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हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

लंदन में भी काम करता रहा था क्रांतिकारियों का एक गुरुकुल

स्वामी ओमानन्द सरस्वती

महर्षि दयानन्द के प्रियतम शिष्य श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा काठियावाड़ राज्य के थे। ये संस्कृत भाषा के धुरन्धर विद्वान थे। महर्षि दयानन्द जी से अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरण को पढ़ा था। महर्षि दयानन्द ने विदेशों में वैदिक धर्म के प्रचारार्थ हो लन्दन भेजा था। महर्षि दयानन्द के साथ इनका पत्रव्यवहार भी था। यह सुशिक्षित तो था ही इसने अपने पुरुषार्थ से पर्याप्त धन भी इकट्ठा कर लिया था। इसने बम्बई से विलायत ( इङ्गलेंड ) में जाकर १९०५ की जनवरी में भारत स्वराज्य सभा ( India Home Rule Society ) स्थापित की और उसके प्रधान भी स्वयं अपने आप श्री श्याम जी कृष्णवर्मा बने और सभा की मुख्य पत्रिका ‘ इण्डियन सोशियोलोजिस्ट ‘ निकाली जिसका मूल्य एक आना मासिक रक्खा। इसका उद्देश्य “ भारत के लिये स्वराज्य करना और यथासम्भव हर प्रकार से विलायत में वास्तविक प्रचार करना“था।
घोषणा
दिसम्बर सन् १ ९ ०५ में कृष्ण वर्मा ने घोषणा की कि को इच्छा है कि एक – एक हजार के छ: वजीफे योग्य भारतीयों को विदेश भ्रमण के लिये दे। जिससे लेखक सम्पादक आदि अमरीका और योरुप देखकर इस योग्य हो जायें कि भारत में स्वतन्त्र और राष्ट्रीय एकता के विचार फैला सकें। उसने एक पत्र और प्रकाशित किया जिसका लेखक पैरिस का एक भारतीय आर० एस० राना था। उसने दो – दो हजार को तीन छात्रवृत्तियां विदेश भ्रमण के लिए महाराणा प्रताप , शिवाजी और तीसरी किसी एक बड़े मुसलमान राजा के नाम पर रखकर देने का वचन दिया।
लन्दन में भारतीय भवन ( गुरुकुल )
कृष्ण वर्मा ने उपरिलिखित कार्यपूत्ति के लिए भारतीय भवन की स्थापना की और इसमें प्रशिक्षण के लिये कृष्ण वर्मा ने कुछ विद्यार्थी ( रंगरूट ) भरती किये जिन में से एक विनायक दामोदर सावरकर था। यह महात्मा तिलक का पत्र कृष्ण वर्मा के नाम लेकर गया था। पहली छात्रवृत्ति वर्मा जी की वीर सावरकर को मिली और वर्मा जो के क्रान्तिकारी गुरुकुल का प्रथम छात्र बना। वीर सावरकर की आयु उस समय केवल २२ वर्ष की थी। यह चित्तपावन ब्राह्मण बी० ए० पास करके पूना से आया था। इसकी जन्मभूमि नासिक थी। उन दिनों महाराष्ट्र में एक महात्मा अगम्य गुरु परमहंस ( संन्यासी ) थे जो भारतवर्ष में घूमकर अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बेधड़क व्याख्यान दिया करते थे और अपने श्रोताओं से कहते थे कि सरकार से मत डरो। इनकी प्रेरणा से पूना में विद्यार्थियों ने एक सभा बनाई जिसका मुखिया वीर सावरकर को उन्होंने चुना। इसी महात्मा जो के परामर्श से कार्य करने के लिए ६ व्यक्तियों की समिति बनाई। इस प्रकार वीर सावरकर देशभक्ति के रंग में रंगे हुए थे और अंग्रेजी राज्य के कट्टर विरोधी बन चुके थे। इसी कारण महात्मा तिलक जी ने उन्हें श्याम जी कृष्ण वर्मा के पास लन्दन भेज दिया।
कृष्ण वर्मा का खोला हुआ भारतीय भवन सन् १९०६ और १९०७ में राजद्रोह का नामी केन्द्र बन चुका था, और जुलाई १९०७ में इसके विषय में पार्लियामेंट में एक प्रश्न भी हुआ और पूछा गया कि सरकार का कृष्ण वर्मा के विषय में क्या इरादा है ? कुछ दिनों पश्चात् सम्भव है इसी पूछताछ के कारण वर्मा जो लन्दन छोड़कर पैरिस चले गये और वहीं रहने लगे। पेरिस में राजद्रोह का कार्य वे अधिक खुलकर करने लगे किन्तु अपने पत्र ‘ इण्डियन सोशियालोजिस्ट ‘ को अब भी इङ्गलेंड में ही छपवाते रहे। प्रकाशक पर १६०६ में मुकदमा चलाया गया और उसे सजा हुई। छपाई का भार फिर दूसरे व्यक्ति ने अपने ऊपर लिया। उसका भी १९०६ में वही हाल हुआ। उसे एक वर्ष का कारावास हुआ। फिर पत्र पैरिस में छपने लगा। कृष्ण वर्मा अपने मित्र एस० आर० राना द्वारा भारतीय भवन लन्दन से सम्बन्ध रखता रहा और उसके कार्यक्रम को चलाता रहा। राना इस कार्य के लिये निरन्तर लन्दन आता जाता रहा। इसी कृष्ण वर्मा के गुरुकुल में ही लाला हरदयाल, भाई परमानन्द , लाला लाजपत राय, मदनलाल धींगड़ा देशभक्त युवक भारत से आकर ( भारतीय भवन ) लन्दन में रहकर क्रान्ति का प्रशिक्षण लेते रहे। यह सब एक प्रकार से कृष्ण वर्मा के क्रान्तिकारी शिष्यों की मण्डली जिन्होंने इङ्गलेंड अमरीका आदि देशों में भारत की स्वतंत्रता अनेक प्रकार के वीरतापूर्ण कार्य किये। श्री श्याम जो कृष्ण वर्मा इस प्रकार का प्रचार करते थे। दिसम्बर सन् १९०७ के उनके इण्डियन सोशियालोजिस्ट में निम्नलिखित लेख प्रकाशित हुआ —
” ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में आन्दोलन खुल्लमखुल्ला नहीं करना चाहिये – अंग्रेजी सरकार को होश में लाने के लिए जोर – शोर से रूसी नीति को काम में लाना चाहिये। यहां तक कि अंग्रेजी अत्याचार ढीला हो जाये और वे देश से भाग निकले। अभी कोई नहीं कह सकता कि किन किन नियमों पर चलना पड़ेगा और किसी विशेष साध्य के लिये हमारी कार्यप्रणाली क्या होगी, यह सब देश और काल के अनुसार ठोक करना पड़ेगा – हाँ सम्भवतः साधारण नियम यह होगा, कि रूसी नीति पहले अंग्रेजो अफसरों के लिए नहीं, बल्कि देशो अफसरों के लिये काम में लाई जाएगी। ”
भारतीय भवन की कार्यवाहीसर कर्जन वाइली का खून
सन् १९०६ में विनायक सावरकर ‘ भारतीय भवन ‘ का नेता माना जाने लगा और वहाँ यह प्रथा सी चल गई कि साप्ताहिक सभाओं में उसको पुस्तक ” सन् १८५७ का भारतीय स्वतन्त्रता का युद्ध – लेखक एक भारतीय राष्ट्रवादी ” का पाठ हुआ करे। इस वर्ष भारतीय भवन के सभासद् लन्दन में एक पहाड़ी पर बन्दूक चलाने का अभ्यास करने लगे और पहली जुलाई सन् १९०६ को ‘ भारतीय भवन ‘ के सभासद् मदनलाल धींगरा नामक युवक ने साम्राज्य विद्यालय को एक सभा में भारत सचिव कार्यालय में राजनीतिक एडिकांग सर कर्जन वाइलो का खून कर दिया। इसी प्रकार अंग्रेजी राज्य की जड़ उखाड़ने का कार्य कृष्ण वर्मा की संस्था ने किया।

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