मदर टेरेसा एक बार फिर विवादों के घेरे में
डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
मदर टेरेसा एक बार फिर विवादों के घेरे में आ गई हैं । वैसे तो वे जीवन भर विवादों के घेरे में ही रहीं , लेकिन उनको लेकर भारी विवाद तब शुरु हुआ था जब अरुणाचल प्रदेश की सरकार ने अपने राज्य में जनजाति समुदाय के लोगों की सनातन परम्पराओं की रक्षा के लिये यह क़ानून बना दिया था राज्य में कोई भी व्यक्ति भय , लालच अथवा धोखे से अपना मत परिवर्तन नहीं कर सकता । दरअसल इसाई मिशनरियां राज्य में विदेशी पैसे के बल से राज्य की विभिन्न जनजातियों के लोगों को ईसाई मज़हब में दीक्षित कर रहीं थीं । इससे विभिन्न जनजातियों में आपसी तनाव तो बढ़ ही रहा था , एक ही जनजाति के बीच भी सामाजिक रिश्ते चरमराने लगे थे । एक जनजाति का वह समूह जो मतान्तरित हो जाता था , वह जनजाति के रीति रिवाजों और परम्पराओं का उपहास उड़ाने लगता था और जो समुदाय अपनी सनातन परम्पराओं से जुड़ा हुआ था , वह इसका विरोध करता था । सीमान्त राज्य में इस प्रकार का सामाजिक तनाव भविष्य में घातक सिद्ध हो सकता था , इसको ध्यान में रखते हुये राज्य सरकार ने यह क़ानून बनाया था ।
लेकिन इस क़ानून के विरोध में ईसाई मिशनरियों ने कोलकाता में प्रदर्शन करने व जुलूस निकालने शुरु किये । लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ जब मदर टेरेसा भी इन प्रदर्शनों में अग्रिम पंक्तियों में देखी गईं । मदर टेरेसा सेवा कार्यों में लगी हुई थीं , उनका विदेशी पैसे के बल पर मतान्तरण के काम में लगे इन ईसाई समूहों से क्या सम्बंध था ? फिर यह क़ानून तो सभी समुदायों को एक साथ प्रभावित कर रहा था , केवल ईसाई मिशनरियां हीं इसको लेकर इतनी उत्तेजित क्यों हैं ? ऐसे सभी प्रश्न उन दिनों ही उठने लगे थे । मदर टेरेसा व्यक्तिगत रुप से कैथोलिक ईसाई हो सकतीं हैं , लेकिन एक योजना से मतान्तरित करवा रहे ईसाई संगठनों से उनका गहरा सम्बंध और तालमेल है , ऐसे संकेत इन प्रदर्शनों में भाग लेने के बाद ही मिलने लगे थे ।
इस विवाद के उठने के बाद ही उन दिनों यह प्रश्न गर्माया था कि मदर टेरेसा सेवा के कार्य में लगीं हैं , उन्हें मज़हबी संकीर्णता से उपर उठकर कार्य करना चाहिये न कि मिशनरियों के सहायक बन कर । तब मदर टेरेसा के समर्थकों ने विदेशों में भी शोर मचाना शुरु कर दिया था कि इतनी सेवा करने के बाद भी भारत में उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जा रहा । इस पृष्ठभूमि में मदर टेरेसा की सेवा को लेकर प्रश्न उठने शुरु हो गये थे । मदर टेरेसा की सेवा की चर्चा करते हुये दो भारतीय सन्दर्भ ध्यान में आतें हैं । उन सन्दर्भों के प्रकाश में मदर टेरेसा की सेवा गतिविधियों को सही रुप में समझा जा सकता है । मदर टेरेसा ने अपना सेवा कार्य पश्चिमी बंगाल के कोलकाता से शुरु किया था । इसी प्रकार भगत पूर्ण सिंह ने अपना सेवा कार्य पंजाब के अमृतसर से शुरु किया था । उन्होंने लूले ,लंगडों, अपंगों और दीन दुखियों के लिये जो पिंगलबाडा शुरु किया उसके कारण उनका नाम ही पूर्ण सिंह पिंगलबाडा पड़ गया । इसी प्रकार का एक तीसरा सेवा कार्य बाबा आमेट ने शुरु किया था । कुल मिला कर कहा जा सकता है कि एक समय में ही तीन महापुरुष सेवा कार्य में लगे थे । इनमें से भगत पूर्ण सिंह और बाबा आमटे तो भारतीय थे , इसलिये उनकी सेवा की अवधारणा और संस्कार भी भारतीय थे लेकिन मदर टेरेसा अलबीनिया की रहने वाली थीं , इसलिये उनके संस्कार और सेवा की अवधारणा भी अहल-ए-किताब पर आधारित थी ।
पूर्ण सिंह या बाबा आमटे ने सेवा को मज़हबी प्रचार या श्रेष्ठता के लिये कभी प्रयोग नहीं किया । उनके प्रकल्पों और आश्रमों में सेवा कार्य पूरी तरह पंथ निरपेक्ष था । मदर टेरेसा के बारे में भी कहा जा सकता है कि उनके आश्रमों में भी आने वाले दीन दुखियों की सेवा पंथ निरपेक्ष भाव से ही होती थी । आश्रम में आते समय किसी से पूछा नहीं जाता था कि वह हिन्दू है, सिक्ख है या ईसाई है ? लेकिन आख़िर मदर टेरेसा यह सेवा क्यों कर रही थी ? यह अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है । लेकिन यह प्रश्न अकेले मदर टेरेसा से ही तो नहीं पूछा जा सकता । यह प्रश्न तो फिर बाबा आमटे और भगत पूर्ण सिंह से भी पूछा जा सकता है । इसके उत्तर से ही भगत पूर्ण सिंह और बाबा आमटे की सेवा और मदर टेरेसा की सेवा में अन्तर दिखाई देने लगता है । भगत पूर्ण सिंह की सेवा का उद्देश्य केवल दीन दुखी की सेवा करना ही था । उन्हें इसी से आनन्द मिलता था । सेवा से उनका आत्मा तृप्ति होती है । सेवा ही परम सुख का मार्ग है । यही स्थिति बाबा आमटे की थी । लेकिन मदर टेरेसा के मामले में बात दूसरी है । सेवा वे जरुर करती थीं । लेकिन सेवा उनका साध्य नहीं था । उनका साध्य तो दीन दुखियों को सेवा से प्रभावित करके अन्ततः प्रभु यीशु की शरण में ले जाना है । क्योंकि मदर टेरेसा यह विश्वास करतीं हैं कि प्रभु यीशु मसीह ही सभी के पापों को धारण कर सकते हैं । यही कारण है कि मदर टेरेसा के लिये सेवा साध्य नहीं , बल्कि एक दूसरे साध्य या उद्देश्य को प्राप्त करने का साधन मात्र है । लेकिन इसमें मदर टेरेसा का दोष नहीं है । यह उनके अपने देश और मज़हब के संस्कारों का फल है ।
लेकिन प्रश्न पैदा होता है कि भगत पूर्ण सिंह और बाबा आमटे आख़िर ऐसा क्यों नहीं करते थे ? उसका कारण उनके भारतीय संस्कार थे , जिसमें कहा गया है कि स: एकोसद् विप्रा बहुधा वदन्ति । अर्थात ईश्वर तो एक ही है , विद्वान लोग उसे अलग अलग प्रकार से कहते हैं । इस संस्कार के बाद भगत पूर्ण सिंह सेवा करने के बाद दीन दुखी को पकड़ कर किस की शरण में ले जाते ? क्योंकि पूर्ण सिंह जानते हैं , सामने वाला व्यक्ति जिस भी इष्टदेव की शरण में बैठा है , वह सब एक ही है । अज्ञानी लोग उसे अलग अलग समझने की भूल कर बैठते हैं । विद्वान लोग उसे अलग नामों से पुकारते तो हैं लेकिन उसे अलग समझते नहीं । परन्तु मदर टेरेसा ज्ञान और सेवा की उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी , जिस ऊँचाई तक भगत पूर्ण सिंह और बाबा आमटे पहुँच गये थे । एक भक्त बिना किसी स्वार्थ के भगवान की आराधना करता है । और दूसरा भक्त किसी इच्छा की पूर्ति के लिये भगवान की आराधना करता है । दोनों आराधनाओं में से वही आराधना श्रेष्ठ मानी जाती है जो बिना किसी इच्छा या कामना से की जाये । यही स्थिति सेवा की है । एक व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ से दीन दुखी की सेवा करता है और दूसरा अपने स्वार्थ के लिये सेवा का काम करता है । सेवा तो दोनों ही हैं , लेकिन पहले प्रकार की सेवा उत्तम कोटि में आती है । क्योंकि दूसरे प्रकार की सेवा में , जब सेवा करने वाले की कामना पूरी हो जाती है अर्थात सेवा के नाम पर जिसकी देखभाल की जा रही है जब वह चर्च में पहुँच जाता है तो सेवा का फल अपने आप समाप्त हो जाता है । भगत पूर्ण सिंह और बाबा आमटे की सेवा पहले प्रकार की थी और मदर टेरेसा की सेवा दूसरे प्रकार की थी ।
शुरु में मदर टेरेसा द्वारा की जा रही इस रंगदार सेवा के पीछे की भावना लोगों की पकड़ में नहीं आई , क्योंकि भारत के लिये सभी का मूल्याँकन अपने संस्कारों और मानदंडों से ही करते हैं । लेकिन जब मदर टेरेसा खुले रुप में कोलकाता की सड़कों पर अरुणाचल प्रदेश की जनजातियों की सांस्कृतिक सुरक्षा के लिये बनाये गये क़ानून के ख़िलाफ़ घूमने लगी तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक ही था । तभी उनके सेवा प्रकल्पों के पीछे छिपी ईसाई मिशनरियों की फ़ौज दिखाई देने लगी थी । उनकी इस गिरती साख को बचाने के लिये यूरोप और अमेरिकी चर्चों ने जोड़ तोड़ से नाबेल पुरस्कार इत्यादि का बन्दोबस्त किया । यूरोप के लोग इतना तो समझ ही चुके थे कि हिन्दोस्तान के लोगों में यूरोप से मिले तगमों इत्यादि का मोह और आतंक ग़ुलामी से मिली आज़ादी के दशकों बाद भी बरक़रार है । इतना ही नहीं मदर टेरेसा के मरने के बाद भी उनको चमत्कारी इत्यादि बनाने के लिये कुछ हरकतें की जाने लगीं । किसी ने कहा कि मदर टेरेसा ने स्वप्न में उनका हाथ छू दिया तो उसका कैंसर समाप्त हो गया । इस प्रकार की एक दो घटनाएँ प्रचारित करने के बाद वेटिकन देश के राष्ट्रपति ने उसे मरने के बाद संत की उपाधि से विभूषित किया । यह सारा कुछ इस लिये किया गया कि मदर टेरेसा के मरने के बाद भी उसके नाम पर ही मतान्तरण का काम जारी रखा जा सके । जिस सेवा के पीछे इतनी लम्बी योजना हो और मरने के बाद भी उसे भुनाने के लिये शिष्य मंडली के लोग ही नहीं बल्कि यूरोप के एक देश के राष्ट्रपति तक शामिल हों , उस सेवा का दर्जा क्या हो सकता है ? भगत पूर्ण सिंह या बाबा आमटे के शिष्यों को उनके मरने के बाद उनमें चमत्कारी शक्तियाँ आरोपित करने की जरुरत नहीं पडी । लेकिन इसे मदर टेरेसा का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि उनके मरने के बाद भी विवाद उनका पीछा नहीं छोड़ रहे ।
पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने कहीं सेवा के विभिन्न प्रकारों का ज़िक्र करते हुये मदर टेरेसा का भी उल्लेख कर दिया । उसी को लेकर चर्च ने हो हल्ला मचा दिया । एक बात समझ से परे है । इस बार सोनिया गान्धी का परिवार खुल कर मदर टेरेसा की सेवा के पक्ष में खड़ा हो गया । उनके दामाद राबर्ट बढेरा ने वाकायदा मीडिया से बात कर इस पर दुख ज़ाहिर किया । बेहतर हो राबर्ट बढेरा आँसू बहाने से पहले भगत पूर्ण सिंह और बाबा आमटे की जीवनी पढ़ लें ।