हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्षय में अमृत महोत्सव मना रहे हैं। कुछ लोग इस अमृत महोत्सव को आजादी का महोत्सव कहकर बोल रहे हैं जबकि ऐसा कहना गलत हैं ।
जिन लोगों को हमारी संस्कृत और हिंदी भाषा का व्याकरण बोध नहीं है, उनके द्वारा इसे आजादी का महोत्सव कहा जा रहा है। वास्तव में यह स्वतंत्रता का महोत्सव है। आजादी स्वच्छंदता का पर्यायवाची है। आजादी स्वतंत्रता का पर्यायवाची नहीं है ।स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतवर्ष में गणतंत्र की स्थापना हुई और गणतंत्र की विशेषता है कि उसमें अपना ही शासन अपने ऊपर होता है, जिसमें अनुशासन में रहने की अपेक्षा की जाती है अर्थात शासन के नियम के अनुसार समाज अथवा प्रजा को रहना होता है। लेकिन स्वच्छंदता और आजादी में कहीं कोई नियम अथवा शासन नहीं होता है। आत्मानुशासन आत्मबोध कराने में सहायक होता है और जिस व्यवस्था के अंतर्गत आत्मबोध होकर व्यक्ति अपने जीवन की चौमुखी उन्नति करने की समुचित व्यवस्था को प्राप्त कर सकता हो,वही उसकी स्वतंत्रता कहलाती है। स्वतंत्रता की स्थिति में पूर्ण मर्यादा है ,पूर्ण अनुशासन है, पूर्ण संतुलन है । स्वतंत्रता की इस भावना में प्रत्येक प्राणी के जीवन और उसकी निजता का सम्मान करने का पवित्र भाव होता है परंतु आजादी में ऐसा नहीं होता।
जैसे शेर जंगल में आजाद या स्वच्छंद होता है । उस पर कोई नियम लागू नहीं होता। वह अपने से कमजोर पशुओं को मारकर खा जाता है। यह केवल आजादी अथवा स्वच्छंदता में संभव है। स्वतंत्रता में ऐसा संभव नहीं है। यदि हम जंगलराज में विश्वास रखते हैं तो अपने अमृत महोत्सव को हम आजादी का महोत्सव कह सकते हैं और यदि हम कुछ मर्यादाओं में और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं तो हमें इसे स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव ही कहना चाहिए।
स्वतंत्रता के 75 वें महोत्सव में यदि महर्षि दयानंद का नाम न लिया जाए और उनका कार्य भारतीय जनमानस के समक्ष न रखा जाए तो यह उनके साथ बहुत बड़ा अन्याय होगा।
सन 1855 में हरिद्वार से ही स्वामी दयानंद जी फर्रुखाबाद पहुंचे। वहां से कानपुर गए और लगभग 5 महीनों तक कानपुर और इलाहाबाद के बीच लोगों को जागृत करने का कार्य करते रहे। स्वतंत्रता के आंदोलन में लोगों की भूमिका निश्चित करते रहे। यहां से स्वामी जी मिर्जापुर गए ,और लगभग एक माह तक आशील जी के मंदिर में रहे। वहां से काशी जाकर कुछ समय तक रहे स्वामी जी के काशी प्रवास के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उनसे मिलने गई । काशी में ही रानी झांसी का मायका था।
रानी ने स्वामी जी से कहा कि मैं एक निसंतान विधवा हूं ।अंग्रेजों ने घोषित कर दिया है कि भारत में रियासत के पास उसका उत्तराधिकारी नहीं होगा, उसे वह हड़प लहंगे। अपनी इसी नीति के चलते अंग्रेजों ने मेरे राजी पर अधिकार करने की तैयारी कर ली है। वे झांसी पर हमला करने वाले हैं ।
अतः आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं देश की रक्षा हेतु जब तक शरीर में प्राण हों अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हो जाऊं।
महर्षि ने रानी से कहा कि यह भौतिक शरीर सदा रहने वाला नहीं है। वह लोग धन्य हैं जो ऐसे पवित्र कार्य के लिए अपना शरीर न्यौछावर कर देते हैं, ऐसे लोग मरते नहीं बल्कि अमर हो जाते हैं । लोग उनको सदा आदर से स्मरण करते रहेंगे। तुम निर्भय होकर तलवार उठाओ। विदेशियों का साहस से मुकाबला करो।
महर्षि दयानंद और 1857 क्रांति में उनका योगदान
1857 की क्रांति न केवल भारत के राष्ट्रीय इतिहास के लिए अपितु आर्य समाज जैसी क्रांतिकारी संस्था के लिए भी एक महत्वपूर्ण वर्ष है । इस समय भारत के उस समय के चार सुप्रसिद्ध संन्यासी देश में नई क्रांति का सूत्रपात कर रहे थे। इनमें से स्वामी आत्मानंद जी की अवस्था उस समय 160 वर्ष थी। जबकि स्वामी आत्मानंद जी के शिष्य स्वामी पूर्णानंद जी की अवस्था 110 वर्ष थी । उनके शिष्य स्वामी विरजानंद जी उस समय 79 वर्ष के थे तो महर्षि दयानंद की अवस्था उस समय 33 वर्ष थी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि इन्हीं चारों संन्यासियों ने 1857 की क्रांति के लिए कमल का फूल और चपाती बांटने की व्यवस्था की थी । कमल का फूल बांटने का अर्थ था कि जैसे कीचड़ में कमल का फूल अपने आपको कीचड़ से अलग रखने में सफल होता है , वैसे ही हमें संसार में रहना चाहिए अर्थात हम गुलामी के कीचड़ में रहकर भी स्वाधीनता की अनुभूति करें और अपने आपको इस पवित्र कार्य के लिए समर्पित कर दें । गुलामी की पीड़ा को अपनी आत्मा पर न पड़ने दें बल्कि उसे एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए साधना में लगा दें।
इसी प्रकार चपाती बांटने का अर्थ था कि जैसे रोटी व्यवहार में और संकट में पहले दूसरे को ही खिलाई जाती है , वैसे ही अपने इस जीवन को हम दूसरों के लिए समर्पित कर दें । हमारा जीवन दूसरों के लिए समर्पित हो जाए , राष्ट्र के लिए समर्पित हो जाए ,लोगों की स्वाधीनता के लिए समर्पित हो जाए। ऐसा हमारा व्यवहार बन जाए और इस व्यवहार को अर्थात यज्ञीय कार्य को अपने जीवन का श्रंगार बना लें कि जो भी कुछ हमारे पास है वह राष्ट्र के लिए है , समाज के लिए है , जन कल्याण के लिए है।
स्वतंत्रता का प्रथम उद्घोष
अपने भारतभ्रमण के दौरान देशवासियों की दुर्दशा देख कर महर्षि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पराधीन अवस्था में धर्म और देश की रक्षा करना कठिन होगा , अंगेजों की हुकूमत होने पर भी महर्षि ने निडर होकर उस समय जो कहा था , वह आज भी सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध है , उन्होंने कहा था ,
“चाहे कोई कितना ही करे, किन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। किन्तु विदेशियों का राज्य कितना ही मतमतान्तर के आग्रह से शून्य, न्याययुक्त तथा माता-पिता के समान दया तथा कृपायुक्त ही क्यों न हो, कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता।”
(महर्षि दयानंद के विषय में अनेक महापुरुषों के वचन अलग से पढ़े जा सकते हैं)
1857 से लेकर 59 तक महर्षि दयानंद ने भूमिगत रहकर देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में विशेष योगदान दिया। इसके बाद 1860 में सार्वजनिक मंच पर दिखाई पड़े।
महर्षि दयानंद ने यह बात संवत 1913 यानी सन 1855 हरिद्वार में उस समय कही थी, जब वह नीलपर्वत के चंडी मंदिर के एक कमरे में रुके हुए थे , उनको सूचित किया गया कि कुछ लोग आपसे मिलने और मार्ग दर्शन हेतु आना चाहते हैं , वास्तव में लोग क्रांतिकारी थे , उनके नाम थे —
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1.धुंधूपंत – नाना साहब पेशवा ( बालाजी राव के दत्तक पुत्र )
.2. बाला साहब .
3.अजीमुल्लाह खान .
4.तांत्या टोपे .
5.जगदीश पुर के राजा कुंवर सिंह .
इन लोगों ने महर्षि के साथ देश को अंगरेजों से आजाद करने के बारे में मंत्रणा की और उनको मार्ग दर्शन करने का अनुरोध किया ,निर्देशन लेकर यह अपने अपने क्षेत्र में जाकर क्रांति की तैयारी में लग गए , इनके बारे में सभी जानते हैं।
स्वदेशी और स्वराज्य के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे महर्षि दयानन्द
यह महर्षि दयानंद के द्वारा स्वतंत्रता की लौ जगाने का एक सार्थक प्रयास था उसी के कारण भारतवर्ष की स्वतंत्रता के लिए लाखों वीरों, वीरांगनाओं ने अपने सर कटा दिए। बाल गंगाधर, लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, सरदार भगत सिंह , लाला लाजपत राय, विजय सिंह पथिक, राव कदम सिंह, राव उमराव सिंह, शहीद धन सिंह कोतवाल अनेक आजादी के दीवाने महर्षि दयानंद की प्रेरणा के आधार पर ही भारत माता की बलिवेदी पर हंसते हंसते अपना सर्वोच्च बलिदान कर गए।
महर्षि दयानंद पर अनेक समाज सुधारकों के विचार
१- “स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्वल्यमान नक्षत्र थे दयानंद |” – लोक मान्य तिलक
२- आधुनिक भारत के आदिनिर्मता तो दयानंद ही थे | महर्षि दयानन्द सरस्वती उन महापुरूषो मे से थे जिन्होनेँ स्वराज्य की प्रथम घोषणा करते हुए, आधुनिक भारत का निर्माणकिया ।
हिन्दू समाज का उद्धार करने मेँ आर्यसमाज का बहुत बड़ा हाथ है। – नेता जी सुभाष चन्द्र बोस
३- “सत्य को अपना ध्येय बनाये और महर्षि दयानंद को अपना आदर्श|” – स्वामी श्रद्धानंद
४- “महर्षि दयानंद इतनी बड़ी हस्ती हैं कि मैं उनके पाँवके जूते के फीते बाधने लायक भी नहीं |”- ए .ओ.ह्यूम
५- “स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करतेनथे।”– सर सैयद अहमद खां
६- “आदि शङ्कराचार्य के बाद बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक थे दयानंद |” – मदाम ब्लेवेट्स्की
७- “ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है-आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़।समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।”– फ्रेञ्च लेखक रिचर्ड
८- “गान्धी जी राष्ट्र-पिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।”– पट्टाभि सीतारमैया
९- “भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।”– सरदार पटेल
१०- “स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आर्यावर्त (भारत)आर्यावर्तीयों (भारतीयों) के लिए की घोषणा की।”
– एनी बेसेन्ट
११- “महर्षि दयानंद स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे |”
– वीर सावरकर
१२- “ऋषि दयानंद कि ज्ञानाग्नि विश्व के मुलभुत अक्षर तत्व का अद्भुत उदाहरण हैं |” -डा. वासुदेवशरण अग्रवाल
१३- “ऋषि दयानंद के द्वारा कि गई वेदों कि व्याख्या कि पद्धति बौधिकता,उपयोगिता, राष्ट्रीयता एव हिंदुत्व के परंपरागत आदेशो के अद्भुत योग का परिणाम हैं |”–एच. सी. ई. जैकेरियस
१४- “स्वामी दयानंद के राष्ट्र प्रेम के लिए उनके द्वारा उठाये गए कष्टों, उनकी हिम्मत, ब्रह्मचर्य जीवन और अन्य कई गुणों के कारण मुझको उनके प्रति आदर हैं | उनका जीवन हमारे लिए आदर्श बन जाता हैं | भारतीयों ने उनको विष पिलाया और वे भारत को अमृत पीला गए|”– सरदार पटेल
१५- “दयानंद दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक था, विश्व को प्रभु कि शरणों में लाने वाला योद्धा और मनुष्य व संस्थाओ का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्माओ के मार्ग से उपस्थित की जाने वाली बाधाओं का वीर विजेता था|”– योगी अरविन्द
१६- “मुझे स्वाधीनता संग्राम मे सर्वाधिक प्रेरणा महर्षि के ग्रंथो से मिली है |”– दादा भाई नौरो जी।
१७- “मैंने राष्ट्र, जाति और समाज की जो सेवा की है उसका श्रेय महर्षि दयानंद को जाता है|”– श्याम जी कृष्ण वर्मा
१८- स्वामी दयानन्द मेरे गुरु है मैने संसार मेँ केवल उन्ही को गुरु माना है वे मेरे धर्म के पिता है और आर्यसमाज मेरी धर्म की माता है, इन दोनो की गोदी मे मै पला हूँ, मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे गुरु ने मुझे स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया ।– पंजाब केसरी लाला लाजपत राय
१९- “राजकीय क्षेत्र मे अभूतपूर्व कार्य करने वाले महर्षि दयानंदमहान राष्ट्रनायक और क्रन्तिकारी महापुरुष थे |”
– लाल बहादुर शास्त्री
२०- सत्यार्थ प्रकाश का एक-एक पृष्ठ एक-एक हजार का हो जाय तब भी मै अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर खरीदूंगा ,उन्होने सत्यार्थ प्रकाश को चौदह नालों का तमंचा बताया।– पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी
२१- मै उस प्रचण्ड अग्नि को देख रहा हूँ जो संसार की समस्त बुराइयोँ को जलाती हुई आगे बढ़ रही है वह आर्यसमाज रुपी अग्नि जो स्वामी दयानन्द के हृदय से निकली और विश्व मे फैल गयी । – अमेरिकन पादरी एण्ड्यू जैक्सन
२२- आर्यसमाज दौडता रहेगा तो हिन्दू समाज चलता रहेगा। आर्यसमाज चलता रहेगा, तो हिन्दूसमाज बैठ जायेगा। आर्यसमाज बैठ जायेगा तो हिन्दू समाज सो जायेगा। और यदि आर्यसमाज सो गया तो हिन्दू समाज मर जायेगा।– पंडित मदन मोहन मालवीय
२३- सारे स्वतन्त्रता सेनानियोँ का एक मंदिर खडा किया जाय तो उसमेँ महर्षि दयानन्द मंदिर कीचोटी पर सबसे ऊपर होगा।
– श्रीमती एनी बेसेन्ट
२४- महर्षि दयानन्द इतने अच्छे और विद्वान आदमी थे कि प्रत्येक धर्म के अनुयायियो के लिए सम्मान के पात्र थे।
– सर सैयद अहमद खाँ
२५- अगर आर्यसमाज न होता तो भारत की क्या दशा हुई होती इसकी कल्पना करना भी भयावह है। आर्यसमाज का जिस समय काम शुरु हुआ था कांग्रेस का कहीँ पता ही नही था । स्वराज्य का प्रथम उद्धोष महर्षि दयानन्द ने ही किया था यह आर्यसमाज ही था जिसने भारतीय समाज की पटरी से उतरी गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने काकार्य किया। अगर आर्यसमाज न होता तो भारत-भारत न होता। – अटल बिहारी बाजपेयी
२६ – भारतवर्ष के महान राष्ट्रवादी निडर बौद्धिक, प्रभावशाली लेखक और इतिहासकार श्री सीताराम गोयल जी जो स्वयम प्रारंभिक दिनों में वामपंथी रहे। बाद में पुनः हिन्दू बने , के स्वामी दयानन्द पर विचार उनकी पुस्तक How I Became Hindu” by Sitaram Goel जी से ,
एक समय, गोयल जी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में कुछ टिप्पणी पढ़ने के बाद चौंक गए इसलिए उस समय वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि स्वामी दयानंद कुछ धार्मिक व्यक्तियों के लिए अनावश्यक रूप से निर्दयी थे , और उनकी सोच का तरीका गलत था, लेकिन सालों बाद जब उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया और श्री अरबिंदो की पुस्तक ‘Bankim-Tilak-Dayananda’ पढ़ी जिससे स्वामी दयानंद की दूरगामी सोच और उनके शब्दों और कर्मों के प्रभावों के मूल्य को समझते हुए, वह पश्चाताप करने और महर्षि के प्रति सम्मान व्यक्त करने में सफल रहे ।
श्री गोयल लिखते हैं कि ,
“मैंने पश्चाताप और श्रद्धा को प्रकट किया , उस निर्भय शेर के प्रति जिसने हिंदुओं के बीच वैदिक दृष्टि को बचाने और पुनर्जीवित करने की पूरी कोशिश करी। साथ ही साथ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय , सांस्कृतिक भूमिका की एक वास्तविक समझ और प्रशंसा आर्य समाज ने हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक महत्वपूर्ण मौके पर रखा था । ”
संकलन: देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।