पत्रकार या लेखक कौन हो सकता है ?

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प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। यदि प्रेस सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति का निष्पक्ष होकर आकलन करे और दोनों को उनकी गलतियां बताकर देशहित में चर्चा को और भी अधिक ऊंचाई दे तो सचमुच मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना ही जाएगा ।
वास्तव में जब देश के विधानमंडलों की चर्चाएं या तो अधूरी रह जाएं या फिर किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर सत्ता पक्ष विपक्ष की आवाज को बंद करके अपनी मनमानी चला रहा हो या दोनों पक्ष मिलकर संविधान की मूल भावना के विपरीत जाकर जनभावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हों तो ऐसे में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को अपने आप ही विधानमंडल की शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं। जो उसे चर्चा का एक मजबूत मंच बना देती हैं । जो बातें देश की संसद या राज्य विधानमंडलों में चर्चा में नहीं आतीं या जिन बातों को सत्ता पक्ष दबा देता है या जिन बातों को विपक्ष जान करके भी नहीं उठा सकता, उनके लिए मीडिया एक मंच बन जाता है और वे बातें वहां से बड़ी प्रबलता के साथ उठाई जाती हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर मीडिया को इसी भाव और भावना से सम्मानित किया जाता है कि उसे अप्रत्यक्ष रूप से विधानमंडल के सदस्य की शक्तियां प्राप्त होती हैं। प्रत्येक पत्रकार अपने आप में एक महान विचारक के साथ-साथ एक संस्था भी होता है। वह देश की संसद और राज्य विधानमंडलों की शक्तियों को प्राप्त किए होता है। यद्यपि शक्तियों के मिलने की कभी कोई स्पष्ट घोषणा नहीं होती, ना ही उसे इस प्रकार की शक्तियों से विभूषित करने के लिए कोई कार्यक्रम आयोजित किया जाता है और ना ही इसका कोई प्रमाण पत्र उसे दिया जाता है। पर वह अपनी योग्यता से इस प्रमाण पत्र को प्राप्त कर लेता है।
जिस प्रकार विधान मंडलों में जनप्रतिनिधि जाकर बैठते हैं और वे देश की समस्याओं पर चर्चा करके उनका उचित समाधान खोजते हैं , उसी प्रकार एक पत्रकार होता है जो अपनी कलम के माध्यम से जनप्रतिनिधि बनता है और जनता की आवाज को मीडिया के मंच से उठाकर शासन चला रहे लोगों की आंखों को खोलने का काम करता है। देश के जनप्रतिनिधि किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो सकते हैं, उनके दलगत हित हो सकते हैं, उनके लिए देश हित गौण हो सकता है, परंतु किसी पत्रकार के लिए देश हित कभी गौण नहीं हो सकता। उसका सबसे बड़ा हित देशहित होता है, उसका सबसे बड़ा धर्म लेखनी धर्म का सम्यक निर्वाह करना होता है।
देश की राजनीति में लगे लोगों के लिए किसी संप्रदाय का तुष्टीकरण आवश्यक हो सकता है, किसी जाति का तुष्टीकरण आवश्यक हो सकता है, किसी क्षेत्र, भाषा या प्रांत के हितों को प्राथमिकता देना उनकी मजबूरी हो सकती है, क्योंकि उन्हें वोट चाहिए। पर इसके विपरीत किसी भी पत्रकार के लिए ना कोई संप्रदाय प्राथमिकता रखता है, ना ही कोई जाति प्राथमिकता रखती है और ना ही भाषा, प्रांत आदि उसके लिए प्राथमिकता रखते हैं। उसके लिए केवल और केवल देशहित प्राथमिकता रखता है । पत्रकार किसी भी प्रतिनिधि से इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह अपनी लेखनी के माध्यम से आजीवन देशहित का काम करता है। जबकि विधानमंडलों के लिए चुने जाने वाले जन प्रतिनिधि को जनता कभी भी पराजित करके विधानमंडलों से पीछे खींच सकती है। कोई भी नेता मंच से खड़ा होकर यह कह सकता है कि मुझे सबसे पहले अपनी जाति प्यारी है, अपना संप्रदाय प्यारा है या अपना क्षेत्र या अपनी भाषा प्यारी है, पर कोई भी सच्चा पत्रकार या लेखक ऐसा कभी भी नहीं कह सकता। इसका कारण केवल एक है कि कोई भी सच्चा पत्रकार या लेखक किसी प्रकार की संकीर्णता में नहीं जीता बल्कि वह विशालता की प्रतिमूर्ति होता है।
देश के विधानमंडलों में बैठने वाले जनप्रतिनिधियों की सत्ता जा सकती है, शक्ति जा सकती है, उनका घमंड ढीला हो सकता है, उनकी पार्टी टूट सकती है, पार्टी समाप्त हो सकती है। वे दल परिवर्तन कर सकते हैं, परंतु पत्रकार से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती और ना ही उसके साथ ऐसी कोई घटना भी घट सकती है। वह सदा सीधे और सधे हुए मार्ग पर एक तपस्वी की भांति चलता है और देश साधना ,राष्ट्र- आराधना, राष्ट्र निर्माण और मानव निर्माण के अपने पवित्र कार्य में बिना किसी ऐसी अपेक्षा के लगा रहता है कि उसे ऐसा करने से कोई पुरस्कार मिलेगा। कुल मिलाकर जो व्यक्ति देश भावना से प्रेरित होकर काम करता है, सच्चा पत्रकार या लेखक वही है।
इस समय जितने भर भी राजनीतिक दल हैं, उन्होंने देश के भीतर राजनीतिक सांप्रदायिकता को फैलाने का बहुत ही जहरीला प्रयास किया है। हर व्यक्ति इस समय किसी न किसी राजनीतिक विचारधारा या राजनीतिक पार्टी के साथ अपने आप को जुड़ा हुआ बताता है। एक पार्टी से जुड़ा व्यक्ति दूसरी पार्टी के प्रति या उसके समर्थक के प्रति अच्छे भाव नहीं रखता। इस संदर्भ में हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि देश की बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता का विनाश करने के लिए बनाई गई थी। इसका अभिप्राय कभी भी यह नहीं था कि देश के भीतर राजनीतिक सांप्रदायिकता का जहर घोला जाएगा।
यह तो और भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि देश के समाचार पत्र पत्रिकाएं भी तेजी से किसी न किसी राजनीतिक दल या राजनीतिक विचारधारा के साथ अपने आपको समन्वित करते जा रहे हैं। इसका कारण केवल एक है कि अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए और लूट के माल में सम्मिलित होने के उद्देश्य से प्रेरित होकर अधिकांश पत्र पत्रिकाओं के संपादक या पत्रकार ऐसा काम कर रहे हैं। इससे लेखनी का धर्म प्रभावित हुआ है और मीडिया जो विधानमंडलों की शक्तियों से ओतप्रोत हुआ करती थी, उसका वह मंच राजनीतिक सांप्रदायिकता का शिकार हुआ है।
बहुत ही दुख का विषय है कि कोई पत्रकार अपने आपको कांग्रेसी मानसिकता का बतलाकर प्रसन्न है तो कोई अपने आपको कम्युनिस्ट विचारधारा का बताकर प्रसन्न है, इसी प्रकार समाजवादी मानसिकता, दलित मानसिकता आदि – आदि मानसिकताओं के पत्रकार, लेखक आपको मिलेंगे। ऐसे लोगों से आप यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वे राष्ट्रहित में लिख सकेंगे ? जिनकी सोच पहले ही पक्षाघात का शिकार हो चुकी हो जिनके मानस में पहले ही किसी न किसी प्रकार का जहर घुला हो और जिनके मन मस्तिष्क में किसी न किसी प्रकार का पूर्वाग्रह पहले से ही बसा हुआ बैठा हो, उनसे आप राजनीतिक सांप्रदायिकता से बाहर निकल कर देशहित के स्वतंत्र चिंतन की अपेक्षा नहीं कर सकते।
जो पत्रकार किसी जाति विशेष में गरीबी ढूंढता हो,जो पत्रकार किसी संप्रदाय विशेष के हितों की पैरोकारी करता हो और जो दूसरे संप्रदायों के लोगों के अधिकारों के प्रति तनिक भी संवेदनशील ना हो ,उसे पत्रकार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। पत्रकार वही हो सकता है जो अंत्योदय की भावना में विश्वास रखता हो और बिना किसी राजनीतिक, सांप्रदायिक या जातिगत चश्मे के अंतिम व्यक्ति तक विकास के प्रकाश को पहुंचाने में पूर्ण मनोयोग से अपने लेखनी धर्म का निर्वाह करता हो। पत्रकार मानव श्रृंखला को तोड़ने की किसी गतिविधि का भाग नहीं होता, बल्कि वह मानव श्रृंखला को जोड़ने की एक औषधि होता है । इसी प्रकार वह राष्ट्र की विध्वंसक शक्तियों का समर्थक नहीं हो सकता, इसके विपरीत वह राष्ट्र निर्माण योजना का एक महत्वपूर्ण अंग होता है। वह पैसे से कंगाल हो सकता है परंतु उसके मानस में राष्ट्र निर्माण और मानव निर्माण की योजनाओं का लहराता सागर उसे किसी भी टाटा बिरला से बड़ा बना देता है। यही कारण है कि किसी पत्रकार की विद्वता ही उसके धनी होने का सच्चा प्रमाण पत्र होता है। वह अपने इस धन को मानव हित और राष्ट्र हित में व्यय करता जाता है। उसकी यह पूंजी जितनी अधिक खर्च होती है उतनी ही बढ़ती जाती है। संसार के लोग भौतिक धनसंपदा को जोड़ने में लगे रहते हैं और ऐसा पत्रकार या लेखक मानव और राष्ट्र को जोड़ने में लगा रहता है। उस सच्चे साधक को या जनप्रतिनिधि को और ऐसे लेखनी के सिपाही को ही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का एक सजग प्रहरी कहा जा सकता है।
मेरी दृष्टि में पत्रकार वह है जो भारत की वैदिक संस्कृति की गहराई को जानता है। उसके मर्म को जानता है । भारत की अंतरात्मा से जिसका परिचय है। जो उससे गहराई से संबंध रखता है। जिसका संवाद भारत और भारतीयता से नित्य प्रति होता है। जो वेद उपनिषद रामायण महाभारत गीता आदि का तार्किक ज्ञान रखता है। जिसकी बौद्धिक शक्तियां अपरिमित हैं और जो तर्क और विज्ञान के आधार पर निर्णय लेने, वस्तुओं और घटनाओं का परीक्षण , समीक्षण एवं निरीक्षण करने की शक्ति से संपन्न हो। जिसकी साधना और जिसकी संध्या में भारत और भारतीयता वैसे ही आते हैं जैसे किसी योगी की संध्या और साधना में परमपिता परमेश्वर नित्य प्रति आते हैं। वह चलता फिरता संत है। जो समाज के भीतर रहकर भी समाज से अलग रहता है और सदा राष्ट्र आराधना के उच्च चिंतन में लगा रहता है। उसका स्वतंत्र चिंतन राष्ट्र की सनातन संस्कृति के लिए समर्पित होता है।
कोई भी शराबी, मांसाहारी ,जुआ, व्यभिचारी लेखक या पत्रकार भारत की आत्मा से जुड़ा नहीं हो सकता। इसलिए वह किसी चोर अधिकारी या राजनीतिक व्यक्ति पर रौब जमा कर चाहे पैसा कमा ले, बड़ी-बड़ी कोठियां बना ले, कलम का आतंक दिखाकर लोगों को डरा व धमका ले, परंतु उसकी अपनी अंतरात्मा भी कभी उसे एक पत्रकार या लेखक का सम्मान नहीं देती। उसके लिए ना कोई सत्ता पक्ष है ना विपक्ष है, उसका अपना समर्थन उसी के साथ है जो राष्ट्रहित में काम करता हो और जो जनसमस्याओं के प्रति गंभीरता दिखाता हो।
जिसने अपना ईमान नेताओं या भ्रष्ट अधिकारियों के साथ मुर्ग मुसल्लम करने में बेच दिया हो , जो उनके साथ रहकर रंगीन रातें बिताता हो और उन्हीं में डूबकर अपनी लेखनी को भी शर्मसार करता हो, वह लेखक या पत्रकार की श्रेणी में नहीं आता। आप उसे लेखनी का प्रतिनिधि भी नहीं कह सकते। उसे आप किसी भी दृष्टिकोण से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का सजग प्रहरी भी नहीं कर सकते। अधिकारियों और नेताओं से दूरी बनाकर उन्हें साक्षी भाव से देखने वाला पारखी लेखनी का परमोपासक ही पत्रकार या लेखक हो सकता है। क्योंकि व्यवस्थापिका और कार्यपालिका दोनों जिस प्रकार अपने आप में स्वतंत्रता पूर्वक अपना – अपना काम करती हैं वैसे ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी अपने आप में स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करता है। यदि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ लोकतंत्र के किसी अन्य स्तंभ की चाटुकारिता करने लगा तो समझिए कि वह अपंग हो जाएगा। यह एक सर्वमान्य सत्य है कि लंगड़ा – लूला, अपाहिज कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता ।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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