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अरविंद! समझ-बूझ बन चरना

दिल्ली में आम आदमी पार्टी या अरविंद केजरीवाल की जीत विलक्षण या अपूर्व है, इसमें ज़रा भी शक नहीं है। इसकी भविष्यवाणी हम काफी पहले ही कर चुके थे लेकिन इस जीत का सही अर्थ समझना बहुत जरुरी है। यह जीत वैसी ही है, जैसी कि 1984 में राजीव गांधी की जीत थी या 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत थी। इन दोनों जीतों और 2015 की अरविंद की जीत में क्या समानता है? समानता यह है कि ये तीनों जीतें वास्तव में उनकी नहीं हैं, जिनके नाम से वे जीती गई है। वह राजीव गांधी की जीत नहीं थी। वह शहीद इंदिरा गांधी की जीत थी। राजीव गांधी धक्के में प्रधानमंत्री बन गए। इसी प्रकार 2014 में सोनिया गांधी और मनमोहनसिंह ने नरेंद्र मोदी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करवा दिया था। मनमोहन सिंह भारत के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें कई माह पहले ही पता चल गया था कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? भारत की जनता ने नरेंद्र मोदी पर अपनी मोहर बाद में लगाई। उसने तो सोनिया-मनमोहन से कुर्सी खाली करवाई, जिसे मोदी ने भर दिया। मोदी के किसी नारे का जनता पर कोई असर नहीं था। हिंदुत्व, विकास, काले धन की वापसी वगैरह चुनाव-अभियान में वक्त काटने के साधन भर थे। लोग सिर्फ भ्रष्ट और अकर्मण्य शासकों से मुक्ति पाना चाहते थे।

मोदी ने नेता होने का शानदार अभिनय किया। नेता की कुर्सी में बैठने के बाद अब वह शुद्ध अभिनेता बन गए हैं। रंगमंच पर मंजे हुए डॉयलाग बोलकर और रंग-बिरंगे कीमती कपड़े पहनकर वे हमारे मुंबईया अभिनेताओं को भी मात कर रहे हैं। जैसे राजीव गांधी संयोगवश प्रधानमंत्री बन गए थे, वैसे ही नरेंद्र मोदी संयोगवश गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए थे। केशूभाई को हटाकर इन्हें हेलिकॉप्टर से उतारा गया था। यह संयोग आगे बढ़ा और वे प्रधानमंत्री बन गए। इसी गति को अरविंद केजरीवाल प्राप्त हो रहे हैं। वे कोई नेता नहीं हैं। आंदोलनकारी होने का भी उनका कोई लंबा अनुभव नहीं है। उनके पास अपनी कोई गहरी राजनीतिक दूरदृष्टि नहीं है। यह बात पिछले साल उनके 49 दिन के मुख्यमंत्री-काल ने सिद्ध कर दी थी। सो इस चुनाव में भी उन्हें मुश्किल से 10-15 सीटें मिलतीं लेकिन जेटली की केटली में मोदी और अमित शाह बंद हो गए। केटली में भांप बहुत ज्यादा भर गई थी। इस बंद केटली का ढक्कन खोलने के लिए किरण बेदी नामक संडासी लाई गई। ढक्कन तो खुला नहीं और केटली फट गई। दिल्ली की भाजपा लहू-लुहान हो गई। अब केटली की सारी चाय की चुस्कियां अरविंद केजरीवाल ले रहे हैं। यह मोदी की चाय है, बच्चू! ज़रा संभलकर पीना। अगर केजरीवाल यह समझ बैठे कि दिल्ली की जनता ने उन्हें वोट देकर अपना नेता बना दिया है और वे सचमुच बड़े नेता बन गए हैं तो उनका पतन राजीव गांधी और मोदी से भी पहले ही शुरु हो जाएगा। राजीव के अभी दो साल भी नहीं बीते थे कि गली-गली में शोर होने लगा था और मोदी के अभी नौ महिने भी पूरे नहीं हुए कि लोगों का मोह-भंग शुरु हो गया है। इस बार अरविंद जरा सावधान दिखाई पड़ रहे हैं। जरुरी यह है कि वे राजीव और मोदी की नकल न करें। अपनी जीत का सही अर्थ समझें और फूंक-फूंककर कदम रखें। हिरना, समझ-बूझ बन चरना।

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