नाम साथ ही लिया जाता है | बोर्जो मुर्मू के वंशज अभी भी इसी गाँव में होते हैं | दुर्गा पूजा अभी भी यहाँ होती है, हां संस्कृत वाले मन्त्र नहीं पढ़े जाते, स्थानीय भाषा में बदले हुए मन्त्र होते हैं | तारीख़ वही बाकी भारत की दुर्गा पूजा वाली होती है मूर्तियाँ स्थानीय रंग-ढंग की |
जांच करने के लिए जो जाना चाहेंगे वो गाँव के पुजारी रोबीन टुडू से अष्टमी को गोरा साहिब को दर्शाने के लिए सफ़ेद छागर की बलि की प्रथा जांच सकते हैं | इलाके के वाम मोर्चे के पुराने मुखिया अरुण चौधरी से भी बात कर सकते हैं, दुर्गा पूजा में कम्युनिस्ट भी शामिल होते है | क्या कहा ? रोबिन टुडू नाम क्यों है पुजारी का ? भाई वो क्रिस्चियन वाला Robin नहीं है, “रविन्द्र” का बांग्ला अपभ्रंश है रोबीन ! नहीं भाई, हर बार पुजारी ब्राह्मण हो ये भी जरूरी नहीं होता |
बाकी ऊँचे अपार्टमेंट की तेरहवीं मंजिल (जिसका नाम आपने अज्ञात कारणों से 14th Floor रखा है) पर बंद ए.सी. कमरों से भारत पूरा दिखता भी नहीं जनाब ! नीचे जमीन पे आइये तो बेहतर दिखेगा |
✍🏻आनन्द कुमार
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