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भारतीय संस्कृति

माता – पिता और गुरू की सेवा का महत्व

जैसे ही बच्चा माँ के गर्भ से बाहर आता है , तो उस शिशु के प्रति माता – पिता का लालन – पालन का हाथ और प्रेम पूर्वक ममता एवं ममत्व की भावना प्रकट होने शुरू हो जाती है । वैसे तो माता – पिता बच्चे के गर्भ के समय से ही बच्चे की देख रेख, डाक्टर से टीकाकरण व आवश्यक उपचार भी कराते हैं और परमात्मा से प्रार्थना करते रहते हैं कि हमारा बच्चा सकुशल , स्वस्थ रूप में हमारे घर में जन्म लेवे और हम माता . पिता बनें ।
जन्म के पश्चात उसके प्रति ममता और भी अधिक गहरी हो जाती है।
बच्चा के जन्म लेने के बाद माता बच्चे को प्यार – पूर्वक अपना दूध पिलाना आरंभ करती है। वह बच्चे की प्रथम अध्यापक होती है। उसे बैठना , बोलना , चलना , हंसना नहाना , शौच करना और खाना – पिलाना सिखाती है ।
बड़ा होने पर पिता बच्चे को ऊंगली पकड़ाकर चलना सिखाता है । पिता बच्चे का दूसरा गुरु होता है। उसके बड़ा होने पर पिता घर की वस्तुओं के नाम , पशु – पक्षीयों के नाम आदि बच्चों को बार – बार बताकर सिखाता रहता है। इस प्रकार माता-पिता से बच्चा बचपन में ही बहुत कुछ सीख जाता है। उस समय बच्चे की मैं (अपनत्व ) काफी छोटी होती है , वह केवल अपनी माता – पिता , घर को ही अपना समझता है । जब बच्चा स्कूल जाने लायक हो जाता है , तो पिता बच्चे को बस्ता समेत गोद में उठाकर स्कूल ले जाता है और अंगुली पकड़कर एक दूसरे गुरु आचार्य , शिक्षक , को सौंपता है कि आप बच्च को अच्छी शिक्षा देकर अच्छे संस्कार एवं विद्वान बनाना और उसकी देख – रेख भी रखना। उस समय बच्चे की ‘ माँ ‘ अपनत्व ‘ था और बढ़ जाती है । वह उस स्कूल , या गुरुकुल या शिक्षा संस्थान को अपना स्कूल उसमें पढ़ने वाले बच्चों को अपना गुरु भाई- बहन या क्लास फैलो तथा शिक्षा देने वाले शिक्षकों का अपना गुरु या शिक्षक स्वीकार करता है । इस प्रकार उसकी अपनत्व या ‘ मैं ‘ का क्षेत्र बढ़ता है ।
जब बच्चा बडा होता है तो माता-पिता फिर उसे बड़े , कालेज या विद्यालय में पढ़ने मा अध्ययन के लिए भेजते हैं , तो उस समय बच्चे का ज्ञान बढ़ता है , बुद्धि विकसित होती है , और उस शहर में जहां वह कॉलेज या विद्यालय है , उसे अपना समझता है , उस शहर को अपना समझता है , और उस बड़े विद्यालय को भी अपना समझकर गुरु – शिक्षक या साथ में पढ़ने वाले अन्य विद्यार्थियों या मित्रों को अपने परिवार का अंग मानना शुरू कर देती है । यहां तक कि यदि वह बच्चा / विद्यार्थी देश या विदेश जाकर , और आगे अध्ययन करता है , तो और अन्य लोगों को भी वह अपना कर ‘ मैं ‘ ‘अपनत्व ‘ की भावना को बढ़ा लेता है । इस प्रकार बच्चे में माता – पिता ‘विश्व कुंटुम्ब’ की भावना भी पैदा करने मे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । पढ़ाने- लिखाने के अलावा माता – पिता बच्चे को अच्छे संस्कारों से ओत – प्रोत करते हैं , उसका ज्ञान बढ़ाते हैं , और समाज तथा इस भव सागर दुनिया में रहना सिखाते हैं।
भाइयों व बहनो ! जो कुछ भी हमने लिखा है वह कार्य माता – पिता के लिए इतना आसान नहीं होता है । माता – पिता के सामने बच्चों को अच्छी शिक्षा व अच्छा स्वास्थ्य दिलाने में ऐडी से चोटी तक पसीना बहाना पड़ता है। अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए माता-पिता को काफी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आवश्यकता पड़ने पर माता – पिता आर्थिक स्थिति से जूझने के लिए कम्पनियों में ओवर टाइम करके या अपने आभूषण या जमीन गिरवी रखकर भी बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाने से नहीं चूकते हैं । माता पिता दोनों मिलकर अपनी संतान के निर्माण में अपने आप को मोमबत्ती की तरह जला कर समाप्त कर देते हैं। इसके पीछे उनकी पवित्र भावना केवल यही होती है कि चाहे हम समाप्त हो जाएं पर हमारे बेटे बेटियों के जीवन में संपन्नता, प्रसन्नता हो और प्रत्येक प्रकार का प्रकाश फैला रहे। ऐसी ही भावना हमारे गुरु की होती है। इसलिए इन तीनों की सेवा का विशेष महत्व हमारे जीवन में है।
क्रमशः

ऋषिराज नागर एडवोकेट

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