जैसे किसी ने बहते हुए दरिया को बोतल में बंद कर दिया हो और उसका जल उछलने को छटपटा रहा है, कुछ ऐसा हम भाजपा के साथ होता महसूस कर रहे हैं। इसे वरदान नहीं विडम्बना कह लीजिये कि मात्र नौ महीने पहले जिस नरेन्द्र मोदी को दिल्ली की जनता ने सातों लोकसभा सीटें देते हुए सरआंखों पर चढ़ाया था, आज उसी जनता ने भाजपा को उसकी सबसे शर्मनाक पराजय तक ला पटका है। धमाकेदार जीत के साथ केजरीवाल आज प्रासंगिक तो हैं ही, कालजयी भी हो गये हैं। उनके विजन, मेहनत और जीतने योगय रणनीति को लाखों सलाम! शुभकामनाएँ!
तमाम दुष्प्रचारों को धता बताते हुए दिल्ली की जनता ने जिस तरह आम आदमी पार्टी पर दुबारा भरोसा जताया है, वह भाजपा-कांग्रेस सहित दूसरे राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घण्टी की तरह है। सोलह सालों से राजनीतिक वनवास भोग रही भाजपा, इस दावे के साथ किरण बेदी को लेकर आई थी कि बेदी नया चेहरा हैं और दिल्ली में वे खासी लोकप्रिय हैं, लेकिन यह मृगमरीचिका तब साबित हुई जब बेदी भाजपा का गढ़ माने जाने वाले कृष्णा नगर सीट से चुनाव हार गईं। एक न्यूज चैनल पर भाजपा कार्यकर्ता ने उनकी हार पर आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा : जिस बेदी ने कभी ब्यूरोक्रेट्स रहते हुए कार्यकर्ताओं पर लाठियां भांजी थीं, हम उन्हें मुख्यमंत्री कैसे बनते देखते? दूध का जला छाछ भी फूंककर पीता है लेकिन भाजपा ने पिछली गल्तियों से कोई सबक नहीं लिया।
भूले नहीं होंगे कि 2005 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने छत्तीसगढ़ की महासमुंद सीट से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व. विद्याचरण शुक्ल को बतौर उम्मीदवार बनाकर उतारा था तब भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं ने उन्हें सिरे से खारिज कर दिया था और शुुक्ल एक लाख से ज्यादा मतों से हार गए थे। यह सवाल रह-रहकर फन फैला रहा है कि जब पार्टी के पास पेशेवर नेताओं की फौज थी तो उसने सबको धकियाते हुए किरण बेदी को क्यों ला खड़ा किया? सभी बड़े नेता अनुशासन का डण्डा चलने के डर से मन मसोसकर शांत हो गए थे लेकिन देवतुल्य भाजपा कार्यकर्ताओं को लगा कि झूठे दिलासों के कफन ओढ़कर कब तक इंतजार करेंगे सो वे ना सिर्फ घर बैठ गए!
और सिर्फ कार्यकर्ता ही क्यों, भारतीय लोकतंत्र की यही खासियत है कि वह अधिनायकवादी फैसलों के आगे कभी नहीं झुका। चाहे इंदिरा गांधी का दौर रहा हो या फिर वर्तमान में मोदी और शाह का। इस हार-जीत को हम जिस उजाले में देखने का प्रयास कर रहे हैं, उसके मुताबिक दिल्ली विधानसभा चुनाव के मीठे-खट्ठे परिणामों के बीच तीन प्रमुख कारण निकलकर आए हैं : पहला है ईमानदार चेहरा, दूसरा केडरबेस काम और तीसरा रणनीतिपूर्वक आगे बढ़ना। आश्चर्य कि आप पार्टी इसमें सफल रही जबकि भाजपा की चाल डगमगाती रही।
केजरीवाल ने मोदी और शाह की तरह पार्टी को अपनी दृष्टि से नहीं बल्कि जनता की दृष्टि से गढ़ने की कोशिश की।
जबान की फिसलन भी भाजपा को ले डूबी। एक तरफ भाजपा नेता ऐलानियां आप को धमकाते रहे तो दूसरी ओर केजरीवाल का आत्मविश्वास आकार लेता गया। मोदी और भाजपा जहां केजरीवाल को एके47, नक्सली, हरामजादा और चोर बताते रहे, वहीं दूसरी ओर आप के कार्यकर्ता और नेता पिछली गल्तियों के लिए जनता से माफी मांगते हुए दिल जीतते चले गए। केजरीवाल ने छप्पर फाड़ जीत हासिल कर 67 सीटें जीतकर एके47 का करारा जवाब दिया है। एक बानगी देखिए कि मतदान के एक दिन पहले प्रवक्ता आशुतोष ने बयान दिया कि हमें बुखारी का समर्थन नहीं चाहिए क्योंकि नवाज शरीफ को आमंत्रण देकर उन्होंने देश के प्रधानमंत्री का अपमान किया था। यह बयान भी भाजपा की जीत के लिए अंतिम कील साबित हुआ।
समय से बहस करते हुए भाजपा की हार को धड़कनों की समग्रता में महसूस करने की जरूरत है। पार्टी और नेताओं को सर्वानुमति का सम्मान करना होगा। आरएसएस को भी भाजपा के उन बुलडोजरी फैसलों का विरोध करना सीखना होगा जिसमें अधिनायकवाद की बू आती है अन्यथा आज भाजपा कार्यकर्ता घर बैठे हैं, कल से स्वयंसेवक भी गंभीरता से लेना बंद कर देंगे।
चलिए जो जीता, वो सिकंदर। बहुत उम्मीद और भरोसे के साथ केजरीवाल में जनता ने एक ऐसे सुपर स्टार को देखा है जिससे ढेरों आशाएं और उम्मीदें जुड़ी हैं। दिल्ली ने पिछले सालों में लाखों बेरोजगार उगले हैं। सुरक्षा, बिजली और पानी की गारंटी भी बड़ी चुनौती है। उम्मीर करें कि पांच साल बाद अरविंद केजरीवाल की सरकार, कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार से ज्यादा बड़ी लकीर खींचकर दिखाएगी।
(प्रवक्ता.कॉम से साभार)