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मोदी के मौन भंग का अर्थ

नरेंद्र मोदी अब नरेंद्र मोदी बन गए हैं। उन्होंने मनमोहन—मुद्रा त्याग दी। मेरी बधाई! एक तो वे ईसाइयों के धार्मिक समारोह में स्वयं गए और फिर वहां जाकर उन्होंने देश के सभी धर्मों के घावों पर मरहम लगा दिया। वे बोले और भारत के प्रधानमंत्री की तरह बोले। किसी संगठन के मुखिया या कार्यकर्ता की तरह नहीं। भारत से बड़ा कोई भी संगठन नहीं है। भारत से ऊंची कोई भी विचारधारा नहीं है। मोदी ने दो टूक शब्दों में कहा कि उनकी सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है। सबको बराबरी की नजर से देखती है। हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने की पूरी आजादी है। स्वेच्छा से कोई व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन करना चाहे तो उसे वह आजादी भी है लेकिन धर्म के नाम पर उनकी सरकार हिंसा को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करेगी।

मोदी ने यह बात क्यों कही? इसलिए कही कि आजकल कई गिरजाघरों पर बराबर हमले हो रहे हैं, भाजपा के कई सांसद एक से एक उटपटांग बयान दे देते हैं और ‘घर वापसी’ के नाम पर विचित्र अभियान चल रहे हैं। मोदी का मौन उनकी सरकार की छवि को धूमिल करता जा रहा था। हमारे सेकुलरिस्ट भाईयों के आनंद का यह एक नया कारण तैयार हो गया था। उनकी राय यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के एक स्वयंसेवक रहने के कारण मोदी इन सब बातों का तहे दिल से समर्थन करते हैं। इसीलिए वे चुप रहते हैं। जो हो रहा है, उसे होने दे रहे हैं लेकिन यह सोच गलत है। सर संघचालक मोहन भागवत ने इधर एक बार नहीं, कई बार जोरों से कहा है कि संघ सब धर्मों का आदर करता है। उन्होंने धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा और तोड़—फोड़ को किसी प्रकार भी जायज नहीं ठहराया है। उन्होंने बार-बार धार्मिक सहिष्णुता और उदारता को हिंदुत्व का प्राण—तत्व बताया है। इसी आधार पर मैं कहता हूं कि अब मोदी और संघ को एक—दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश निरर्थक है।

यदि हम भारत को एक सबल और संपन्न राष्ट्र बनते हुए देखना चाहते हैं तो हमें ऐसा माहौल पैदा करना होगा कि किसी भी नागरिक को उसके धर्म, उसकी जाति, उसकी भाषा, उसके प्रांत की वजह से असुरक्षा महसूस न हो। मोदी के मौन—भंग का अभिप्राय यही है।

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