गीता मेरे गीतों में… गीत संख्या- 19 , स्वधर्म की श्रेष्ठता
गीता मेरे गीतों में
गीत संख्या ,….19
स्वधर्म की श्रेष्ठता
हर श्रेष्ठतम कर्म को ही यज्ञ माना वेद ने ।
यज्ञ करो भी , कराओ भी – संदेश दिया वेद ने।।
देवयज्ञ नियम से करो – यही उपदेश दिया वेद ने।
संगतिकरण और दान का भी आदेश दिया वेद ने।।
सबसे चले मिलकर सदा – मनुष्य का यही धर्म है ।
मिल बाँटकर उपभोग करे – यह धर्म का भी मर्म है।।
ऐसी दिव्य शिक्षा जिससे मिले – साथी हमारा यज्ञ है।
सदा लाभ हो संसार का हर मनुष्य का यह स्वधर्म है ।।
आत्मतुष्टि का नहीं कभी जीव साधन क्षेत्र है।
संसार ईश्वर ने रचा, मंदिर उसी का जीव है।।
आत्मदान करने पर यहाँ सदा पूर्ण होता यज्ञ है ।
यही निष्कामता की उत्कृष्टता – सबसे उत्तम कर्म है।।
सदा धर्म अपना श्रेष्ठ है – मत खराब उसको जानना।
मत विमुख हो स्वधर्म से – पार्थ ! बात मेरी मानना।।
मरना भला स्वधर्म में – ना कभी वैर उससे पालना।
करो यज्ञार्थ स्वधर्म को – अपना मन उसी में डालना।।
धर्म ब्राह्मण का है यही – वेद का पढ़ना व पढ़ाना।।
दान लेना और देना, संसार में यज्ञ का करना – कराना।
दुष्टों का संहार करना – यही धर्म तुझको अपनाना।
अर्जुन ! धर्म का पालन करो , ना युद्ध से भाग जाना।।
जो भी किया है कर्म तुमने – भगवान के अर्पण करो।
कभी दूसरे के धर्म को मत सहज में स्वीकार करो।।
भगवान हमारे साथ रहकर, है देखता हर कर्म को।
अर्जुन !तुझको मिटाना दुष्ट को, मत भूल निज धर्म को।।
डॉ राकेश कुमार आर्य