अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में सल्तनत साम्राज्य पर्याप्त विस्तार ले गया था, वह तुगलक काल में सिमटकर छोटा गया। अफगानिस्तान और आज के पाकिस्तान का बहुत बड़ा भाग, जम्मू कश्मीर, राजस्थान का बहुत बड़ा भाग, उत्तराखण्ड, नेपाल, भूटान, सिक्किम, बंगाल और सारा पूर्वाेत्तर भारत, उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र और कर्नाटक महाराष्ट्र से आगे का सारा भारत स्वतंत्र था या हो गया था। अब तक अधिकांश भारत के स्वतंत्र होते हुए भी दिल्ली के सुल्तानों को हिंदुस्तान का बादशाह हमारा इतिहास घोषित करता है। इतिहास की यह घोषणा सत्य, तथ्य और कथ्य के विपरीत है।
फीरोजशाह तुगलक बन गया सुल्तान
मुहम्मद-बिन-तुगलक की मृत्यु 20 मार्च 1351 ई. में हुई। उसके पश्चात दिल्ली के राज्य सिंहासन पर फीरोजशाह तुगलक बैठा। यह 22 मार्च की घटना है। निजामुद्दीन अहमद ने यह तिथि 23 मार्च की अर्थात एक दिन पश्चात की दी है। फीरोजशाह के शासनकाल को मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल की अपेक्षा दुर्बल माना गया है।
‘‘मुहम्मद-बिन-तुगलक के अराजकतापूर्ण शासन में जहां बड़े बड़े हिंदू राजा अपने को स्वतंत्र करने में लगे थे, वहीं फीरोज के दुर्बल शासन में छोटे-छोटे हिंदू सामंत और जागीरदारों ने भी लाभ उठाया और स्वयं को शक्तिशाली बनाकर तुगलक सुल्तानों के लिए सिर दर्द बन बैठे। इसमें इटावा के चौहान रूहेलखण्ड के कटेहरिया, अवध के छोटे-छोटे सामंत और तिरहुत के हिंदू आदि प्रमुख थे।’’
(संदर्भ: सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध)
वास्तव में कभी कभी प्रचलित इतिहास को पढक़र ऐसा लगता है कि हमारे हिंदू पूर्वजों ने अंतत: इतने दीर्घ काल तक स्वतंत्रता संघर्ष के लिए ऊर्जा प्रेरणा और प्रोत्साहन कहां से प्राप्त किये? उन्होंने लंबा संघर्ष करने की अपेक्षा शीघ्र ही पराजय क्यों न स्वीकार कर ली? इन प्रश्नों पर हम पूर्व में भी प्रकाश डालते आये हैं। यहां मात्र इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि स्वतंत्रता आंदोलन में स्थानीय या क्षेत्रीय या प्रांतीय लोगों को अपने-अपने स्तर पर मिलने वाली सफलता किसी अन्य क्षेत्र या प्रांत या राज्य के लोगों को प्रेरित, प्रोत्साहित और ऊर्जान्वित करती थी, जैसे दक्षिण में विजयनगर राज्य की स्थापना हुई तो उसने अपने अन्य पड़ोसियों को भी स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया। राजस्थान में राणा हमीर ने मेवाड़ को स्वतंत्र कराया और अपने राज्य का विस्तार किया तो राणा के इस कार्य ने अन्य राजाओं को भी प्रेरित किया। जिससे एक भाव पूरे देश में बन गया कि सल्तनत की दासता सदा के लिए नही हो सकती, प्रयास करेंगे तो इसे मिटाया भी जा सकता है। दूसरे समकालीन विश्व इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो चारों ओर उस समय साम्राज्य विस्तार के लिए दूसरों की स्वतंत्रता के अपहरण करने की धूम मची थी। यद्यपि भारतीयों ने दूसरों की स्वतंत्रता का अपहरण कर जनसंहार करना सर्वथा त्याज्य ही माना, परंतु सैकड़ों वर्ष से चारों ओर स्वतंत्रता के अपहरण की रक्षा के लिए तो प्रेरित होते ही जा रहे थे, इसलिए लड़ाकू भी होते जा रहे थे। यद्यपि हमारा मानना है कि भारतीय लोग प्राचीन काल से ही स्वतंत्रता प्रेमी और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए रण सजाने वाले रणबांकुरे रहे थे, पर अब परिस्थितियों में व्यापक परिवर्तन आ गया था, इसलिए उन्होंने परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल भी स्वयं को ढाल लिया था।
फीरोजशाह नही हो पाया सफल
फीरोजशाह तुगलक के काल में केवल छह युद्घों के होने का प्रमाण मिलता है। उसकी इच्छा थी कि अब से पूर्व जितने क्षेत्र सल्तनत के अधिकार से निकल कर स्वतंत्र हो गये हैं, उन्हें पुन: विजित किया जाए, पर वह अपने इस सपने को साकार नही कर पाया। अनेक इतिहासकारों ने उसे अयोग्य शासक के रूप में स्थापित किया है।
राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही फीरोजशाह तुगलक ने अपना प्रथम सैनिक अभियान बंगाल विजय के लिए 1353-54 ई. में किया। वहां का शासक उस समय शमसुद्दीन था। जिसने मुहम्मद बिन तुगलक के विरूद्घ विद्रोह कर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। फीरोज के आगमन की सूचना पाकर शमसुद्दीन ने स्वयं को इकदला के दुर्ग में कैद कर लिया। उसका सुल्तान से संघर्ष हुआ, कुल मिलाकर युद्घ का परिणाम सुल्तान के प्रतिकूल ही रहा और वह बंगाल की स्त्रियों के विलाप से द्रवित होकर अपनी सेना सहित दिल्ली लौट गया।
दूसरी बार सुल्तान ने बंगाल पर 1359 ई. में आक्रमण किया उस समय वहां का शासक शमसुद्दीन का लडक़ा सिकंदर था। सिकंदर ने पिता का अनुसरण करते हुए युद्घ किया। युद्घ का परिणाम केवल ये आया कि सिकंदर ने सुल्तान को सुनारगांव देकर संधि कर ली। इस प्रकार सुल्तान के ये दोनों सैनिक अभियान निष्फल सिद्घ हुए।
हिंदू राज्य जाजनगर पर विजय
बंगाल से लौटते हुए सुल्तान ने हिंदू राज्य जाजनगर उड़ीसा पर आक्रमण किया। यहां पर उसके आक्रमण का उद्देश्य मंदिरों का विध्वंस कर लूटपाट के माध्यम से धन संग्रह करना ही था। दूसरे, सुल्तान अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, उसके लिए आवश्यक था कि हिंदुओं के छोटे-छोटे राज्यों को हड़प कर वह अपने साम्राज्य में मिला ले। सुल्तान फीरोज के समय जाजनगर बहुत समृद्घ था, उसकी समृद्घि को देख-देखकर सुल्तान के मुंह में बार-बार पानी आता था। शाही सेना को देखकर वहां का राय एक टापू की ओर भाग गया। फीरोज की सेना के लिए अब लूटपाट करने का अच्छा अवसर था, इसलिए मंदिरों (जगन्नाथ मंदिर विशेषत:) को लूट-लूटकर उन्हें विध्वंस करने का तांडव आरंभ हो गया। जितना हो सकता था उतना नरसंहार कर निर्दोष हिंदुओं का रक्त बहाया गया। अंत में जाजनगर के राय ने अधीनता स्वीकार कर वार्षिक कर देने की बात मानकर सुल्तान को दिल्ली भेज दिया। तत्पश्चात सुल्तान ने वीर भूमि के हिन्दू राजा पर धावा बोल दिया और उसे भी परास्त कर दिल्ली लौट गया।
सुल्तान के बंगाल अभियान के विषय में पी.एन. ओक महोदय का निष्कर्ष है कि वहां सुल्तान जीता नही था, अपितु उसे भागना पड़ा था और शमसुद्दीन ने उसका पीछा करते-करते उसे बहुत दूर तक छकाया था।
उनका मानना है कि बंगाल अभियान के समय हिंदुओं के घरों को जलाने एवं लूटने की परंपरा का अक्षरश: पालन किया गया। सुल्तान ने एक-एक हिंदू के सिर के लिए चांदी का एक टका घोषित कर दिया था। सारी सेना इस काम में जुट गयी, और कटे मुण्डों का ढेर सुल्तान के सामने लग गया। कटे हुए सिरों की संख्या 1,80,000 थी।
इसका अभिप्राय है कि बंगाल अभियान के समय हमारे वह हिंदू लोग जिन्होंने धर्मांतरण करने के स्थान पर सिर कटाना उचित माना, उनकी संख्या एक लाख अस्सी हजार थी। ये वह लोग थे जो स्वतंत्रता के लिए जिये और जब समय आया तो मौन रहकर अपना सिर अपने धर्म के लिए देकर संसार से चले गये। आज हिन्दू की सहिष्णुता और उदारता की दुहाई देकर इन धर्म प्रेमियों और स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों को और उनके बलिदानों को भुलाने की बातें की जाती हैं, और हम उन बातों को ही उचित मान लेते हैं, तो ऐसा देखकर दुख होता है। हमारी इस प्रवृत्ति को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में आत्मघाती बताते हुए ए.ए.ए. फैजी साहब लिखते हैं-‘‘इस दिखावटी एकता के धोखे में हमें मजहबों के परस्पर विरोधों के प्रति आंखें नही मूंद लेनी चाहिए। पुराने धर्म-ग्रंथों के उद्घरण दे देकर प्रतिदिन भारत वासियों की सांस्कृतिक एकता और सहिष्णुता का बखान नही करते रहना चाहिए। यह तो अपने आप को नितांत धोखा देना है। इसका राष्ट्रीय स्तर पर त्याग किया जाना चाहिए।’’
(एम.आर.ए बेग की पुस्तक मुस्लिम डिलेमा इन इंडिया पृष्ठ-27)
जाजनगर अभियान के विषय में हमें अफीफ बताता है-‘‘जाजनगर (जगन्नाथपुरी) के हिंदू राजा अदम उस समय नगर से बाहर गये हुए थे, अत: फीरोज ने उनके राजभवन पर अधिकार कर लिया। हिंदू राजाओं की ये परंपरा रही है कि वे अपने दुर्गों में कुछ न कुछ नया भाग बनाते जोड़ते रहे हैं। इसलिए वे दुर्ग बहुत विशाल हो गये थे। कुछ निवासियों को बंदी बनाया गया शेष भाग गये। प्रत्येक प्रकार के पशुओं की संख्या इतनी अधिक थी कि कोई भी उनके लिए छीना झपटी करता था। भेड़ों को गिना नही जा सका था, और प्रत्येक पड़ाव पर असंख्य भेड़ें काटी जाती थीं। एक लाख लोगों ने भागकर चिल्का झील में शरण ली थी काफिर हिन्दुओं के रक्त से सुल्तान ने इस द्घीप को रक्तपूर्ण कर दिया। बच्चों वाली गर्भवती स्त्रियों को हथकडिय़ों और बेडिय़ों से जकड़ दिया गया और हिंदुओं का पूर्णत: विनाश कर दिया गया।’’
हिन्दू सेना ने लिया प्रतिशोध
जब चारों ओर अमानवीयता और दानवता का तांडव नृत्य हो रहा था और सुल्तान हिन्दू का विनाश कर उसे मिटाने लगा हुआ था, तब कुछ देरी से पहुंची हिंदू सेना ने प्रतिरोध और प्रतिशोध की ऐसी होली मचाई कि सुल्तान जो कि दो वर्ष सात माह से लखनौटी और जगन्नाथपुरी में रह रहा था। हिंदू सेना की मारामारी से इतना भयभीत हुआ कि मात्र 73 हाथियों और कुछ सैनिकों के साथ राजधानी दिल्ली की ओर भाग लिया, आक्रमण और हिंदू प्रतिरोध इतना भारी था कि सुल्तान को यह आक्रमण एक आक्रमण ना दीखकर भारी और ऐसी विनाशकारी आंधी जैसा लगा जिसमें आंखों में धूल भर जाने से व्यक्ति मार्ग तक भूल जाता है। अफीफ लिखता है-‘‘मार्गदर्शक मार्ग भूल गये सेना पहाड़ों पर चढ़ती-उतरती थक कर चूर हो गयी। न रास्ता मिलता था, न दाना। छह महीने तक सुल्तान का कोई भी समाचार दिल्ली नही पहुंचा (अर्थात कोई सूचना देने या लेने वाला भी नही रहा) छह माह के पश्चात जब वह दिल्ली पहुंचा तो उसने खुदा का शुक्रिया अदा किया।’’
जगन्नाथपुरी के मंदिर के विषय में
यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि जगन्नाथपुरी उड़ीसा का प्रसिद्घ मंदिर अपने निर्माण काल से ही संपूर्ण देशवासियों के लिए श्रद्घा और सम्मान का पात्र रहा है। कभी यहां बौद्घ मंदिर था। जिसके जीर्ण-शीर्ण होने पर ययाति केसरी नामक राजा ने यहां नौवीं शताब्दी में श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण कराया। कालांतर में गंगदेव चौड़ ने 12वीं शताब्दी में उसे और भी अधिक भव्यता प्रदान की। राजा अनंग भीमदेव ने भी 12वीं शताब्दी के अंत में इस मंदिर को और भव्य बनाने में राजकीय सहयोग प्रदान किया। इस प्रकार राजकीय संरक्षण मिलने से जगन्नाथपुरी का मंदिर हिंदू समाज के लिए बहुत ही श्रद्घेय हो गया था।
इस मंदिर को काला पहाड़ (जो धर्मांतरित मुसलमान था) ने भी अपने प्रतिशोध और क्रोध का भाजन बनाया था, उसके पश्चात भी एक नही अनेक बार इस मंदिर का विध्वंस किया गया, परंतु हिंदुओं की आस्था विनाश पर प्रबल रही और विध्वंस किये गये मंदिर का पुन: पुन: उद्घार किया जाता रहा।
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार इस क्षेत्र का नाम उड्डियन पीठ था (उसी से उड़ीसा शब्द बना) और कालांतर में इसे शंख क्षेत्र भी कहा गया। 1122 और 1137 ई. में यहां आचार्य रामानुज भी पधारे थे।
इतना गौरवपूर्ण अतीत जिस जगन्नाथपुरी का रहा, उसकी रक्षा के लिए हिंदू सेना का गठन किया जाना हिंदुओं के लिए अनिवार्य था, इसलिए हिंदू सेना में अपने प्रबल आक्रमण से सुल्तान की शाही सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। इस प्रकार बंगाल और उड़ीसा का सुल्तान का अभियान असफल ही रहा।
नगरकोट पर आक्रमण (1360 ई.)
मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में नगरकोट ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। नगरकोट के निवासियों की स्वतंत्रता की ऐसी भावना सुल्तान को शूल की भांति चुभ रही थी। अत: वह नगरकोट की जनता को उसकी करनी का दण्ड देना चाहता था। फलस्वरूप 1360 ई. में उसने नगरकोट पर आक्रमण कर दिया। जिससे कि नगरकोट कांगड़ा हिमाचल के हिदुओं की स्वतंत्रता प्रेमी भावना को समूल नष्ट किया जा सके।
इतिहासकार फरिश्ता लिखता है-‘‘सुल्तान ने यहां के प्रसिद्घ ज्वालामुखी मंदिर की प्रतिमा को चूर-चूर कर कटी हुई गायों के मांस में मिला दिया और इस मिश्रण को नगर के सभी ब्राह्मणों की नाक के पास बांध प्रधान प्रतिमा को उपहार स्वरूप मदीना भेज दिया।’’
नगरकोट कांगड़ा मध्यकालीन भारत के सबसे सुदृढ़ दुर्गों में से एक था। मुहम्मद तुगलक के शासन काल के अंतिम वर्षों में नगरकोट के राजा ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। उसे पुन: अपने अधीन बनाने के लिए फीरोज ने सन 1360 ई. में आक्रमण कर दिया। यह भी संभव है कि नगरकोट के सुविख्यात ज्वालामुखी के मंदिर ने, जहां प्रतिवर्ष असंख्य हिंदू तीर्थ यात्री जाया करते थे और मूर्ति पर बहुमूल्य भेंट चढ़ाते थे, धर्मांध फीरोज को आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया हो। सुल्तान ने नगरकोट को घेर लिया और लगभग छह माह तक घेरा डाले रहा। प्रदेश की खूब लूटमार की गयी और ज्वालामुखी के मंदिर को ध्वस्त किया गया।
छह माह के घेरे के पश्चात अंत में नगरकोट के शासक ने आत्मसमर्पण कर दिया।
(संदर्भ: तुगलक कालीन भारत)
अधिकांश इतिहासकारों ने नगरकोट पर सुल्तान के आक्रमण की परिणति पर यही निष्कर्ष निकाला है किवह स्वयं भी छह माह तक डेरा डाले रखकर दुखी हो लिया था और हिंदू राजा के आत्मसमर्पण के पश्चात उसने किले पर अधिकार न करके यहां से सम्मानपूर्वक निकल जाना ही उचित समझा। उसने राजा को मैत्रीपूर्ण अधीनता में लाना ही समयानुकूल समझा। इसके पीछे सुल्तान को हिन्दू प्रतिरोध का भय था। वह नही चाहता था कि हिंदू राजा को पुन: एक चुनौती बनने का अवसर प्रदान किया जाए, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए प्रसन्न होकर सुल्तान दिल्ली लौट गया। इससे स्पष्ट है कि जाजनगर और नगरकोट अभियानों से सुल्तान को कोई लाभ नही हुआ, क्षति अवश्य उठानी पड़ी। इसका परिणाम ये आया कि सुल्तान जहां कहीं और अपने विजय अभियान चला सकता था, नही चला पाया या चलाये भी तो उन पर जाजनगर और नगरकोट का मनोवैज्ञानिक प्रभाव रहा।
हिन्दू शासक रूपचंद
जिस समय नगरकोट पर फीरोज तुगलक ने आक्रमण किया था, उस समय वहां का शासक रूपचंद था। रूपचंद के विषय में अफीफ हमें बताता है कि उसने स्वयं को दुर्ग में सुरक्षित कर लिया था। किले की घेराबंदी के विषय में अफीफ लिखता है-
‘‘घेरे पर घेरे अपितु दस घेरे डाल दिये गये। दोनों ओर से मंजनीकें लग गयीं तथा अरादे द्वारा पत्थर चलने लगे। मंजनीक के पल्लों से दोनों ओर से पत्थर हवा में धक्के खाते थे और चूर्ण हो जाते थे। छह मास तक सुल्तान फीरोजशाह की सेना किले को घेरे रही। दोनों ओर के पहलवान तथा वीर अपनी-अपनी शक्ति आजमाते थे।’’
वास्तविकता कुछ और थी
कहानी चाहे जो रही, परंतु वास्तविकता ये थी कि नगरकोट का दुर्ग इतना सुदृढ़ था कि उसे जीत पाना संभव नही था। इसलिए सुल्तान का कैसे ही सम्मान सुरक्षित रह जाए, इसलिए ऐसी कहानी गढऩे का कार्य किया गया कि जिससे हिंदू शासक की दुर्बलता झलके और सुल्तान उस पर भारी दिखाई दे। इस बात की पुष्टि ‘शशफतेह-ए-कांगड़ा’ का लेखक यह कहकर करता है कि सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक से लेकर अब तक (अकबर के शासन काल तक) बड़े-बड़े शक्तिशाली शासकों ने इस दुर्ग पर 52 बार घेरा डाला किंतु कोई इसे जीत नही सका।’’
इलियट: खण्ड 6, आगरा 1971 पृष्ठ-394, से स्पष्ट होता है कि सुल्तान को नगरकोट अभियान में असफलता ही मिली और राजा से भेंट हो जाने को ही उसने पर्याप्त मान लिया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि नगरकोट अपनी स्वतंत्रता को बचाये रखने में सफल रहा था।
इटावा के चौहानों का स्वतंत्रता संग्राम
फीरोज शाह तुगलक के काल में जनता की भावनाओं का नेतृत्व छोटे-छोटे मुखिया मुकद्दम लोगों तक के हाथ में पहुंच गया था। स्वतंत्रता की ज्योति को जलाये रखने के लिए जहां जैसे बन पड़ता, लोग अपने मुखिया के नेतृत्व में एकत्र होते और स्वतंत्रता संघर्ष आरंभ कर देते। इटावा के चौहानों का स्वतंत्रता संग्राम छोटे-छोटे सामंतों का संग्राम था, जिनके पीछे जनबल खड़ा था-जब हर व्यक्ति अपने आप में एक सैनिक बन जाए। स्मरण रहे कि वीर सावरकर ने इसी भावना से हिंदुओं के सैनिकीकरण की बात कही थी। जब प्रत्येक व्यक्ति सैनिक बन जाता है, तो नेता खोजने की आवश्यकता नही पड़ती है, नेता वहीं उत्पन्न हो जाता है जहां दस बीस या सौ पचास सैनिक उपस्थित हों। उनका लक्ष्य होता है-स्वतंत्रता प्राप्ति। इसलिए वे पद या नेतृत्व के प्रश्न पर नही लड़ते अपितु अपने शत्रु के विरूद्घ एकमत और एकजुट होकर लड़ते हैं। हमारे 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम की अनूठी बात है ये। जिसे एक बार नही कितनी ही बार अब से पूर्व हमारी वीर स्वतंत्रता प्रेमी हिन्दू जनता ने सिद्घ किया था। अब बारी थी-इटावा के चौहानों की।
.….जो बन गये मटकी का पानी
अपने मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानियों की बलिदानी परंपरा को देखकर जो प्रसन्नता होती है, उस पर एक दृष्टांत उपस्थित करना उपयुक्त समझता हूं। कहते हैं कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने एक दिन अपने महाबुद्घिमान परंतु कुरूप प्रधानमंत्री चाणक्य से कहा कितना अच्छा होता यदि आप गुणवान होने के साथ-साथ रूपवान भी होते।
सम्राट की यह बात पास ही खड़ी महारानी ने भी सुनी और इससे पूर्व कि चाणक्य सम्राट को कोई उत्तर देते रानी ने स्थिति को संभालते हुए कहा-
‘‘रूप तो मृगतृष्णा है, व्यक्ति की पहचान तो उसके बौद्घिक कौशल और गुणों से होती है। रूप से व्यक्तित्व की पहचान कदापि नही हो सकती।’’
सम्राट ने रानी की ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा-‘‘आप स्वयं कितनी रूपवती हैं, पुनश्च आपके मुख से मैं ये क्या सुन रहा हूं? आप कैसी बातें कर रही हैं?’’
तत्पश्चात सम्राट ने महारानी से प्रश्न करते हुए कहा-‘‘क्या संसार में ऐसा कोई उदाहरण है जहां गुण के समक्ष रूप नीरस जान पड़े।’’
इस पर महामति चाणक्य ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-‘महाराज, ऐसे तो अनेकों उदाहरण हैं।’
चाणक्य ने कहा-‘‘पहले आप थोड़ा जल लेकर आंतरिक शांति का अनुभव करें, तब बात करेंगे।’’ चाणक्य ने सम्राट को दो गिलास बारी-बारी से अलग-अलग पात्रों का जल पिलाया। तब चाणक्य ने सम्राट से कहा-‘‘महाराज! पहले गिलास का पानी इस सोने के घड़े का था, और दूसरे गिलास का पानी इस काली मिट्टी की मटकी का था। अब आप बतावें, किस गिलास का पानी आपको मीठा और रूचिकर लगा?’’ सम्राट ने चाणक्य की बात का उत्तर देते हुए कहा-‘‘हे महामते! मटकी के जल से भरे गिलास का जल अधिक शीतल, रूचिकर और तृप्तिदायक लगा।’’
निकट ही खड़ी महारानी ने चाणक्य के बुद्घि चातुर्य को समझकर सम्राट से कहा-‘‘महाराज! हमारे प्रधानमंत्री ने अपने बुद्घि चातुर्य से आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया है। भला यह सोने का सुंदर घड़ा किस काम का, जिसका जल बेस्वाद लगता है। जबकि काली मिट्टी से बनी यह मटकी कुरूप होते हुए भी जल की गरिमा बढ़ाने वाली है, इसमें गुण छिपे हैं जिससे पानी को पीकर तृप्ति मिलती है। अब आप ही बतलावें कि बड़ा कौन है?’’
राजा की समझ में आ गया था कि रानी क्या कहना चाहती है?
हमारे स्वतंत्रता सेनानी मध्यकाल में ‘मटकी का पानी’ ही बन गये थे, जिसे पीकर इस देश की आत्मा को तृप्ति मिली और हमें स्वतंत्रता मिली। अस्तु।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत