18.7.2022
कुछ लोग कहते हैं कि “दूसरों के साथ अपनी तुलना या मूल्यांकन नहीं करना चाहिए।” यह तो उन विदेशी लोगों का विचार है, जो वैदिक विचारधारा को नहीं जानते। “वास्तव में यह बात बुद्धिमता पूर्ण नहीं है, और सत्य भी नहीं है। क्योंकि जब तक आप दूसरों से तुलना नहीं करेंगे, आपको जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं मिलेगी।”
“बच्चे जब स्कूल में किसी दूसरे विद्यार्थी के साथ अपनी तुलना करते हैं, और देखते हैं कि दूसरा विद्यार्थी खूब मेहनत कर रहा है, बहुत अच्छे अंक ला रहा है, तो उस दूसरे विद्यार्थी को देखकर, उस पहले बच्चे को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।” उससे अपनी तुलना करने पर, उस बच्चे में भी उत्साह उत्पन्न होता है, कि “मैं भी इसके समान पुरुषार्थ करूंगा. मैं भी अच्छे अंक प्राप्त करूंगा.”
कुछ मूर्ख बच्चे भी होते हैं, जो दूसरों के साथ अपनी तुलना करके उल्टा सोचते हैं। वे इस प्रकार से सोचते हैं, कि “यह दूसरा विद्यार्थी मुझसे आगे क्यों बढ़ रहा है? इसकी टांग खींचनी चाहिए। इसको रोकना चाहिए। इसे किसी उपाय से रोगी बना देना है, इसको परेशान करना है, ताकि यह आगे न निकल सके, और मैं इससे आगे निकल जाऊं।” इस प्रकार की सोच मूर्खों और दुष्टों की होती है। ऐसी सोच बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी पाई जाती है। ऐसी मूर्खता और दुष्टता नहीं करनी चाहिए। बल्कि पहले बच्चे के समान, दूसरे विद्यार्थी को देखकर प्रेरणा लेनी चाहिए, और जीवन में आगे बढ़ना चाहिए।”
इस प्रकार की तुलना या मूल्यांकन तो जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। कदम-कदम पर होता है। उदाहरण के लिए, “यदि आपको कोई कपड़ा खरीदना है, तो आप दुकान पर जाएंगे, वहाँ 4, 6, 8 कपड़े देखेंगे। उनकी तुलना करेंगे। उनका मूल्यांकन करेंगे, तभी तो आप कोई कपड़ा पसंद कर पाएंगे, और खरीद पाएंगे।”
“इसी प्रकार से यदि आपको कंप्यूटर खरीदना हो, मोबाइल फोन खरीदना हो, स्कूटर या कार खरीदनी हो, तो आप 2, 4, 6 वैरायटी अवश्य देखेंगे। उन सबका परस्पर मूल्यांकन करेंगे। तभी आप उस वस्तु को चुन पाएंगे, और खरीद पाएंगे।” इसलिए इस भ्रांति से बचें, कि “मूल्यांकन या तुलना नहीं करनी चाहिए। अवश्य ही करनी चाहिए। इसके बिना आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाएंगे। हानियों से बच नहीं पाएंगे, और लाभ प्राप्त कर नहीं पाएंगे।”
“जो लोग अध्यात्म मार्गी हैं, जो मोक्ष में जाना चाहते हैं, वे भी तुलना करते हैं।” “वे भी ईश्वर और संसार की तुलना करते हैं। इन दोनों का मूल्यांकन करते हैं। तभी वे संसार को हीन तथा ईश्वर को उत्तम स्वीकार कर पाते हैं।” “यदि वे तुलना या मूल्यांकन नहीं करेंगे, तो वे संसार को छोड़ने और मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा भी नहीं कर पाएंगे। तब वे मोक्ष के लिए पुरुषार्थ भी नहीं करेंगे। तुलना या मूल्यांकन किए बिना तो वह मोक्ष में भी नहीं जा पाएंगे।”
कभी-कभी व्यक्ति को निराशा आने लगती है, और उसे ऐसा लगता है कि “मेरे जीवन में कोई उन्नति नहीं हो रही, मेरी प्रगति रुक गई है.” जब ऐसी स्थिति हो, तो स्वयं अपने आप से ही अपनी तुलना करनी चाहिए। अर्थात “आज से 5 वर्ष पहले आपकी कितनी योग्यता थी, और आज कितनी योग्यता हो गई है।” इस प्रकार से अपने पांच वर्ष पहले के स्तर से, अपनी आज की योग्यता की तुलना करनी चाहिए, तो आपको पता चल जाएगा, कि मेरी प्रगति भले ही धीमी गति से हो रही है, परन्तु बंद नहीं हुई है। इसलिए स्वयं अपने साथ भी तुलना करनी चाहिए।”
“अतः तुलना और मूल्यांकन तो सदा एवं अवश्य ही करना चाहिए। और ऊपर दिए उदाहरण में पहले बच्चे के समान, अन्यों से प्रेरणा लेकर जीवन में आगे बढ़ना चाहिए। दूसरे बच्चे की तरह मूर्खता से दूसरों से जलना नहीं चाहिए।”
—– स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।
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