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  10% की नई राजनीति

बतंगड़

हर्षवर्धन  त्रिपाठी

दस प्रतिशत यही वो आंकड़ा होता है जिसके आधार पर तय होता है कि किसी संसदीय व्यवस्था में औपचारिक तौर पर विपक्षी पार्टी होगी या नहीं। और ये अद्भुत संयोग बना है कि चुनावी राजनीति की सर्वोच्च संसद और देश की राजधानी दिल्ली की विधानसभा में जनता ने विपक्ष को चुनने से ही इनकार कर दिया है। कहने को लोकसभा में भी विपक्षी पार्टियां हैं जो किसी भी मामले पर हल्ला-हंगामा कर सकती हैं। लेकिन, दस प्रतिशत भी सीटें कांग्रेस को न मिल पाने की वजह से 2014 के चुनावों में लोकसभा विपक्ष विहीन हो गई है। और दिल्ली विधानसभा के ताजा चुनाव में तो जनता और आगे निकल गई। उसने लोकसभा चुनाव बंपर तरीके से जीतने वाली भाजपा को पांच प्रतिशत सीटें भभी देने से इनकार कर दिया। अराजक कही जाने वाली आम आदमी पार्टी को इतनी सीटें दे दी हैं कि अब कोई अराजकता भी करेगा तो दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी के विधायकों की हंसी में ही दबब जाएगा। वैसे तो ये अन्ना आंदोलन से जन्मी पार्टी है। सभी परंपरागत पार्टियों को गालियां देकर खड़ी हुई पार्टी है। इसलिए विश्लेषक चाहें तो इसे भारतीय राजनीति में चमत्कार की शुरुआत कह सकते हैं। लेकिन, सच्चाई ये है कि आम आदमी पार्टी के इस मतदाता तूफान को भारतीय राजनीति में मतदाताओं के नए पक्के होते मिजाज की भव्य इमारत देखने की तरह समझना ज्यादा बेहतर होगा।

भारतीय मतदाता अब परंपरागत तरीके से नहीं सोचता। वो परंपरागत खांचों में भी नहीं बंटा है। वो इतना परिपक्व और बेहतर हुआ है कि वो एक समय में ही दो अलग-अलग मौकों के लिए अलग तरीके की राजनीति करने वालों को आंखमूंदकर समर्थन दे देता है। कमाल की बात है कि वो ये सब खुलकर कर रहा है। लेकिन, इसके बाद भी राजनेताओं को ये सब उतने साफ तरीके से दिखाई नहीं देता। खासकर जिसका समर्थन जनता आंख मूंदकर करती है तो उस राजनीतिक दल या नेता को ये गलतफहमी हो जाती है कि जनता ने आंखें मूंद ली हैं। अब चाहे जो करो, चाहे जैसे करो। जनता तो आंख खोलने से रही। लेकिन, जनता गजब समझदार हो गई है। वो खुद तो आंखें खोलती ही है। आंख ढंकने की कोशिश करने वाले राजनीतिक दलों की आंख में मिर्ची भर देती है। सोचिए न जनता की पारदर्शिता कितना जबरदस्त रही है। वो 2013 की सर्दियों में दिल्ली में बीजेपी को मौका देती है। कांग्रेस को चेतावनी देती है और आम आदमी पार्टी को नई राजनीति करने का आधार देती है। वही जनता 2014 की गर्मियों में पूरी तरह से मोदीमय हो जाती है। कांग्रेस को उसके पुराने कर्मों का हिसाब किताब गिनाती है और आम आदमी पार्टी को समझाती है कि उसको किस नई राजनीति के लिए जनता ने चुना था। कांग्रेस को अपने कर्मों का हिसाब फिर भी समझ नहीं आता। कांग्रेस उसी धुन में रहती है। आम आदमी पार्टी घर-घर जाकर माफी मांगने लगती है। और भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को मिले मौके को जनता का दिया मौका न मानकर व्यक्तिगत उपलब्धि में जोड़ने लगती है। 2013 की सर्दियों से 2014 की गर्मियां बिताकर जनता फिर 2015 की सर्दियों में खड़ी थी। उसके सामने देश की एक सरकार थी। ये उस पार्टी की सरकार थी। जिसके पास नेता था, नीति थी। जिस भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक विश्लेषक 160-200 तक की अधिकतम संसदीय सीटों वाली पार्टी के तौर पर देखते थे। वो 282 सीटें लेकर खड़ी थी। और साथ ही उस बहुमत के आधार पर जनता को साफ दिख रहा था कि नरेंद्र मोदी वो सब कर रहे हैं जिसके लिए जनता ने उन्हें चिलचिलाती गर्मी में कतार में लगकर पूर्ण बहुमत दिया था। वो नरेंद्र मोदी भारत का डंका दुनिया में बजा रहा था। लेकिन, 2015 की सर्दियों में मफलर लपेटे वो आदमी फिर से आ गया था जो आम आदमी के नाम पर पार्टी चला रहा था। उसकी पार्टी में सचमुच ही सिर्फ आम आदमी बचे रह गए थे। 2014 की गर्मियों में लोकसभा चुनाव लड़ने के फैसले की शीर्षासन जनता ने क्या कराया, अपने खास स्टेटस को बचाने के लिए आम आदमा का मेकअप किए लोग पार्टी छोड़कर भागने लगे। और ये क्या जिस नरेंद्र मोदी की पार्टी पर जनता ने विश्वास का खून पसीना बहाया था। वहां तो वो सारे लोग नजर आने लगे। जिनके खिलाफ नरेंद्र मोदी चुनावी रैलियों में दहाड़ते नजर आए थे। वो सारे के सारे भाजपाई हो जाना चाहते थे। ये नेता जनता का ताकत नहीं समझ रहे थे। ये भाजपा की ताकत से जुड़ने जा रहे थे। और उधर सर्दियों में, कोहरे में मफलर लपेटे अरविंद केजरीवाल अकेले आम आदमी की ताकत बढ़ाने का दावा कर रहा था। वो माफी मांग रहा था जनता से कि अब वो भगोड़ा नहीं बनेगा। और भाजपा मजाक बना रही थी कि वो भगोड़ा निकल गया था। फिर भाग जाएगा। अरविंद ने जनता से माफी मांगी, समझाया कि वो भागा इसलिए कि न भागने पर परंपरागत राजनीति की चक्की में उसकी वो नई राजनीति पिस जाती, जिसके आधार पर जनता ने उसे 28 सीटें देकर राजनीतिक आधार दिया था। जनता समझ गई। जनता ने उसे मौका देने का ठाना। ये वही जनता थी जिसने नरेंद्र मोदी को भी मौका देने का फैसला किया था। नरेंद्र मोदी भी भी जनता को ये समझाने में सफल रहे थे कि पूरे देश की, दिल्ली की तथाकथित राजनीति करने वाले इस दिल्ली से बाहर के नेता को राजनीति के शीर्ष पर नहीं आने देना चाहते। नरेंद्र मोदी ये भी समझाने में सफल रहे कि बेवजह उन्हें स्थापित राजनीति, मीडिया ने प्रताड़ित किया। यही अरविंद ने भी समझाया। दोनों अपनी-अपनी जगह ये समझाने में सफल रहे। जनता ने समझा भी। अरविंद जब दिल्ली विधानसभा में आधार पाने के तुरंत बाद लोकसभा चुनावों के लिए चल पड़े तो जनता ने झटका दे दिया। नरेंद्र मोदी भी जब ये समझाने की कोशिश करने लगे कि दिल्ली का चुनाव नहीं जीते तो उनकी निजी प्रतिष्ठा जाएगी तो जनता ने झटका दे दिया। दरअसल जब हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू कश्मीर में नरेंद्र मोदी इस तरह की निजी प्रतिष्ठा वाला निवेदन कर रहे थे तो जनता को साफ दिख रहा था नरेंद्र मोदी से बेहतर राजनीति वाला कोई मौजूद नहीं है। जिस परंपरागत राजनीति को नए मतदाता ने बदला था वो उसकी जीत थी।

लेकिन, जब वही नरेंद्र मोदी उसी तरह की प्रतिष्ठा बचाने का हवाला देने लगे तो जनता चौकन्नी हो गई। क्योंकि, इस नए मतदाता ने 2014 की गर्मियों में ही साफ-साफ बचा दिया था देश में नरेंद्र मोदी, दिल्ली में केजरीवाल। दरअसल नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही भले एक दूसरे के घोर विरोधी दिखते हों। लेकिन, सच्चाई यही है कि ये दोनों उस नए मतदाता की पैदाइश हैं जो भारतीय राजनीति के सारे स्थापित पैमानों को उलट चुका है। ये जो लगातार मत प्रतिशत बढ़ता दिख रहा है। देश का लोकतंत्र मजबूत होता दिख रहा है। वो उसी नौजवान मतदाता की वजह से है। उस नौजवान मतदाता को अपना सपना तोड़ने वाला कोई भी बर्दाश्त नहीं है। वही मतदाता तो था जिसने 2009 में डॉक्टर मनमोहन सिंह के दस प्रतिशत की तरक्की वाले सपने पर मुहर लगाई थी। कांग्रेस को भी अप्रत्याशित सफलता दे दी थी। लेकिन, जब सुधार करते-करते मनमोहन सिंह की सरकार तीन सस्ते सिलिंडर को अपनी उपलब्धि बताने लगी और घोटाले, बेईमानी उस सरकार की पहचान बनते दिखने लगे तो जनता ने उठाकर पटक दिया। इसीलिए देश की राजनीति करने वालों, राजनीतिक विश्लेषकों, मीडिया को ये अच्छे से समझना होगा कि इस देश का नया मतदाता जागा है। नई तरह की राजनीति को वो समर्थन दे रहा है। इसीलिए नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही उसको एक समय में ही अच्छे लगने लगते हैं। वो स्मार्टफोन वाला मतदाता है। वो स्मार्ट मतदाता है। वो जेब में रकम से बनती बिगड़ती हैसियत समझता है। वो भारतीय पासपोर्ट की ताकत बढ़ते देखना चाहता है। वो अमेरिका के सपने नहीं देखता। वो अमेरिका घूम टहलकर लौट आया है। वो भारत को मजबूत देखना चाहता है। वो नया मतदाता है। नई राजनीति को मजबूत करना चाहता है। उसे दोनों ही अच्छे लगते हैं। उसे अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी दोनों को देखकर ये लगता है कि मैं भी कभी भी राजनीति कर सकता हूं। राजनीति करके सफल हो सकता हूं। मुख्यमंत्री बन सकता हूं। प्रधानमंत्री बन सकता हूं। ये उसी राजनीति और उसी मतदाता की जीत है। इसलिए इसे अरविंद की जीत और नरेंद्र मोदी की हार साबित करने वाले विश्लेषकों को थोड़ा सावधान रहने की जरूरत है। और उससे भी ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल को। क्योंकि, ये जनता ऐसे ही मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बनाती है और ऐसे ही पैदल भी करती है। ये नया मतदाता है। नई राजनीति को मजबूत कर रहा है। यही दिल्ली विधानसभा के नतीजों का सबक है।

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