साक्षरता और परम्परा के मेल से बचेगा पानी
मनोज कुमार
करीब तीन दशकों से जल संकट को लेकर विश्वव्यापी बहस छिड़ चुकी है। यहां तक कहा जा रहा है कि अगला विश्व युद्ध पानी के मुद्दे पर लड़ा जायेगा। स्थिति की गंभीरता को नकारा नहीं जा सकता है। इस दिशा में राज्य सरकार अपने अपने स्तर पर पहल कर रही हैं और जल संरक्षण की दिशा में नागरिकों को जागरूक बनाया जा रहा है। जल संरक्षण की दिशा में उपाय बरतने वाले प्रदेशों अपनी अपनी काल और स्थितियों के अनुरूप जतन कर रही हैं। इस श्रृंखला में हाल ही में केन्द्र सरकार ने जल साक्षरता अभियान चलाने की घोषणा की गई है। केन्द्र सरकार की घोषणा को उनके पहले घोषणा समग्र स्वच्छता से जोडक़र देखा जाना चाहिये। केन्द्र सरकार मूलभूत समस्याओं की तरफ नागरिकों की भागीदारी चाहती है तो इसका स्वागत किया जाना अनुचित नहीं होगा। किंतु केन्द्र सरकार जल साक्षरता अभियान कैस चलायेगी, उसका स्वरूप क्या होगा और क्या नागरिक सरकार के इन प्रयासों में अपनी भागीदारी पूरा करेगी। सवाल अनेक हैं लेकिन इसके पहले हमें उन मुद्दों पर जाकर पड़ताल करनी होगी कि केन्द्र सरकार के जल साक्षरता अभियान को पूर्ण करने में क्या दिक्कतें हैं।
भारत गांवों का देश रहा है और अभी भी भारत ग्रामीण परिवेश में ही जीता है। ग्रामीण परिवेश का सीधा सा अर्थ है एक बंधी-बंधायी परम्परा की जीवन शैली। इस परम्परागत जीवनशैली को करीब से देखेंगे तो आप यह जान पायेंगे कि वे शहरी जीवनशैली से कहीं अधिक समृद्ध हैं। वे बाजार के मोहताज नहीं हैं बल्कि वे अपनी परम्परा को बाजार से एकदम परे रखे हुये हैं और यही कारण है कि अनेक किस्म की समस्याओं के बावजूद उनका जीवन तनावपूर्ण नहीं है। जहां तक जल संरक्षण की चर्चा करते हैं तो सर्वाधिक जल स्रोत ग्रामीण क्षेत्रों में ही मिलेंगे। पानी उनके लिये उपयोग की वस्तु नहीं है बल्कि पानी उनके लिये जल-देवता है और वे उसका जीवन जीने के लिये उपयोग करते हैं न कि उसका दुरूपयोग। ग्रामीण परिवेश में जीने वाले अधिसंख्य लोग अपनी किसी उपलब्धि पर आयोजन में खर्च नहीं करते हैं बल्कि पानी के नये स्रोत बनाने के लिये करते हैं। पुराने जल स्रोतों के नाम देख्ेंगे तो आपको किसी न किसी पुराने परिवार के सदस्यों के नाम का उल्लेख मिलेगा। सेठानी घाट कहां है, यह आप से पूछा जाये तो आप हैरानी में पडऩे के बजाय नर्मदाजी के नाम का उल्लेख करेंगे क्योंकि यह सेठानी घाट प्रतीक है उस जलसंरक्षण की परम्परा का जहां बिटिया का ब्याह हो, घर में नया सदस्य आया हो या किसी ऐसे अवसर को परम्परा के साथ जोडक़र जलस्रोतों का निर्माण किया जाता रहा है। गांवों से निकलकर जब हम कस्बों की तरफ बढ़ते हैं तो यहां भी जल संरक्षण परम्परा का निर्वाह करते हुये लोग दिख जाते हैं। जिन पुरातन जल स्रोतों में गाद भर गयी है अथवा उसके जीर्णोद्धार की जरूरत होती है तो लोग स्वयमेव होकर श्रमदान करते हैं। इन श्रमदानियों में कस्बे का आम आदमी तो होता ही है अपितु बुद्धिजीवी वर्ग जिसमें शिक्षक, पत्रकार, समाजसेवी आदि-इत्यादि सभी का सहयोग मिलता है। यह है भारतीय जल संरक्षण की पुरातन परम्परा।
बदलते समय के साथ इस परम्परा को घात लगा है। ग्रामीण एवं कस्बाई जिंदगी में तो परम्परा अभी टूटी नहीं है लेकिन शहरों में समस्या सबसे ज्यादा बढ़ी है। इसका सबसे बड़ा कारण है आबादी का लगातार बढऩा और इस आबादी के लिये मकान के इंतजाम करना पहली शर्त होता है और इसी शर्त पर विकास की बलिवेदी पर जलस्रोत बलिदान होते हैं। पहले पहल तो यह जरूरत होती है और बाद के समय में यह जरूरत लालच में बदल जाती है और बढ़ते लालच के कारण शहरों में जलस्रोतों की कमी सबसे बड़े संकट का कारण बनी हुई है। जल संरक्षण परम्परा का न तो शहरों में चलन बच गया है और न ही जल के प्रति उनमें जागरूकता का भाव है। केन्द्र सरकार की जल साक्षरता अभियान की सबसे अधिक आवश्यकता शहरी नागरिकों को है। लोगों में जागरुकता नहीं आती, तब तक इस लक्ष्य को किसी भी अधिनियम अथवा कानून से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। जल से जीवन का प्रारंभ है तो जीवन के महाप्रलय के बाद अंत भी जल ही है। जीवन मरण और भरण-पोषण का आधार जल ही है और यह समझ किसी कानून के डंडे से नहीं आकर स्वयंस्र्फूत प्रयासों से आयेगी। हालांकि केन्द्र सरकार के मंत्री स्वयं मानते हैं कि जल संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए लोक जागरुकता सबसे ज्यादा जरूरी है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज केन्द्र सरकार जल साक्षरता की चर्चा कर रही है और आने वाले दिनों में उसे अभियान के रूप में भी चलाया जायेगा लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि राज्य सरकारों ने जल संरक्षण के प्रति समाज को जागरूक करने का काम काफी समय से करते चली आ रही है। इसी क्रम में रहवासियों के लिये अपने अपने घरों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग कम्लसरी कर दिया गया है। अभी इस पर सौफीसदी अमल नहीं हुआ है लेकिन असर दिखने लगा है।
जल संकट के विषय पर चर्चा करते हैं तो अक्सर स्वच्छ एवं अस्वच्छ का मुद्दा भी उठता है। इस संदर्भ में एक नजर वर्तमान विश्व का 70 प्रतिशत भू-भाग जल से आपूरित है, जिसमें पीने योग्य जल मात्र 3 प्रतिशत ही है। मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों और तालाबों का 38 प्रतिशत, मृदनाम 8 प्रतिशत, वाष्प 1 प्रतिशत, नदियों और 1 प्रतिशत वनस्पतियों में निहित है। इसमें भारत की स्थिति देखें तो आजादी के बाद से लगातार हमारी मीठे जल को लेकर जरूरत कई गुना बढ़ चुकी है। सन् 1947 में देश में मीठे जल की उपलब्धता 6 हजार घन मीटर थी, वह वक्त के साथ इतनी तेजी से घटी है कि आगामी 10 वर्षों में इसके 16 हजार घन मीटर हो जाने की संभावना जाताई जा रही है। भारत विज्ञान की तमाम सफलताओं के बाद भी अभी तक वर्षा जल का मात्र 15 प्रतिशत ही उपयोग कर पा रहा है, शेष बहकर नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है, जबकि आगामी वर्षों में देश में जल की माँग 50 प्रतिशत और बढ़ जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
केन्द्र की सरकार जल साक्षरता की आरंभ करने की बात कर रही है तो उसे पर्यावरण संरक्षण की ओर भी समाज को जागरूक करना होगा। जिस तेजी से वनों का नाश हो रहा है, इसे भी जलसंकट के लिये दोषी माना जा सकता है। जलसंरक्षण के साथ साथ प्रत्येक घरों अथवा कॉलोनियों में वृक्षारोपण पर जोर देना होगा। अक्सर देखा गया है कि बड़े ही उत्साह के साथ अभियान का श्रीगणेश तो कर दिया जाता है लेकिन थोड़े से समय गुजरने के बाद अभियान ठंडा पड़ जाता है। ऐसे में एक रोडमेप बनाकर राज्य सरकारों को सौंप दिया जाये जो इसके क्रियान्वयन के लिये जवाबदार होंगे। इस कार्य को पूर्ण करनेे लिये आवश्यक बजट जारी करने में भी राज्यों का सहयोग पहली शर्त होगी। केन्द्र सरकार का महती अभियान जल साक्षरता के साथ साथ ही जल संरक्षण की भारतीय परम्परा को भी जोडऩा होगा, तभी इस अभियान की सफलता सुनिश्चित हो सकेगी।
(प्रवक्ता.कॉम से साभार)