ओ३म्
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हमें किसी बात को सिद्ध करना हो तो हमें लिखित व दृश्य प्रमाण देने होते हैं। ईश्वर है या नहीं, इसका लिखित प्रमाण हमारे पास वेद के रुप में विद्यमान है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है अर्थात् वेद ईश्वरप्रोक्त व ईश्वर के कहे हुए हैं। वेदों का ज्ञान ईश्वर से मनुष्यों तक कैसे आया, इसका उल्लेख ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में किया है। यह वर्णन इतना स्वभाविक, सरल, सत्य और प्रामाणिक है कि यदि इसे कोई शुद्ध व पवित्र मन व आत्मा का व्यक्ति पढ़ता है, इस पर सूक्ष्मता से विचार करता है तो उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद मनुष्यकृत ज्ञान नहीं अपितु अपौरुषेय अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान है। आज भी मनुष्य ईश्वर के नाम पर जड़ पदार्थों की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हैं। यह ऐसा ही है कि जैसे हम अपने माता-पिता व आचार्यों की जो हमारे निकट साक्षात् स्वरुप से विद्यमान हों, उनका कैमरे से चित्र बनाकर अथवा उरनकी मूर्ति बनाकर उस पर माला चढ़ायें, फूल, वृक्षों के पत्ते व जल आदि उन पर चढ़ायें और वहां कुछ धन भी रख दें। जिस प्रकार से इस काम को सामान्य व्यक्ति अनुचित कहेगा, उसी प्रकार से माता-पिता व आचार्य भी उस मनुष्य को मतिमन्द ही कहेंगे। माता-पिता व ईश्वर की पूजा उनकी आज्ञाओं का पालन व उनकी सेवा करना आदि कार्य हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान तथा सर्वान्तर्यामी है। उसे हमारी सेवा व पूजा की आवश्यकता नहीं है। हमें उसकी वेदाज्ञा का पालन और उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी है जिससे हमें इन कार्यों को करने के लाभ प्राप्त हो सकें। ईश्वर हमारे सभी कर्मों का साक्षी भी है। हम उसे नहीं देख पा रहे हैं। इसके लिए हमें उन साधनों को अपनाना पड़ेगा जिससे ईश्वर का साक्षात्कार या प्रत्यक्ष होता है। ऐसा करके हम ईश्वर को यथार्थ रुप में जान सकेंगे व उसका प्रत्यक्ष कर सकेंगे। यह भी विचारणीय है कि हम जीवन में सुख चाहते हैं, दुःख का लेश भी नहीं चाहते। हमें दुःख कौन देता है, इसका उत्तर यह है कि कर्म फल व्यवस्था के अनुसार ईश्वर ही हमें हमारे जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों का फल देता है जो कि सुख व दुःख रूपी होता है। मनुष्यों में भिन्न-2 प्रकार के सुख व दुःख भी ईश्वर के अस्तित्व का परिचय कराते हैं।
बहुत से लोग पूछते हैं कि यदि ईश्वर है तो वह दीखता क्यों नहीं? इसका उत्तर यह है कि संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं, चेतन व जड़। चेतन पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म व निरावयव हैं। दूसरी सत्ता जड़ प्रकृति है। यह प्रकृति भी अपनी मूल वा कारण अवस्था में अत्यन्त सूक्ष्म है और इसे मनुष्य व अन्य प्राणी अपनी आंखों से नहीं देख सकते। यह मूल प्रकृति जब ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में परमाणु व अणु रुप में परिवर्तित की जाती है तो हम उसके बाद अपनी आंखों से केवल स्थूल पदार्थों को ही देखते पातें हैं। आकाश, जल व वायु में अनेक सूक्ष्म कीटाणु होते हैं जिन्हें हम आंखों से नहीं देख सकते। सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से कुछ सूक्ष्म कीटाणुओं को देखा जा सकता है। विज्ञान परमाणु को मानता है परन्तु आज तक किसी वैज्ञानिक ने परमाणु को आंखों से देखा नहीं है। केवल अध्ययन व कुछ परीक्षणों के आधार पर उनकी सिद्धि होती है और उन्हें माना जाता है। हमारे शरीर में हमारी आत्मा है। हमें अपनी आंखों से अपने व दूसरों के शरीरों के तो दर्शन होते हैं परन्तु उन सभी शरीरों के भीतर जो सूक्ष्म आत्मा है वह हमें दिखाई नहीं देती। मृत्यु के समय भी जब आत्मा सूक्ष्म शरीर सहित निकलती है, तब भी वहां विद्यमान लोगों को मृत्यु को प्राप्त हो रहे मनुष्य की आत्मा दिखाई नहीं देती। ईश्वर हमारी आत्मा से भी सूक्ष्म है। अतः आत्मा से भी सूक्ष्म पदार्थ ईश्वर का आंखों से दिखाई देना असम्भव है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर है ही नहीं। ईश्वर है परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी होने के कारण वह दिखाई नहीं देता। वायु भी अणु रूप में है परन्तु वह अणु इतने छोटे होते हैं कि वह भी हमें आंखों से दिखाई नहीं देते, फिर भी हम वायु के अस्तित्व को अपनी बुद्धि व उसके स्पर्श गुण के आधार पर उसका होना स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार संसार में ऐसे अनेक पदार्थ हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म हैं परन्तु आंखों से न दिखने पर भी हम उनका अस्तित्व स्वीकार करते हैं।
ईश्वर को जानने के लिए गुण व गुणी का सिद्धान्त अत्यन्त व्यवहारिक प्रतीत होता है। किसी भी पदार्थ को हम उसके गुणों से जानते हैं। गुणी के दर्शन हमें नहीं होते हैं। रसगुल्ले का उदाहरण प्रायः दिया जाता है। रसगुल्ले की आकृति के अनेक पदार्थ होते हैं परन्तु जिसमें रसगुल्ले का पूर्वानुभूत स्वाद हो, उसी को रसगुल्ला कहा जाता है। आकृति व कोमलता के गुण रसगुल्ले के समान होने पर भी उसमें रसगुल्ले का वास्तविक स्वाद आवश्यक है तभी उसे रसगुल्ला कहा जाता है। ईश्वर को यदि जानना व देखना है तो उसके गुणों को देख व जानकर जाना जा सकता है। मनुष्य जो रचनायें करता है उससे उसकी बनाई वस्तु को देखकर पौरुषेय रचनाकार मनुष्य का ज्ञान होता है। इसी प्रकार पुस्तक को देखकर इसके लेखक, मुद्रक, प्रकाशक, क्रेता व विक्रेता आदि का भी ज्ञान होता है। जब हम सृष्टि को देखते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि इस सृष्टि में विद्यमान असंख्य वा अनन्त सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व लोक लोकान्तर आदि हैं जो स्वयं नहीं बन सकते। इन्हें जिसने बनाया व जिसने इन्हें व्यवस्था दी है वह ईश्वर है अन्य कोई नहीं। यह सभी लोक लोकान्तर ईश्वर द्वारा निर्धारित अपने अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल रहे हैं व ईश्वर के प्रयोजन को सफल कर रहे हैं। इस सृष्टि व लोक लोकान्तरों आदि का रचयिता व धारणकर्ता केवल सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य व अमर परमेश्वर का होना ही सम्भव है। स्वामी दयानन्द ने इस बात को सिद्धान्त रुप में कहा है। वह लिखते हैं कि रचना विशेष आदि गुणों को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। फूल को देखकर उसकी रचना विशेष आदि गुणों से ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। यदि फूल का अस्तित्व है, उसके गुण, कर्म व स्वभाव सत्य हैं तो फिर उसकी रचना मनुष्येतर सत्ता ईश्वर के द्वारा मानना भी आवश्यक है। मनुष्य फूल उत्पन्न नहीं कर सकते। मनुष्य के अतिरिक्त फूल को बनाने वाली अन्य कोई सत्ता भी नहीं है। अतः मनुष्य, सभी प्राणी व यह सृष्टि ईश्वर के द्वारा बनी है। वही इन सबको धारण व व्यवस्थित किये हुए है।
प्रश्न होता है कि ईश्वर को संसार बनाने की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर है कि ईश्वर ने इस सृष्टि से पूर्व अनादि काल से अनन्त बार सृष्टि की रचना की है। वह यह कार्य इसलिये करता है कि उसे सृष्टि बनाने का ज्ञान है और साथ ही सृष्टि बनाने की सामथ्र्य व शक्ति भी उसमें है। ईश्वर यह सब काम सहज स्वभाव से कर सकता है, अतः वह इस सृष्टि को बनाता है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण हैं कि ईश्वर सहित जीवात्मा का भी इस संसार में अस्तित्व है। यह जीवात्मायें भी अनादि काल से हैं। जीवात्मा चेतन व अल्पज्ञ स्वभाव वाले और जन्म-मरण धर्मा है। वह मनुष्य योनि में जन्म लेकर जो शुभ व अशुभ कर्म करते है, उसे पुण्य व पाप कहते हैं। ईश्वर न्यायकारी है। वह पक्षपातरहित न्याय करता है। अतः जीवात्मा वा मनुष्यों के कर्मों का सुख व दुःख रुपी फल देना उसे अभीष्ट है। जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार फल देना उसका कर्तव्य व दायित्व है। इस कार्य को करने के लिए ही वह सृष्टि की रचना, वेदों का ज्ञान, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म, सृष्टि का पालन व सृष्टि की प्रलय आदि कार्य करता है। जो लोग वेदाचरण कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं उनको मोक्ष सुख भुगाने का दायित्व भी ईश्वर का है। अतः इस सृष्टि पर समग्रता से विचार करने पर इसमें ईश्वर नाम की सत्ता का होना सिद्ध हरेता है। ऋषि दयानन्द आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के सत्यस्वरूप का वर्णन किया है। यह वर्णन सत्य व यथार्थ है। युक्ति व तर्क संगत भी है। वेद और ऋषि दयानन्द के अनुसार ‘ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ईश्वर सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मों का फल प्रदाता है, वेद ज्ञान का दाता और सृष्टि की पालन व प्रलय करने वाला भी है। हमें उसके उपकारों को स्मरण कर उसका धन्यवाद नित्य प्रति करना चाहिये। हमारी इस चर्चा से संसार में एक सचिच्चदानन्दस्वरूप, निराकार, अतिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, अनादि तथा नित्य सत्ता का होना ज्ञात व सिद्ध होता है। जीवात्मा वा मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह ईश्वर के यथार्थस्वरूप वा गुण, कर्म तथा स्वभावों को जानें और उसकी उपासना से उसका साक्षात्कार करने सहित जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष का आनन्द प्राप्त करे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य