तुच्छ जन संसार में, करें तुच्छता की बात

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बिखरे मोती

तुच्छ जन संसार में, करें तुच्छता की बात:-

तुच्छ जन संसार में,
करे तुच्छता की बात।
सत्पुरुष सहते रहें,
भिन्न – भिन्न आघात॥1802॥

नीच- किच से बच रहो,
करो नहीं तकरार।
न जाने किस वक्त ये,
इज्जत देंय उतार॥1803॥

महिमा मण्डित गुण करे,
हीरा सा अनमोल।
वाणी से मत पाप कर,
तोल -तोलकर बोल॥1804॥

अगली सीढ़ी पर चढ़े,
तो पिछली छूटे आप।
ज्यों -ज्यों निर्मल होय मन,
स्वतः छूटते पाप॥1805॥

तपस्वी तपोधन से धनी,
विद्या से विद्वान।
आचरण की उच्चता,
से नर होय महान॥1806॥

भाव बढ़ा है शब्द से,
और कर्म की जान।
शुचिता रखले भाव में,
जो चाहे कल्याण॥1807॥

चल मनुआ उस लोग को,
जहां हंसा करे किलोल।
ब्रह्य – रस बरसे जहां ,
सुन अनहद के बोल॥1808॥

मनुष्येन्तर बहु योनियॉ,
ब्रह्मानुभव नहीं होय।
मानव-तन में ही हो सके,
मत इसे वृथा खोय॥1809॥

ब्रह्मानुभव के बाद ही,
चेहरे पै दिव्यता आय।
वाणी में प्रभाव हो,
देवदूत कहलाय॥1810॥

सत्पुरुषों के वाच्य से,
कल्मष का हो अन्त।
गौतम बुद्ध के वाच्य से,
अंगुलिमाल बना सन्त॥1811॥

प्रभुता पाके नम्र रह,
समझ प्रभु की देन।
मत करना अभिमान तू,
चली जायेगी देन॥1812॥

रसानुभूति ब्रह्म की,
जिनके चित में होय।
देवयान मारण मिले,
अर्चि वाहन होय॥1813॥

आत्मा अपने स्वभाव में,
रमण करन लग जाय।
नर को शरणागति मिले,
अध्यात्मिक कहलाय॥1814॥

सत्संग दे षड-सम्पदा,
करे चित्त परिष्कार।
आत्मबल अपवर्ग दे,
अच्छे दे संस्कार॥1815॥

षड़-सम्पदा :- शम,दम,उपरति, तितिक्षा,श्रद्धा समाधान का धन अपवर्ग :- स्वर्ग , मोक्ष

वाणी और व्यवहार से,
मूरख जाहिर होय।
धन-मर्यादा खोय के ,
सिर धुन-धुनके रोय॥1816॥

जीवन-रस है प्रेम-रस,
मुश्किल होय निभाय।
मानव की तो बात क्या,
हरी से दिए मिलाय॥1817॥

राही आनन्द – लोक का,
मत गफ़लत में सोय।
हीरा बरगा जनम था,
मत व्यसनों में खोय॥1818॥
क्रमशः

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