राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां और द्रौपदी मुर्मू
हम सभी ने अभी हाल ही में अपने देश के नए राष्ट्रपति का चुनाव होते हुए देखा है। भाजपा और उसके साथी दलों की ओर से द्रौपदी मुर्मू को अपना प्रत्याशी बनाया गया था। जिन्होंने शानदार जीत दर्ज कर इतिहास रचा है। द्रौपदी मुर्मू देश की ऐसी दूसरी महिला हैं जो रायसिना हिल्स स्थित भारत के राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करने में सफल हुई हैं। समस्त ‘उगता भारत’ समाचार पत्र परिवार द्रौपदी मुर्मू जी के राष्ट्रपति बनने पर उनका हार्दिक अभिनंदन करता है।
अब जबकि द्रौपदी मुर्मू जी देश की अगली राष्ट्रपति चुन ली गई है तो इस समय यह बहुत समसामयिक होगा कि हम अपने राष्ट्रपति के आपातकालीन अधिकारों व शक्तियों के बारे में कुछ चर्चा करें। वास्तव में हमारे देश के राष्ट्रपति को आपातकालीन अप्रत्याशित परिस्थितियों में संविधान निर्माताओं ने कुछ ऐसी विशेष शक्तियां प्रदान की हैं जिनके उपयोग करने से देश का राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है। यद्यपि व्यवहार में ऐसा अभी तक नहीं हुआ है, परंतु इन आपातकालीन शक्तियों के आलोचकों ने कई प्रकार की शंका – आशंकाएं व्यक्त करते हुए ऐसी टिप्पणियां अनेक बार की हैं।
आपातकालीन शक्तियों के बारे में हमें यह समझना चाहिए कि यह उन विषम परिस्थितियों में ही लागू होती हैं जो देश के लिए अप्रत्याशित हों। सामान्य परिस्थितियों में राष्ट्रपति एक संवैधानिक मुखिया का दायित्व निभाता है, परंतु विशेष और अप्रत्याशित परिस्थितियों में वह कुछ अधिक शक्ति संपन्न हो जाता है।
वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के राष्ट्रपति को “कुछ अधिक शक्ति संपन्न करने” की परिकल्पना राष्ट्र की एकता, अखंडता और तात्कालिक आधार पर आई विषम और अप्रत्याशित परिस्थितियों से निपटने के लिए की है। उससे उन परिस्थितियों में भी अपेक्षा की जाती है कि वह संवैधानिक प्रमुख होते हुए पूर्ण मर्यादित ,संतुलित और अनुशासित आचरण करेगा। आपातकालीन शक्तियों में देश के राष्ट्रपति को राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने की शक्ति संविधान का अनुच्छेद 352 प्रदान करता है। किसी प्रदेश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाने की शक्ति उसे संविधान का अनुच्छेद 356 प्रदान करता है।
इसी प्रकार अनुच्छेद 360 के माध्यम से देश का राष्ट्रपति देश में वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है। जहां तक देश के राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने की बात है तो यह तब ही किया जा सकता है जब युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई हो। ऐसी स्थिति में देश का संविधान हमारे देश के राष्ट्रपति को शक्ति प्रदान करता है कि वह आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है। यहां पर शब्द ‘आपातकाल की उद्घोषणा’ ध्यान देने योग्य है। इसका अभिप्राय है कि राष्ट्रपति आपातकाल की उद्घोषणा करेगा ना कि शासन सत्ता को अपने हाथ में लेकर तानाशाह बनकर देश पर शासन करने लगेगा। ऐसी स्थिति में देश का राष्ट्रपति अपनी आपातकालीन शक्तियों का उपयोग उसी समय करेगा जब उसे लगेगा कि अब भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से अप्रत्याशित खतरा उत्पन्न हो गया है।
भारत के संविधान के 42 वें संविधान संशोधन 1976 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि राष्ट्रपति के पास पूरे देश या किसी विशिष्ट क्षेत्र के लिए उद्घोषणा जारी करने का अधिकार है। यद्यपि इस सब के उपरांत भी राष्ट्रपति का यह अधिकार असीमित नहीं है। उसे अपनी प्रत्येक ऐसी उद्घोषणा को संसद के समक्ष अनिवार्य रूप से रखना होगा। इसका अभिप्राय है कि राष्ट्रपति को ऐसी की गई उद्घोषणाओं को संसद से अनुमोदित कराना अनिवार्य होगा।
संसद से उस समय यह अपेक्षा की जाती है कि वह देशहित में राष्ट्रपति की उद्घोषणा का समर्थन भी कर सकती है और उसे निरस्त कराने की भी बात कह सकती है। राष्ट्रपति की ऐसी उद्घोषणा का संसद के उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत के द्वारा समर्थन किया जाना अनिवार्य है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों का देश के राष्ट्रपति ने अब तक तीन बार उपयोग किया है। 1962 ,1971 और 1975 में राष्ट्रपति के द्वारा इस प्रकार की आपातकालीन घोषणा जारी की गई थी।
हम सभी जानते हैं कि 1962 में चीन ने भारत पर ताबड़तोड़ हमला किया था। उस समय चीन के इस अप्रत्याशित हमले से सारा देश सन्न रह गया था। देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू उस समय ‘हिंदी चीनी – भाई भाई’ का नारा लगा रहे थे और चीन ने हमारी पीठ में छुरा घोंप दिया था। तब देश के राष्ट्रपति ने संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए देश में पहली बार आपातकाल की उद्घोषणा की थी। इसी प्रकार 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था उस समय देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। तब भी देश के राष्ट्रपति ने देश में आपातकाल की उद्घोषणा की थी। इसी प्रकार 1975 में देश में आंतरिक अशांति के नाम पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के राष्ट्रपति से आपातकाल की उद्घोषणा जारी करवाई थी। देश के राष्ट्रपति के द्वारा उस समय की गई आपातकालीन संबंधी उद्घोषणा अभी तक भी आलोचना की पात्र है। क्योंकि वास्तव में उस समय देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने विरुद्ध बने राजनीतिक परिवेश पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राष्ट्रपति से उसकी शक्तियों का दुरुपयोग करवाया था।
देश के संविधान का अनुच्छेद 360 राष्ट्रपति को वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार प्रदान करता है। यदि देश का राष्ट्रपति इस बात को लेकर संतुष्ट है कि ऐसी स्थिति देश में या देश के किसी भाग में उपस्थित या उत्पन्न हो गई है, जिसके कारण भारत या उसके किसी भी भाग की वित्तीय स्थिरता को गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है तो वह अपनी इस प्रकार की शक्तियों का उपयोग करते हुऐ आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
जब राष्ट्रपति देश के किसी भाग में इस प्रकार के वित्तीय आपातकाल की घोषणा करता है तो उस समय उस प्रदेश की कार्यपालिका और विधाई शक्तियां केंद्र के पास चली जाती हैं। इसका अभिप्राय है कि केंद्र को मजबूत करने के लिए इस प्रकार के प्रावधान संविधान में किए गए हैं। कोई भी प्रदेश किसी विषम संकट में जब अपने आपको पाता है तो उस समय केंद्र सक्रिय होकर उसे उस प्रकार की विषम परिस्थिति से उभारने में सहयोग करता है। इसके लिए आवश्यक है कि उन परिस्थितियों में राज्य की सारी विधाई और कार्यपालिका संबंधी शक्तियां केन्द्र में अंतर्निहित हो जाएं। बस, इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इस प्रकार के संविधानिक प्रावधान को स्थापित किया गया है। यदि देश का राष्ट्रपति वित्तीय आपातकाल की घोषणा करता है तो उसे भी संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत देश की संसद से अनुमोदित कराना आवश्यक है। यहां पर यह बात भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब से देश का संविधान लागू हुआ है तब से आज तक देश में कभी वित्तीय आपातकाल की घोषणा नहीं की गई है।
हमारे देश का राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल की रिपोर्ट या अन्य प्रमाणों के आधार पर इस बात को लेकर संतुष्ट हो जाता है कि अमुक राज्य में आपातकाल की स्थिति पैदा हो गई है और वहां का संवैधानिक तंत्र अप्रत्याशित रूप से उपस्थित हुई उस विकट और विषम परिस्थिति से निपटने में अक्षम सिद्ध हो रहा है तो वह आपातकाल की स्थिति घोषित कर सकता है।
इसको हम लोक व्यवहार की भाषा में राष्ट्रपति शासन के नाम से जानते हैं। किसी राज्य में जब कोई मंत्री परिषद विधानसभा में अपना बहुमत खो देती है या राज्य प्रशासन शांति और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने में पूर्णतया विफल हो जाता है या देश के धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक मूल्यों को कहीं अप्रत्याशित संकट उत्पन्न हो जाता है तो उस समय देश का राष्ट्रपति ऐसे राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। देश के राष्ट्रपति के द्वारा इस प्रकार की उद्घोषणा को भी देश की संसद से अनुमोदित कराया जाना आवश्यक है। इस प्रकार की उद्घोषणा 6 महीने तक जारी रहती है । उसके पश्चात उसका कानूनी महत्त्व समाप्त हो जाता है। राष्ट्रपति शासन को समाप्त करने का अधिकार भी राष्ट्रपति के पास ही होता है।
देश के विभिन्न राज्यों में 2018 तक 115 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है। यद्यपि इस प्रकार राष्ट्रपति के द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने में कई बार केंद्र सरकार के पूर्वाग्रहों ने भी काम किया है। इंदिरा गांधी के शासन काल में ऐसा कई बार हुआ जब उन्होंने किसी विपक्षी दल द्वारा शासित प्रदेश की सरकार को अनावश्यक उत्पीड़ित करने के लिए संविधान के इस प्रावधान का दुरुपयोग राष्ट्रपति के माध्यम से किया। वास्तव में केंद्र में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, उसे किसी भी राज्य की विपक्षी दल की सरकार को संविधान के इस प्रावधान की आड़ में बर्खास्त करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि सरकार राज्य में संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत शासन कर रही है तो राजनीतिक शत्रुता साधने के लिए उसे उत्पीड़ित करना संविधान की मूल आत्मा के साथ खिलवाड़ करना है।
प्रशासनिक तंत्र को जानबूझकर असफल घोषित करना या करवाना किसी स्वस्थ व्यक्ति को जबरदस्ती बीमार बनाने जैसा है। जिसे निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति पर किया गया अत्याचार ही कहा जाएगा। देश के राष्ट्रपति से भी अपेक्षा की जाती है कि वह अपने आप को रबड़ स्टांप के रूप में प्रयुक्त ना होने दें । यदि कहीं उन्हें ऐसा दिखाई देता है कि केंद्र की सरकार जानबूझकर किसी विपक्षी दल की राज्य सरकार को उत्पीड़ित करने के दृष्टिकोण से उनकी शक्तियों का दुरुपयोग करना चाहती है तो उन्हें ऐसी बातों पर संवैधानिक प्रमुख के रूप में कड़ाई से संज्ञान लेना चाहिए। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि देश का राष्ट्रपति संविधान का सबसे बड़ा संरक्षक होता है । यदि उसके माध्यम से ही संविधान को तोड़ा मरोड़ा जाता है या उसका दुरुपयोग होता है या उसकी आत्मा के विरुद्ध कोई कार्य किया जाता है तो उस संवैधानिक अपराध में राष्ट्रपति स्वयं भी संलिप्त माने जाएंगे।
देश की नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के बारे में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने अपमानजनक टिप्पणी की और कहा कि उन्हें पढ़ना, लिखना व बोलना नहीं आता। एक मूर्ति को राष्ट्रपति भवन में भेजना ठीक नहीं है। तेजस्वी यादव ने जो कुछ कहा उस पर कोई टिप्पणी किए बिना हम कहना चाहेंगे द्रौपदी मुर्मू अपने एक उज्ज्वल राजनीतिक चरित्र की महिला हैं। उनके दामन पर किसी प्रकार का दाग नहीं है। उनसे हमें यह विश्वास है कि वह देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर रहते हुए उसकी गरिमा का ध्यान रखते हुए काम करेंगी। वास्तव में उनका देश के राष्ट्रपति भवन में पहुंचना देश के करोड़ों आदिवासियों के साथ किया गया न्याय है। जिससे पता चलता है कि देश का लोकतंत्र इस समय सचमुच सबको अवसर देना चाहता है। अवसर मिलना अलग बात होती है, मिले हुए अवसर को अवसर में परिवर्तित करना बड़ी बात होती है। द्रौपदी मुर्मू मिले हुए अवसर को बड़े अवसर में बदलने की कला में कुशल हैं। उनका जीवन त्याग और तपस्या का जीवन है। राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी वह त्याग और तपस्या के इस जीवन को राष्ट्र साधना के रूप में प्रयोग करेंगी, ऐसा हमें विश्वास है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत