महर्षि दयानंद नीति और धर्म के उपासक थे। राजधर्म में इसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कई स्थलों पर वेद की तत्सम्बन्धी व्यवस्थाओं का उल्लेख किया है। वेद भाष्य करते हुए उन्होंने लिखा है-(राजा)….धर्म से राज्य का पालन करो। (यजु. भा. 16-26) राजा भी अधर्म से प्रजाओं को निवृत्त कर धर्म में प्रवृत्त करें और आप भी वैसा होवे। (यजु. भा. 30-3)
तू (राजा) भी धार्मिक विद्वानों के उपदेशों के अनुकूल होने से राजधर्म का सेवन करता रह। (ऋ. भा. 3-12-16)
जो राजा धर्मयुक्त व्यवहार से प्रजाओं का पालन करे, वही राज्य करने जो राजा धर्मयुक्त व्यवहार से प्रजाओं का पालन करे, वही राज्य करने योग्य होता है। (ऋ. भा. 5-3-5)
इस प्रकार महर्षि दयानन्द धर्मनिष्ठ राजनीति को राजकार्यों के संचालन के लिए उपयुक्त और उचित मानते थे। वेद की आज्ञा भी ऐसी ही है।
भारतीय संविधान को व्यवहार में हमारे राजनीतिज्ञों ने चाहे जिस प्रकार लागू किया हो, परन्तु हमारे संविधान निर्माताओं का दृष्टिकोण देश में धर्मनिष्ठ राजनीति को स्थापित कर मानव विकास की सभी सम्भावनाओं को शासन की नीतियों का अंग बनाना था। कांग्रेस और कांग्रेसियों के प्रेरणा स्रोत रहे महात्मा गाँधी ने भी कहा था-
‘‘मैं देश की आँखों में धूल नहीं झोंकूँगा। मेरे निकट धर्मविहीन राजनीति कोई वस्तु नही है। धर्म के मायने बहमों और गतानुगतिकत्व का धर्म नहीं, द्वेष करने वाला और लडऩे वाला धर्म (मजहब-सम्प्रदाय) नही, अपितु विश्वव्यापी सहिष्णुता (मानवता) का धर्म है। नीति शून्य राजनीति सर्वथात्याज्य है।’’
महात्मा गाँधी जिसे ‘विश्वव्यापी सहिष्णुता’ का धर्म कहते हैं, महर्षि उसे मानव का स्वाभाविक धर्म मानते हैं। इसे हमारे संविधान में भी स्थान दिया गया है। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में महर्षि के चिन्तन का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। यद्यपि भारतीय संविधान में इन नीति निर्देशक तत्वों को आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है। परन्तु किसी भी अच्छी या बुरी चीज को यदि आप कहीं से लेना चाहते हैं तो उसके लिए यह आवश्यक है कि आप अपने मानस में उसका पूर्ण चिन्तन कर रहे हैं, या कर चुके हैं। कहने का अभिप्राय है कि आपका अपने मानस में उठने वाला चिन्तन ही आपको अन्तत: किसी चीज को अपनाने के लिए प्रेरित करता है। वह चिन्तन भी किसी ना किसी के चिन्तन से प्रेरित अवश्य होता है। अत: ये नीति निर्देशक तत्व चाहे आयरलैण्ड के संविधान से ही लिए गए हैं, परन्तु इनके पीछे हमारे संविधान निर्माताओं को प्रेरित करने वाला तत्व महर्षि का चिन्तन ही था।
फि र भी हमने इन नीति-निर्देशक तत्वों को उधारी मनीषा माना है। क्योंकि आयरलैण्ड की सरकार इन्हें अपने नीति निर्देशक तत्व मान सकती है, वह यह भी मान सकती है कि इन नीति निर्देशक तत्वों को न्यायालय से अनिवार्यत: लागू नही कराया जा सकता,परन्तु हमारी मान्यता इसके विपरीत है। हमारा मानना है कि नीति निर्देशक तत्व सरकार की नीतियों की अनिवार्य घोषणा हैं। वह अपनी नीतियों से यदि इतर कार्य करने का प्रयास करती है तो इन निर्देशक तत्वों को लागू कराने के लिए नागरिकों को न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का भी अधिकार होना चाहिए।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 38 व्यवस्था करता है कि राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्घि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनायेगा। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39 प्राविधानित करता है कि राज्य लोककल्याण के लिए तथा न्याय की प्राप्ति के लिए अपनी नीति का इस प्रकार निर्देशन करेगा :-
(1) राज्य सभी नागरिकों के लिए रोजगार के साधन जुटाने का प्रयास करेगा।
(2) राज्य की आर्थिक नीतियाँ ऐसी होनी चाहियें जिससे कि देश के भौतिक साधनों का उचित बँटवारा हो तथा अधिक से अधिक लोगों के हित में उनका उपयोग हो सके।
(3) स्त्री और पुरूषों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।
(4) बच्चों और युवकों का आर्थिक व नैतिक शोषण न हो।
(5) राज्य का कत्र्तव्य है कि वह देखे कि पुरूषों को, महिलाओं और बच्चों को आर्थिक विवशता के कारण ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु व शक्ति के अनुकूल ना हो।
संविधान के ये अनुच्छेद लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए हैं। इसके बाद अन्य अनुच्छेदों का उल्लेख हम बाद में करेंगे। पहले इन दोनों अनुच्छेदों पर महर्षि दयानन्द का चिन्तन क्या था? इस पर विचार करते हैं।
राज्य का प्रमुख कार्य-प्रजापालन : महर्षि दयानन्द जी महाराज ने प्रजापालन को राजा का प्रमुख कार्य माना है। डॉ. लाल साहबसिंह के अनुसार ‘‘दयानन्द ने राज्य के कार्यों में रक्षणीय की रक्षा, मारने योग्य को मारना, शत्रुओं को अग्निवत भस्म करना, प्रजादि को धनों से आनन्दित करना, श्रेष्ठों का सम्मान और दुष्टों का तिरस्कार करना, धर्मपालन एवम् अधर्म का नाश करना, परस्पर प्रीति, एवम् उपकार करना, अविद्या और अन्याय का नाश करना, वन सम्पदा, तथा पशु पक्षियों करना, अविद्या और अन्याय का नाश करना, राज्य की वृद्घि, चक्रवर्ती राज्य का पालन तथा शुभ कर्मों का संरक्षण, राज्य की वृद्घि, एवम् अशुभ कर्मों का नाश करना आदि का यत्र तत्र उल्लेख अपने वेद भाष्य में किया है।’’
महर्षि दयानन्द धर्म के दो सोपानों अर्थात अभ्युदय और नि:श्रेयस को राजधर्म का आधार मानते थे। वह राज्य के लिए उसका धर्म यही मानते थे कि उसकी नीतियाँ ऐसी हों कि जिससे लोगों का अभ्युदय हो अर्थात् भौतिक विकास हो, शारीरिक विकास हो। साथ ही नि:श्रेयस की प्राप्ति हो। इसका अभिप्राय है कि लोगों का पारलौकिक अर्थात् मानसिक और आध्यात्मिक विकास भी हो। महर्षि इसी प्रकार की नीतियों को धर्मनिष्ठ राजनीति मानते थे। महर्षि के इसी चिन्तन पर महात्मा गाँधी ने अपनी सहमति प्रकट की। महात्मा गाँधी ‘सम्प्रदाय’ अर्थात् मजहब को धर्म नही मानते, वह भी धर्म उसी को मानते है जो विश्वव्यापी सहिष्णुता का समर्थक हो।
महर्षि दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोक को उद्वृत किया है-
ब्राहमं प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि।
सर्वस्यास्य यथान्यायं कत्र्तव्यं परिरक्षणम्।।
‘‘जैसा परम विद्वान ब्राह्मण होता है, वैसा विद्वान सुशिक्षित होकर क्षत्रिय को योग्य है कि इस सब राज्य की रक्षा न्याय से यथावत करे।’’
इसका अभिप्राय है कि राज्य का मुख्य कार्य समाज में रक्षा और न्याय की व्यवस्था करते हुए शान्ति और विकास के सभी उपायों को खोजना और उन्हें कार्यरूप में परिणत करना है। राज्य के इसी स्वरूप को लोक कल्याणकारी शासन कहा गया है। जब महर्षि राजा से यह अपेक्षा करते हैं कि उसका व्यवहार अपनी प्रजा के प्रति पितृवत हो, अर्थात् अपनी प्रजा को वह अपने पुत्र के समान प्यार और स्नेह करता हो, तो इसका अभिप्राय ये है कि राजा अपनी प्रजा के कल्याण हेतु सदा प्रयत्नशील रहे।
राजा का न्याय इसी में निहित है कि योग्यता के अनुसार वह सभी लोगों की आजीविका का प्रबन्ध करे, भय, भूख, भ्रष्टाचार को मिटाये और लोगों को समान कार्य के लिए समान वेतन देने का विधान बनाये। उन्होंने अपने समय में नारियों की दशा को सुधारने का भी भरसक प्रयास किया। महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने शिक्षा प्राप्ति के अपने मौलिक अधिकार से वंचित नारी जाति को वेद के पढऩे का अधिकार दिलवाया। यहीं से नारी को समानता का अधिकार मिला। नारी जाति पर ही नही अपितु मानवता पर भी महर्षि का यह महान उपकार था। आज की शिक्षित नारी को इसके लिए महर्षि का विशेष ऋणी होना चाहिए। महर्षि दयानन्द ने‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है: ‘‘जो लोग स्त्रियों के वेद पढऩे का निषेध करते हों, तो वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता, और निर्बुद्घिता का प्रभाव है।’’
जब हम संविधान के उपरोक्त दोनों अनुच्छेदों का अनुशीलन करते हैं तो विदित होता है कि इनमें राजा को अर्थात् राज्य को एक पिता के समान अपनी प्रजा से वत्र्तने का दिशा निर्देश दिया गया है। राज्य की नीतियाँ तभी लोक कल्याणकारी हो सकती हैं जबकि उनका आदर्श राज्य पितृत्व से भरा हृदय हो। वेदों से लेकर आर्य परम्परा के किसी भी ग्रन्थ में राजा को निरंकुश और अत्याचारी होना नही बताया गया है, अपितु राजा के इसी स्वरूप की प्रशस्ति की गयी है। यह सर्वविदित तथ्य है कि वेदों के अनुसार चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित कर सारे विश्व को कभी भारत ने मर्यादित और अनुशासित करने हेतु विश्व का नेतृत्व किया है। उन्हीं, टूटी-फ ूटी स्मृतियों के शिला लेखों पर आयरलैण्ड ने अपने संविधान में जिन नीति निर्देशक तत्वों को स्थापित किया है, उन्हें यदि भारत ने अपना लिया है, तो इसके भी मूल में उसकी अपनी मनीषा है। इस उधारी मनीषा का भारतीयकरण नही किया गया। यदि इन्हें वेदों के प्राविधानों के अनुसार तथा मनुस्मृति आदि स्मृतियों के अनुसार परिष्कृत कर लिया जाता तो कहीं अधिक श्रेयस्कर रहता। ये प्राविधान वास्तव में तो राज्य की धर्मनिष्ठ राजनीति के प्रति निष्ठा की घोषणा हैं, परन्तु यह शब्द इसमें डाला नही गया है। यदि इनके साथ शीर्षक में ही यह स्पष्ट कर दिया जाता कि ‘राज्य की धर्मनिष्ठ राजनीति के प्रति निष्ठा की घोषणा’ तो महर्षि का मन्तव्य पूर्णत: स्पष्ट हो जाता। इसका परिणाम ये होता कि व्यवहार में हमने भारतीय राजनीतिज्ञों को जिस प्रकार की अधर्म और अनीति की राजनीति को करते हुए देखा है वह कदापि नही होती।
संविधान का अनुच्छेद 39 (क) समान न्याय और नि:शुल्क कानूनी की व्यवस्था करता है। महर्षि दयानंद याज्ञवल्क्य (1/334) की इस व्यवस्था को मानते थे कि ‘‘राजा को अपनी प्रजा तथा सेवकों के साथ पितृवत व्यवहार करना चाहिए।’’ राजा को अपनी प्रजा के आमोद प्रमोद में उसी प्रकार आनंदित होना चाहिए जिस प्रकार एक पिता अपनी संतान के आमोद-प्रमोद में आनंदित होता है।
आज के शासक वर्ग को महर्षि दयानंद के इस चिंतन को अपना राजधर्म घोषित करना चाहिए। धर्मनिष्ठ राजनीति ही देश की नैया पार करा सकती है। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा तो कोरी बकवास है।