पंडित दयानन्द शास्त्री
प्राचीन काल से ही खगोलीय घटनाओं का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ने के प्रसंग हमें मिलते रहे हैं। चाहे वह उल्कापात हो या चंद्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण, इन सभी खगोलीय घटनाओं के बारे में मानव मन सदा ही जिज्ञासु रहा है। हमारे प्राचीन मनीषियों ने ऐसी घटनाओं के बारे में काफी गहन अध्ययन और मनन किया। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढ़क जाता है, उसी घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की। कभी-कभी चाँद, सूरज और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है जिससे धरती पर साया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना सदा सर्वदा अमावस्या को ही होती है।
ग्रहण प्रकृ्ति का एक अद्भुत चमत्कार है। ज्योतिष के दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो अभूतपूर्व अनोखा, विचित्र ज्योतिष ज्ञान, ग्रह और उपग्रहों की गतिविधियाँ एवं उनका स्वरूप स्पष्ट करता है। सूर्य ग्रहण (सूर्योपराग) तब होता है, जब सूर्य आंशिक अथवा पूर्ण रूप से चन्द्रमा द्वारा आवृ्त (व्यवधान / बाधा) हो जाए। इस प्रकार के ग्रहण के लिए चन्दमा का पृथ्वी और सूर्य के बीच आना आवश्यक है। इससे पृ्थ्वी पर रहने वाले लोगों को सूर्य का आवृ्त भाग नहीं दिखाई देता है।वैदिक काल से पूर्व भी खगोलीय संरचना पर आधारित कलैन्डर बनाने की आवश्कता अनुभव की गई। सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण तथा उनकी पुनरावृत्ति की पूर्व सूचना ईसा से चार हजार पूर्व ही उपलब्ध थी। ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि के परिवार के पास यह ज्ञान उपलब्ध था। वेदांग ज्योतिष का महत्त्व हमारे वैदिक पूर्वजों के इस महान ज्ञान को प्रतिविम्बित करता है।ग्रह नक्षत्रों की दुनिया की यह घटना भारतीय मनीषियों को अत्यन्त प्राचीन काल से ज्ञात रही है। चिर प्राचीन काल में महर्षियों नें गणना कर दी थी। इस पर धार्मिक, वैदिक, वैचारिक, वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण के ज्ञान को देने वाले प्रथम आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाश काल अर्थात वैदिक काल से ग्रहण पर अध्ययन, मनन और परीक्षण होते चले आए हैं।
सूर्यग्रहण होने के लिए निम्न शर्ते पूरी होनी आवश्यक है
—-पूर्णिमा या अमावस्या होनी चाहिये।
—चन्दमा का रेखांश राहू या केतु के पास होना चाहिये।
—चन्द्रमा का अक्षांश शून्य के निकट होना चाहिए।
उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाने वाली रेखाओं को रेखांश कहा जाता है तथा भूमध्य रेखा के चारो वृ्ताकार में जाने वाली रेखाओं को अंक्षाश के नाम से जाना जाता है। सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। जब चन्द्रमा क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हों। चन्द्र और राहू या केतु के रेखांश बहुत निकट होने चाहिए। चन्द्र का अक्षांश लगभग शून्य होना चाहिये और यह तब होगा जब चंद्र रविमार्ग पर या रविमार्ग के निकट हों, सूर्य ग्रहण के दिन सूर्य और चन्द्र के कोणीय व्यास एक समान होते हैं। इस कारण चन्द सूर्य को केवल कुछ मिनट तक ही अपनी छाया में ले पाता है। सूर्य ग्रहण के समय जो क्षेत्र ढक जाता है उसे पूर्ण छाया क्षेत्र कहते हैं।
आगामी 20 मार्च 2015 (शुक्रवार)को पूर्ण खग्रास सूर्यग्रहण के रूप में घटित होने वाली खगोलीय घटना के बारे में सभी ओर चर्चा हो रही है। इस दिन विक्रम संवत 2071 के चैत्र मास की अमावस्या तिथि रहेगी..
20 मार्च 2015 (शुक्रवार)को पूर्ण खग्रास सूर्यग्रहण को ग्रहण का प्रारम्भ दोपहर एक बजकर 15 मिनट से होगा .इस ग्रहण की समाप्ति सायंकाल 05 बजकर 20 मिनट पर होगी..इस ग्रहण की कुल अवधि 04 घंटे और 09 मिनट रहेगी..यह पूर्ण खग्रास सूर्यग्रहण भारत के साथ साथ यूरोप,उत्तरी अफ्रीका,उत्तर पश्चिमी अफ्रीका,आइसलैंड,उत्तरी पूर्व एशिया में दिखाई देगा..
खगोलशास्त्रियों से लेकर पर्यावरणविदों तक और ज्योतिर्विदों से लेकर मीडिया तक सभी बड़ी उत्सुकता के साथ इस खगोलीय घटना की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं। सभी को यह जानने की उत्सुकता है कि इस पूर्ण सूर्यग्रहण का मनुष्यों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ???
सूर्यग्रहण का धार्मिक और शास्त्रीय महत्व ??
वैसे तो ईसा काल से भी पूर्व पूर्ण सूर्यग्रहण की कई घटनाएं हमें मिलती हैं, लेकिन रामायण और महाभारत में भी कई बार सूर्यग्रहण की घटनाओं का उल्लेख पाया जाता है। इन घटनाओं को देखकर एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि भले ही आधुनिक विज्ञान इसे माने या न माने, किंतु यह तो तय है कि जब-जब भी पूर्ण सूर्यग्रहण हुआ, तब-तब कोई न कोई बड़ी घटना जरूर हुई। पुराणों में वर्णन आता है कि सर्वप्रथम सूर्यग्रहण तब हुआ था, जब देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन हुआ था। रामायण के अरण्य कांड में बताया गया है कि जब सूर्यग्रहण हुआ तो खर और दूषण को भगवान राम ने मौत के घाट उतारा।वैसे तो सुर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण खगोलीय घटनाएं है लेकिन एक राहु केतु की कथा भी है कि वे सूर्य व चंद्रमा को ग्रास बना लेते है तब सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण होता है..
महाभारत में भी कई जगहों पर सूर्यग्रहण का प्रसंग आया है। महाभारत के सभापर्व में आया है कि जिस दिन पांडवों ने कौरवों के साथ जुए में अपना सबकुछ गंवा दिया, उस दिन सूर्यग्रहण हुआ था। उसके बाद 19 मार्च 1493 बीसी. को अर्थात महाभारत युद्ध के 14वें दिन जब सूर्यग्रहण हुआ तो उस दिन अर्जुन ने कौरव सेनापति जयद्रथ को मारा था। इसी तरह महाभारत के भीष्म पर्व और मौसल पर्व में भी कई स्थानों पर सूर्यग्रहण का उल्लेख आया है। महाभारत युद्ध के 36 सालों बाद जब पूर्ण सूर्यग्रहण गुजरात की द्वारका नगरी के ऊपर घटित हुआ तो समूची द्वारका समुद्र में डूब गई थी। ऐसा विश्वास है कि द्वारका के जलमग्न होने के बाद भगवान कृष्ण के प्रपौत्र अनिरुद्ध ने एक नई द्वारका बसाई, जिसे आज भी देखने के लिए पर्यटक वहां जाते हैं।
सूर्यग्रहण के समय क्या करें, क्या न करें ???
ग्रहण के समय मनुष्यों को क्या-क्या करना चाहिए, इसके विषय में निर्देश देते हुए पुराणों में कहा गया है कि ग्रहण के समय मनुष्यों को नदियों में स्नान करना चाहिए, दान पुण्य करना चाहिए व उपवास रखना चाहिए।
पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की संतान हैं। चंद्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।
हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।
ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्मण को दान देने का विधान है। कहीं-कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है। पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है। ग्रहण के बाद डोम को दान देने का अधिक माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये। बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना – ये सब कार्य वर्जित हैं। ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए। ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।
चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल होता है। श्रेष्ठ साधक उस समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके ‘ॐ नमो नारायणाय’ मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहणशुद्ध होने पर उस घृत को पी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति), कवित्वशक्ति तथा वाकसिद्धि प्राप्त कर लेता है।
देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है। फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और दंतहीन होता है। अतः सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर (12 घंटे) पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर ( 9 घंटे) पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालकक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं। ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, उसका शुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं होते। जबकि पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय, कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए।
—–ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान, मध्य के समय होम, देव-पूजन और श्राद्ध तथा अंत में सचैल(वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिए।
—स्त्रियाँ सिर धोये बिना भी स्नान कर सकती हैं।
—ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए।
—ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जररूतमंदों को वस्त्र और उनकी आवश्यक वस्तु दान करने से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।
—ग्रहण के समय कोई भी शुभ या नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।
—ग्रहण के समय सोने से रोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा, स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है।
—–गर्भवती महिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए।
भगवान वेदव्यास जी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- सामान्य दिन से चन्द्रग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होता है। यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस करोड़ गुना फलदायी होता है।
ग्रहण के समय गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम जप अवश्य करें, न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है
‘देवी भागवत’ में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये इसके अलावा ग्रहण के समय मनुष्यों को भगवान कृष्ण, भगवान सूर्य और शिवजी की उपासना करनी चाहिए। शास्त्रों में इन देवों की उपासना के लिए विशेष मंत्र भी दिए गए हैं। योगेश्वर कृष्ण की उपासना ‘श्रीकृष्ण शरणं मम’ इस मंत्र के द्वारा करनी चाहिए। भगवान सूर्य की उपासना गायत्री मंत्र के द्वारा और भगवान शिव की उपासना प्रसिद्ध महामृत्यंजय मंत्र के द्वारा करनी चाहिए। यह मंत्र इस प्रकार से है—–
ओम् त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनं, उर्वारुकमिव बंधनात्, मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।
सभी मंदिरों को प्राय: ग्रहण के समय बंद कर दिया जाता है और ग्रहण समाप्त होने के बाद विशेष पूजा-अर्चना के साथ खोला जाता है।
चिकित्सा शास्त्र क्या कहता है ???
चिकित्साशास्त्रियों के अनुसार सूर्यग्रहण के दौरान गर्भवती स्त्रियों को विशेष ध्यान रखना चाहिए। ग्रहणकाल में गर्भवती को सब्जी काटना, पापड़ भूनना जैसी क्रियाएं नहीं करनी चाहिएं। इसके अलावा गर्भवती को ग्रहणकाल में सूर्य की किरणों से बचना चाहिए। रजस्वला स्त्री को नदी में स्नान नहीं करना चाहिए। हां, अलग बाल्टी में पानी भरकर वह स्नान कर सकती है। ग्रहणकाल में मैथुन क्रिया भी न करने का परामर्श दिया गया है। गर्भवती स्त्रियों के लिए शास्त्रों में विशेष निर्देश दिए गए हैं। कहा गया है कि ग्रहण की अवधि में गर्भवती का ‘संतान गोपाल मंत्र’ का जाप करना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि इस मंत्र के जाप से गर्भवती को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। यह मंत्र इस प्रकार है :-
देवकीसुत गोविंद, वासुदेव जगत्पते,
देहि में तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं भजे।
देव देव जगन्नाथ गोत्रवृद्धिकरं प्रभो,
देहि में तनयं शीघ्रं, आयुष्मन्तं यशस्विनम्।।
इसका अर्थ है, जगत्पति हे भगवान कृष्ण! मैं आपकी ही शरण में हूं। हे जगन्नाथ, मुझे मेरे गोत्र की वृद्धि करने वाला और यशस्वी पुत्र प्रदान कीजिए।
ज्योतिर्विदों की राय में
पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री के अनुसार 20 मार्च 2015 को घटित हो रहा पूर्ण खग्रास सूर्यग्रहण मीन राशि तथा पूर्व भाद्रपद नक्षत्र में घटित हो जा हा है। इस कारण इन राशि वालों पर सूर्यग्रहण का विशेष कुप्रभाव झेलना पड़ सकता है। अत: मीन राशि वालों को ग्रहण के कुप्रभाव को कम करने के लिए निम्न उपाय करने चाहिए :-
1. मीन राशि वालों को सूर्यग्रहण वाले दिन चांदी के बर्तन में अन्न अथवा घी भरकर दान देना चाहिए।
2. मीन को छोड़कर अन्य राशि वालों को तांबे अथवा कांसे के बर्तन में अन्न या घी भरकर दान देना चाहिए।
3. सभी राशि वालों को ग्रहणकाल में गायत्री मंत्र की दो या अधिक मालाओं का जाप करना चाहिए। गायत्री के अलावा निन्म मंत्र से भी सूर्य की उपासना की जा सकती है :-
ओम् भास्कराय विद्महे, महातेजाय धीमहि। तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्।।
जानिए राशि के क्रम से इस खग्रास सूर्यग्रहण का प्रभाव
मेष राशि :—धनागमन होगा ।
वृष राशि :— प्रसिद्धि मिलेगी ।
मिथुन राशि :–अशुभ, अनिष्टकारक योग बनाते हैं।
कर्क राशि :– संतान पक्ष की और से शुभ समाचार मिलेंगे ।
सिंह राशि :— मुकदमेबाजी, क़ानूनी समस्या से छुटकारा संभव है।
कन्या राशि :– दाम्पत्य जीवम में मधुरता के अवसर प्राप्त होंगे, पारिवारिक सम्बन्ध सुधरेंगे ।
तुला राशि :— दुर्घटना और रोग के कारण भयभीत रहेंगे।
वृश्चिक राशि :— रुका हुआ धन मिलेगा, आय के नए स्त्रोत बनेंगे ।
धनु राशि :— पदोन्नति होंगी, पद-प्रतिष्ठा में वृद्धि संभावित।
मकर राशि :– रुका हुआ धन प्राप्ति की संभावना, आमदनी बढ़ेगी।
कुंभ राशि :—- अपव्यय, फिजूलखर्ची बढ़ेगी ।
मीन राशि :— शारीरिक कष्ट, रोग बढ़ोत्तरी की की संभावना।
अन्न व जल शुद्धि कैसे करें ????
शास्त्रों में कहा गया है कि ग्रहण के समय जल और अन्न का त्याग करने को कहा गया है। क्योंकि हमारे मनीषियों का मानना था कि ग्रहणकाल में वायुमंडल में कई प्रकार की विकृतियां आ जाती हैं। ये विकृतियां हमारे जल व अन्न को भी प्रभावित करती हैं। इसलिए जल और अन्न में कुशा अर्थात दूर्वा घास रखने का विधान है। क्योंकि दूर्वा घास में सभी प्रकार की विकृतियों को सोखने की क्षमता है। ग्रहण के बाद इन कुशाओं को जल व अन्न से निकालकर बाहर फेंक देना चाहिए। विक्रम साराभाई रिसर्च सेंटर के पर्यावरण विभाग द्वारा की गई एक रिसर्च में भी यह तथ्य निकलकर आया है कि ग्रहण के समय पानी की शुद्धता कम हो जाती है। इसीलिए ग्रहण से पहले जल में कुशा अथवा तुलसी पत्र रखने का परामर्श दिया जाता है।
कितनी प्रकार का होता है सूर्यग्रहण ???
1. पूर्ण सूर्य ग्रहण
पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृ्थ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है। इसके फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृ्थ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृ्थ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है।
2. आंशिक सूर्य ग्रहण
आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात चन्दमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है।
3. वलयाकार सूर्य ग्रहण
वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात चन्द्र सूर्य को इस प्रकार से ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहलाता है।
पूर्ण सूर्यग्रहण का क्षेत्र
पूर्ण सूर्यग्रहण को प्राय: पृथ्वी के बहुत कम हिस्से में ही देखा जाता है। दरअसल पूर्ण सूर्यग्रहण के वक्त चांद को सूर्य के आगे से पूरी तरह निकलने में लगभग दो घंटे का समय लगता है। और चांद सूर्य को पूरी तरह से केवल सात मिनट तक ही ढक पाता है। इस सात मिनट की अवधि में सूर्य की किरणें पृथ्वी के जिस हिस्से पर सीधी पड़ रही होती हैं, वहां पर अंधकार जैसी स्थिति हो जाती है। पृथ्वी के बाकी हिस्सों में यह पूर्ण सूर्यग्रहण पूरा दिखाई नहीं देता। चाहे ग्रहण का कोई आध्यात्मिक महत्त्व हो अथवा न हो किन्तु दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए यह अवसर किसी उत्सव से कम नहीं होता। क्यों कि ग्रहण ही वह समय होता है जब ब्राह्मंड में अनेकों विलक्षण एवं अद्भुत घटनाएं घटित होतीं हैं जिससे कि वैज्ञानिकों को नये नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मंडल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था। आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी। चन्द्रग्रहण तो अपने संपूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौडे क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं। संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही संभव है। यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाए तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूंजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाए तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी संभव हो सकती है।