अपनी बात पर अटल रहे मोदी
ऐसा नहीं है कि भारत का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कुछ बोले तो वह राष्ट्र के लिए वेद−वाक्य बन जाता है। ऐसा भी नहीं है कि उनकी वाणी को संत−वाणी की तरह पवित्र माना जाता है, लेकिन उनके राज में किसी मुद्दे पर गहरी हलचल मची हो और वे चुप रहें तो देश अपने आप से यह पूछने लगता है कि हमारे ये नेता मौनी बाबा कैसे बन गए हैं? क्यों बन गए हैं? जो नेता हर किसी मसले पर टांग अड़ाने में नहीं चूकते, वे फलां-फलां नाजुक मुद्दे पर चुप क्यों हैं?
ऐसी ही चुप्पी पिछले कई माह से हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर काफी भारी पड़ रही थी। घर वापसी, गोड़से-वंदन, चार बच्चों, रामजादे,गिरजाघरों पर हमले जैसे मुद्दे पर उनकी चुप्पी सारे देश में दहाड़ती-सी लग रही थी। चुप की इस दहाड़ ने मोदी के सारे एजेंडे को ढंक लिया था। उन्होंने राष्ट्रीय विकास के लिए जो भी थोड़ी-बहुत पहल की, विदेश नीति में जो भी नए कदम उठाने की कोशिश की और स्वच्छता आदि के जन-जागरण अभियान चलाए उन पर ग्रहण−सा लग गया। जो लोग चुनाव अभियान के दौरान मोदी भक्त बन गए थे,उन्हें भी लगा कि देश के साथ कहीं कोई छल तो नहीं हो रहा है। यह क्या हो रहा है? आए थे, रामभजन को और ओटन लगे कपास।
‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर आप जीतकर आए और अब आपकी पार्टी के जिम्मेदार लोग कह रहे हैं कि चुनाव में जो कहा जाता है, वह तो सिर्फ कहने के लिए कहा जाता है। काला धन लाना तो एक जुमला भर था। सबका साथ आप कैसे लेंगे, जबकि आपकी पार्टी के सांसद नेता ऐसी-ऐसी बातें अक्सर बोलते रहते हैं, जिनसे देश टूटे या न टूटे, देश के करोड़ों लोगों के दिल टूटते जा रहे हैं। इसका अहसास कुछ हद तक दिल्ली के चुनाव ने करवा दिया।
मुझे खुशी है कि हमारे प्रधानमंत्री की सीखने की रफ्तार काफी तेज निकली। उन्होंने अपना मौन-भंग किया। वे मनमोहन सिंह से फिर मोदी बन गए। वे मोदी, जो अपनी बात डंके की चोट पर कहते हैं। कोई लाग-लपेट नहीं करते हैं। उन्होंने दो कैथोलिक ईसाई संतों के उत्सव में भाग लिया। 7 रेसकोर्स रोड पर बैठकर कोई ‘फोनो’ नहीं दिया, कोई ‘स्काइप’ पर संबोधित नहीं किया। साक्षात उपस्थित हुए और ईसाई समुदाय के बीच भाषण दिया। क्या कहा मोदी ने वहां? वही कहा, जो भारत के प्रधानमंत्री को कहना चाहिए। यानी भारत में सब धर्मों के प्रति समाज में सहिष्णुता का भाव है। उनकी सरकार सब धर्मों को बराबर मानती है। यदि कोई स्वेच्छा से धर्म−परिवर्तन करना चाहे तो संविधान उसकी छूट देता है, लेकिन डर और प्रलोभन से ऐसा करना अनुचित है।
प्रधानमंत्री मोदी के पूरे भाषण में एक भी शब्द ऐसा नहीं है, जिसे कोई आपत्तिजनक कह सके, लेकिन प्रधानमंत्री की पीठ ठोकने की बजाय हमारे तथाकथित सेक्युलरिस्ट भाईजान मोदी के भाषण में से ढूंढ़-ढूंढकर छेद निकाल रहे हैं। उनका पहला हमला तो यही है कि मोदी ने वही किया है, जो नेता लोग अक्सर किया करते हैं। क्या करते हैं? गंगा गए तो गंगादास और जमना गए तो जमनादास! उनका मानना है कि उन्होंने पादरियों के सामने राग ‘ठकुरसुहाती’ गा दिया! कार्यक्रम से लौटे नहीं कि वह बात आई−गई हो गई।
दूसरा आरोप तो काफी गंभीर है। वे आरोप भी लगा रहे हैं और मोदी भक्त बनकर उनको सलाह भी दे रहे हैं। वे आरोप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा रहे हैं। उनका कहना है कि जितने भी घोर सांप्रदायिक बयान इधर आए हैं और जितनी भी विभाजनकारी उत्तेजक कार्रवाइयां हो रही हैं, वे सब संघ के इशारे पर ही हो रही हैं। वे सरसंघचालक मोहन भागवत को उद्धृत करते हैं और कहते हैं कि देखिए भागवत ने ही कहा है कि सारा भारत हिंदू राष्ट्र है। सारे भारत के नागरिक हिंदू ही हैं, इसीलिए मुसलमानों से ‘घर वापसी’ करवाई जा रही है और चर्चों पर हमले हो रहे हैं। इसी आधार पर सेक्युलरिस्ट भाई मोदी को सलाह दे रहे हैं कि वे संघ से दूर होने की कोशिश करें। यदि हमारे सेक्युलरिस्ट मित्र तर्क−शक्ति में थोड़ा विश्वास करते तो वे मोहनजी के बयान का तह-ए-दिल से स्वागत करते।
वे पूछते कि यदि भारत का हर नागरिक हिंदू है तो आप धर्म-परिवर्तन किसका कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? वास्तव में हिंदू शब्द का सही अर्थ भी यही है कि भारत का हर नागरिक हिंदू है। अरबों और फारसियों ने यह शब्द हमें दिया है। उनकी नजर में जो भी सिंधु (हिंदू) नदी के पार रहता है, वह हिंदू है। पाकिस्तान बनने के बाद तो यह बात और भी सच लगती है। सिंधु नदी अब पाकिस्तान में चली गई है। फारसी (ईरानी) लोग ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ करते हैं। जैसे ‘सप्ताह’ को ‘हफ्ताह’ और ‘सिंधु’ को ‘हिंदू’। चीन के दर्जनों शहरों में मुझे जाने का मौका मिला है। वहां हर आदमी मुझे ‘इंदुरैन’ (हिंदू आदमी) कहकर पुकारता है। किसी ने भी चीनी भाषा में मुझे भारतीय या ‘इंडियन’नहीं कहा। भारत इसी अर्थ में हिंदू राष्ट्र है, और किसी अर्थ में बिल्कुल नहीं। सांप्रदायिक अर्थ में तो बिल्कुल नहीं।
क्या ही अच्छा हो कि हमारे देश के गिरजाघरों और मस्जिदों में नेताओं को बुलाने की बजाय मोहन भागवत को बुलाया जाए और उनसे कहा जाए कि वे हिंदुत्व की व्याख्या करें। इन दिनों अपने कई भाषणों में वे धार्मिक सहिष्णुता को हिंदुत्व का प्राण-तत्व बताते रहे हैं। यह तत्व भारत के सभी धर्मों के अनुयायियों में विद्यमान है। जो धर्म भारत के बाहर पैदा हुए हैं, वे भी इस भारत-धर्म को सीख सकते हैं। छद्म सेक्युलरिज्म की दुकान बंद होने का डर पैदा हो जाएगा, इसलिए वे मेरे उक्त सुझाव से सहमत नहीं होंगे, लेकिन जो सच्चे धर्मप्रेमी लोग हैं, उन्हें सीधे संवाद से घबराना नहीं चाहिए। भागवतजी जाएं, मस्जिदों व गिरजों में और ओवैसी−जैसे लोग जाएं, मंदिरों तथा गुरुद्वारों में। वहां जाकर वे खुला संवाद करें। देखें, सच्चा हिंदुत्व, सच्चा भारत धर्म देश में व्याप्त होता है या नहीं।
और यह भारत के आस-पास के उन सभी राष्ट्रों तक फैलना चाहिए, जिन्हें कभी ‘आर्यावर्त’ कहा जाता था। भारत के प्रधानमंत्री को सिर्फ भारत की ही चिंता नहीं होनी चाहिए। इस संपूर्ण दक्षेस-क्षेत्र की चिंता होनी चाहिए। जो त्रिविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव तक और अराकान (बर्मा) से खुरासान (ईरान) तक फैला हुआ है। भारत के प्रधानमंत्री को ओबामा धार्मिक सहिष्णुता का उपदेश पिलाएं, इससे बढ़कर हास्यास्पद बात क्या हो सकती है। जरूरी यह है कि मोदी ने ईसाई-उत्सव में जो कुछ कहा है, उसे वे उसकी तार्किकपरिणति तक पहुंचाएं तो भारत न सिर्फ संपूर्ण दक्षिण और मध्य एशिया की नैतिक महाशक्ति बन जाएगा बल्कि दुनिया के अन्य राष्ट्रों और क्षेत्रों के लिए एक अनुकरणीय आदर्श भी बन जाएगा।