अवधेश कुमार
ज्ञानवापी मामले में प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कहीं नहीं है, फिर भी इस विवाद को लेकर जो भी चर्चा होती है, उससे संघ का नाम जोड़ा जाता है। उदयपुर और अमरावती में जो हत्याएं हुईं, उन्हें भी विरोधियों ने संघ के हिंदुत्व की प्रतिक्रिया बताया। ऐसे ही माहौल में हाल में राजस्थान के झुंझनू में संघ के प्रांत प्रचारकों की बैठक हुई। माना जा रहा था कि संघ इन घटनाओं को लेकर लग रहे आरोपों पर आक्रामक प्रतिक्रिया देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संघ के बयान में संयम और संतुलन दिखा। 2025 में संघ के 100 वर्ष पूरे हो जाएंगे। प्रांत प्रचारकों की बैठक में इस शताब्दी वर्ष को लेकर कुछ लक्ष्य और कार्यक्रम तय किए गए। इस बारे में अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने जो जानकारियां दीं, उनमें दो बातें खास हैं:
पहली, इस वर्ष संघ शिक्षा वर्गों में 40 वर्ष से कम आयु के 18 हजार 981 और 40 वर्ष से अधिक के 2 हजार 925 लोगों ने प्रशिक्षण लिया। कुल मिलाकर पूरे देश के प्रथम, द्वितीय और तृतीय वर्ष के 101 वर्गों में यह संख्या 21 हजार 906 रही।
दूसरी, देश में अभी आरएसएस की 56 हजार 824 शाखाएं हैं, जिन्हें 2025 तक एक लाख तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है।
संघ ने इस तरह से अपनी बढ़ती ताकत का संदेश दे दिया। उसने शताब्दी वर्ष तक 1 लाख शाखाएं खोलने का लक्ष्य तय किया है तो 2024 खत्म होने तक वह इसके करीब जरूर पहुंच जाएगा। इससे संगठन की ताकत और बढ़ेगी। प्रांत प्रचारकों की बैठक के बाद बताया गया कि कुटुंब प्रबोधन और कुरीतियां खत्म करने के लिए सामाजिक संस्थाओं, संतों और मठ-मंदिरों के सहयोग से स्वयंसेवक कार्य कर रहे हैं। इससे पहले मार्च में संघ के प्रतिनिधि सभा की बैठक हुई थी। उसमें स्वरोजगार और स्वावलंबन की बात की गई थी। तब कुछ हजार कार्यकर्ताओं को स्वावलंबन की शिक्षा भी दी गई। लेकिन संघ बहुत बड़ा संगठन है। उसे समाज के हर क्षेत्र में भूमिका निभानी चाहिए। इनमें समाज सुधार, रोजगार, पर्यावरण से लेकर जल प्रबंधन जैसे क्षेत्र शामिल किए जा सकते हैं।
संघ के सामने विचारधारा और लक्ष्य की दृष्टि से मूल चुनौतियां भी बढ़ी हैं। 1925 में जब विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने इसकी स्थापना की, तब मुस्लिम संगठनों और नेताओं की भूमिका के कारण हिंदुओं में कई तरह की चिंता व्याप्त थी। डॉ. हेडगेवार मुस्लिम कट्टरवाद के प्रति कांग्रेस की उदासीनता से निराश थे। संघ तब धर्म के आधार पर देश का बंटवारा नहीं रोक सका। लेकिन हिंदुओं और सिखों की सुरक्षा, उन्हें पाकिस्तान से सुरक्षित वापस लाने और शरणार्थियों के पुनर्वसन में उसने भूमिका अदा की। इसी बीच, 29 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी, जिसके कारण संघ पर प्रतिबंध लग गया। अगर ऐसा ना होता तो संघ की भूमिका कहीं व्यापक होती। इसके बावजूद प्रतिबंध हटने के बाद से संघ का काफी विस्तार हुआ है। आज उससे जुड़ी बीजेपी देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत है और कोई दूसरी पार्टी उससे बराबरी का मुकाबला तक करने की स्थिति में नहीं है। इसके बावजूद संघ के सामने कुछ चुनौतियां बनी हुई हैं:
पहली, मुस्लिम समाज के एक वर्ग के अंदर मजहबी कट्टरता तेजी से बढ़ रही है।
दूसरी, मुस्लिम राजनीतिक-गैर राजनीतिक और मजहबी नेताओं के एक समूह ने संघ, बीजेपी और आम हिंदुओं का भय पैदा किया है, इसलिए संभव है कि कुछ मुसलमानों में अलगाववाद की भावना भी बढ़ी हो।
तीसरी, अंतरराष्ट्रीय जिहादी विचारधारा से प्रभावित हिंसा की झलक बिहार की राजधानी पटना और फुलवारी शरीफ में पीएफआई द्वारा 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बनाने के लक्ष्य से मिली है। उदयपुर और अमरावती की हत्याएं भी इसकी गवाही देती हैं। नूपुर शर्मा के समर्थकों को जान से मारने की धमकियां भी तालिबानी सोच को दिखाती है।
चौथी, नूपुर शर्मा मामले में बीजेपी की चुप्पी, प्रवक्ताओं के डिबेट से दूर रहने के कारण गैर-मुस्लिमों विशेषकर हिंदुओं के अंदर डर पैदा हुआ है।
इससे देश का माहौल बिगड़ने के संकेत मिल रहे हैं। आगे हिंसा और उग्र प्रदर्शन बढ़ सकते हैं। संघ सबसे बड़ा हिंदू संगठन होने के साथ केंद्र में सत्तारूढ़ दल की मातृ संस्था है। इसलिए उसे इस अजेंडा पर काम करना होगा। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि देश को अशांत और अस्थिर करने के साथ मोदी सरकार, बीजेपी और संघ को कमजोर और बदनाम करने की रणनीति भी इसमें शामिल है। संघ का लक्ष्य देश की एकता कायम रखने के साथ अखंड भारत है। इसलिए वह नहीं चाहेगा कि अलगाववादी मजहबी ताकतें मजबूत हों। ऐसे में उसे प्राथमिकता के आधार पर चार काम करने चाहिए:
पहला, हिंदू समाज के अंदर भय और गुस्सा नकारात्मक मोड़ न ले, आरएसएस इसकी कोशिश करे।
दूसरा, संघ ऐसी कार्ययोजना लेकर आए, जिससे यह भय खत्म हो और उनका आत्मविश्वास बढ़े।
तीसरा, समाज में जागरूकता लाने के लिए उसे उदारवादी मुस्लिम चेहरों का सदुपयोग करना होगा।
चौथा, स्वयंसेवकों को समय-समय पर अनुशासित और गरिमामय तरीके से सड़कों पर उतरकर अहिंसक प्रदर्शन और धरना देना चाहिए। इससे हिंसक तत्वों के अंदर व्यापक जनविरोध का डर पैदा होगा और सरकार पर सक्रिय कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा।
साफ है कि संघ आज अपने शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ रहा है तो उसके सामने अपनी विरासत को संजोने के साथ आने वाले वक्त के लिए खुद को तैयार करने की चुनौती है। साथ ही, देश और समाज जिन मुश्किलों का सामना कर रहा है, उन्हें दूर करने के लिए भी उसे सक्रिय भूमिका अदा करनी होगी।