गीता मेरे गीतों में ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद) गीत – 21
धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि
संसार धर्म से चल रहा धर्म ही सबका मूल।
धर्म युक्त जीवन यदि चुभे न कोई शूल।।
जब धर्म की हो कमी अधर्म बहुत बढ़ जाय ।
त्राहिमाम जन कर उठें , पाप – ताप बढ़ जाय।।
जीव – जीव अशांत हो और जीवन हो बेचैन।
दिन काटना मुश्किल रहे , काटे कटे नहीं रैन।।
दैहिक – दैविक दुःख बढ़ें , और भौतिक संताप।
अस्त -व्यस्त संसार हो , बढ़े धरती पर पाप।।
हर व्यक्ति निज धर्म को कहने लगे बकवास।
आशा छोड़े हाथ को , जन – जन होए निराश ।।
उदासियां डसने लगें , और राजा होवे नीच।
असंतोष हो देश में, पाप सभी के बीच।।
जीवन की ज्योति बुझे , मिटे सत्य व्यवहार।
अनाचार सर्वत्र हो , और बढ़े दुष्ट व्यवहार।।
राजा अपने धर्म से जब – जब होता दूर।
पाप बढ़ें संसार में और मिटे धर्म का नूर।।
अर्जुन ! जब ऐसे बनें , इस धरती के हालात।
मेरे लिए ये ही उचित, करूं ठीक हालात।।
मोक्ष पद को छोड़ कर , आता मृत्यु लोक।
दु:खित दलित और दीन के हरता सारे शोक।।
‘दिव्य – धर्म’ मेरा यही , हर पल रखता याद।
जग की भलाई के लिए, मैं जन्मूं बारम्बार ।।
जग की भलाई के लिए, तू कर शत्रु संहार।
अर्जुन ! अपने धर्म को , बिना हिचक स्वीकार।।
निज सुख को तू त्याग दे, मोह से हो जा दूर।
जन्म सफल अपना बना , भय और भ्रम कर दूर ।।
सज्जन का सम्मान कर और दुष्टों का संहार।
इसीलिए मैं जन्मता , कर मेरा मत स्वीकार ।।
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत