दिल्ली कांग्रेस में बगावती स्वर

सुरेश हिन्दुस्थानी

दिल्ली में जमीन झाड़ पराजय के बाद भी कांग्रेस पार्टी सबक लेने को तैयार दिखाई नहीं दे रही है। इस अप्रत्याशित पराजय को लेकर दिल्ली के पिछले और इस चुनाव में कांग्रेस के केन्द्र बिन्दु बने शीला दीक्षित और अजय माकन के बीच तो ऐसा लगने लगा है कि दोनों के बीच सीधी लड़ाई का सूत्रपात हो चुका है। जहां शीला दीक्षित ने खुले रूप में अजय माकन के चुनाव अभियान को नाकाफी बताया है, वहीं माकन भी सीधे शब्दों में कांग्रेस की शीला दीक्षित के पन्द्रह वर्षों के कार्यकाल को दोषी ठहरा रहे हैं। दोनों के बीच इस प्रकार की बयानबाजी होना, निसंदेह यह तो साबित करता ही है कि कांगे्रस की इस शर्मनाक हार को किसके मत्थे मढ़ा जाए। अजय माकन वर्तमान में अपने भविष्य को लेकर सशंकित दिखाई देने लगे हैं, मात्र इसी कारण उन्होंने शीला दीक्षित के कार्यकाल को दोषी बताकर यह बताने का प्रयास किया है कि मैं स्वयं तो कांग्रेस का बहुत ही काबिल नेता हूं, लेकिन शीला के कारण ही चुनाव हारे हैं। माकन ने तो यह भी कहा था कि शीला दीक्षित अगर चुनाव से पूर्व आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की बात नहीं करतीं तो इतनी बुरी स्थिति नहीं होती। उनको संभवत: यही लगा होगा कि शीला दीक्षित के ऐसा बोलने के कारण ही शीला के समर्थकों ने अघोषित रूप से अरविन्द केजरीवाल का समर्थन ही किया है।

कांग्रेस के एक धड़े में यह सुगबुगाहट भी होने लगी है कि शीला दीक्षित ने अंदरूनी तौर पर केजरीवाल से हाथ मिला लिया है, क्योंकि स्वयं शीला भी इस बात से डरी हुई हैं कि कहीं नई सरकार उनके खिलाफ चल रहे घोटालों के मामलों को उजागर करते हुए कार्रवाई न कर दे। कहा जाता है कि इसका मोर्चा स्वयं शीला दीक्षित ने अपने सांसद पुत्र संदीप दीक्षित को आगे करके संभाला। हम जानते हैं कि संदीप दीक्षित ने कांग्रेस के प्रचार अभियान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। इसीलिए ही कांग्रेस में ही इनकी भूमिका को लेकर कई प्रकार के सवाल उठने लगे हैं। सबसे खास बात तो यह है कि शीला और माकन में हुए इस झगड़े को लेकर सोनिया गांधी भी काफी चिन्तित हैं, उन्होंने साफ कहा है कि इस प्रकार की बयानबाजी नहीं करें।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद जब सभी राजनीतिक दलों में आत्म मंथन और आत्म विश्लेषण का दौर शुरु हो चुका है, तब देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस में हार पर रार मची हुई है। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस की कमान संभालने वाले अजय माकन के बीच जिस तरह की बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोप या कहें ‘वार युद्धÓ हो रहा है वह भी कम चौंकाने वाला नहीं है। कांग्रेस में मचे घमासान कांग्रेस पार्टी के भविष्य को बांचने के लिए काफी है। नि:संदेह अल्प समय की राजनीतिक यात्रा करने वाली आम आदमी पार्टी को दिल्ली चुनाव में मिला जनादेश सभी राजनीतिक दलों के लिए आंखें खोलने वाले हैं। दिल्ली चुनाव में देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल का पूरी तरह सफाया हो गया और भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। राजनैतिक विश्लेषक भाजपा की इस हार को मोदी की हार बता रहे हैं जो किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। दिल्ली चुनाव में भाजपा की हार पर पार्टी ने मंथन शुरु कर दिया है और पार्टी उन कारणों पर भी गौर करेगी जिनके चलते उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। ये कारण पार्टी के अंदरुनी और बाहरी दोनों ही हैं। भाजपा समेत सभी राजनैतिक दलों को सोचना होगा कि मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग कैसे आम आदमी पार्टी के पक्ष में चला गया। बहरहाल इस चुनाव में कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई उससे पहले कभी नहीं हुई।

दिल्ली विधानसभा कई महत्वपूर्ण प्रश्न भी छोड़ गया है। क्या देश में कांग्रेस मुक्त भारत की तस्वीर बन रही है? क्या आम आदमी पार्टी आने वाले समय में कांग्रेस के विकल्प के तौर पर उभरेगी? लोकसभा और दिल्ली विधानसभा के हाल ही में हुए चुनाव के बाद सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही उठाना पड़ा। दिल्ली चुनाव में तो वह गिनती से भी बाहर हो गई। जाहिर है लोकसभा और पिछले विधानसभा चुनाव और हाल के दिल्ली विधानसभा चुनावों से कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया। कांग्रेस के जो अंदरुनी हालात है, उनसे लगता भी नहीं है कि पार्टी में बदलाव और आत्ममंथन का दौर शुरु होगा। कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग लोकसभा चुनाव के बाद से ही शुरु हो गई थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद इस मांग ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। वंशवाद की लीक पर चलने वाली कांग्रेस के लिए मुश्किल यह है कि नेतृत्व परिवर्तन उसे गवारा नहीं है। चुनाव परिणाम के बाद निराशा के दौर में जी रहे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने कांगे्रस के मुख्यालय पर प्रियंका के समर्थन में या कहें राहुल के विरोध में प्रदर्शन भी किया, लेकिन सोनिया गांधी जबरदस्ती राहुल को ही कांगे्रस पर थोपने का मन बना चुकीं हैं।

लोकतंत्र की ताकत यही है कि मतदाता राजनीतिक दलों में भी लोकतंत्र की अपेक्षा रखता है। ऐसे में कांग्रेस किसी भी स्तर पर मतदाता के सोच के पैमाने पर फिट नहीं बैठती है। सच तो यह है कि कांग्रेस राज में मतदाता इस पार्टी को मजबूरी में ढो रहा था। देश में दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद जो राजनैतिक परिदृश्य सामने आया है, उससे यह साफ हो गया है कि इस देश में कांग्रेस बीते दिनों की बात हो गई है। हालांकि भाजपा ने लोकसभा चुनाव में ही कांग्रेस मुक्त भारत की घोषणा कर दी थी। देश के राजनैतिक परिदृश्य में मतदाताओं द्वारा सिरे से खारिज कर दी गई कांग्रेस का भविष्य क्या होगा यह सवाल भी लोगों के जेहन में है। हार के बाद कांग्रेसियों में हो रही जूतम-पैजार कब तक जारी रहेगी। अगर यही हालत रहे तो कांग्रेस से टूटने और उसके वजूद को खत्म होने में कोई नहीं रोक सकता है।

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