भूमि−अधिग्रहण कानून को लेकर देश में जबर्दस्त हलचल मची हुई है। अपने आपको किसानों का प्रतिनिधि बतानेवाले कई संगठनों ने काफी प्रभावशाली प्रदर्शन कर दिए हैं। कांग्रेस ने, अपना लचर−पचर ही सही, विरोध तो जाहिर किया है। प्रदर्शनों और संसद में चाहे मां−बेटा कुछ न बोलें लेकिन कई हारे−थके कांग्रेसी नेता जतंर−मंतर पहुंच गए। भाजपा−गठबंधन के भी कई घटक बगावत की आवाजें उठा रहे हैं। शिव सेना, पासवान लि. कंपनी, अकाली दल ने भी भूमि−अधिग्रहण अध्यादेश में संशोधन की मांग की है। राज्यसभा में बहुमत धारण किए हुए लगभग सारे विरोधी दल एक हो गए हैं। इस अध्यादेश को अब यदि सरकार कानून बनवाने पर आमादा हुई तो इसे अब लोकसभा और राज्यसभा के संयुक्त अधिवेशन में ही पारित करवाना पड़ेगा। सरकार भी नरम पड़ी है। उसने नए सुझावों पर विचार करने के लिए एक कमेटी बना दी है।
इस सारी बहस में कुछ ऐसे मुद्दे उभरते हैं, जिससे हमारे नेताओं का थोथापन जमकर उजागर होता है। जिन दलों ने कांग्रेस−सरकार द्वारा लाए गए इस मूल कानून का स्पष्ट समर्थन किया था, वे अब इसका विरोध कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? क्योंकि वे अब सत्ता में हैं। अब उनके तर्क बदल गए हैं। इसका अर्थ क्या यह नहीं कि वे या तो पहले गलत कर रहे थे या अब गलत कर रहे हैं? अनेक कांग्रेसी राज्य सरकारों ने अपनी ही सरकार के इस केंद्रीय कानून के कई पहलुओं पर आपत्ति की थी। दूसरे शब्दों में एक ही मुद्दे पर राजनीतिक दलों की राय अकारण ही बदल जाती है। इसलिए आम जनता यह नहीं समझ पाती है कि किसी भी मुद्दे पर सही राय क्या है?
भाजपा द्वारा लाए जा रहे कानून में दो बातें सबसे अधिक आपत्तिजनक मानी जा रही हैं। पहली तो यह कि जिन किसानों की जमीन पर सरकार कब्जा करेगी, उनमें 70 प्रतिशत की सहमति की बजाय अब 50 प्रतिशत की सहमति जरुरी होगी और कांग्रेसी कानून का यह प्रावधान भी खत्म कर दिया जाएगा कि किसी जमीन पर कब्जा करने के पहले सरकार उसके सामाजिक परिणामों का अध्ययन करवाएगी। याने कहीं उन किसानों के परिवारों को भयंकर हानि तो नहीं होगी। मोदी सरकार पर आरोप है कि वह ऐसा इसलिए कर रही है कि वह उद्योगपतियों को जबर्दस्त फायदा पहुंचाना चाहती है। यह आरोप बिल्कुल सच भी हो सकता है लेकिन मानो मैं सरकार की मंशा पर शक न भी करुं तो मैं पूछना चाहता हूं कि 50 या 70 की बजाय किसानों की सहमति को, वह 90 प्रतिशत क्यों नहीं कर देती? किसी भी किसान के लिए उसकी जमीन उसकी जान से भी प्यारी होती है। उस पर कब्जा करते वक्त आप उसकी सहमति क्यों नहीं लेंगे? जब आप उसे बाजार भाव से चार गुना ज्यादा पैसा दे रहे हैं तो अपनी सहमति वह क्यों नहीं देगा? जहां तक सामाजिक परिणामों के मूल्यांकन का प्रश्न है, वह कौन करेगा? विशेषज्ञ और अफसर! वे देशहित की ही बात करेंगे। यदि वे उस कब्जे को अनुचित पाएंगें, तो वैसा कहेंगे। इस प्रावधान को भी हटाने का कोई कारण नहीं है। कुछ प्रावधान ऐसे भी होने चाहिए कि भूमि देनेवाले किसानों को 50 या 100 साल तक स्वामित्व−राशि लगातार मिलती रहे। प्रधानमंत्री यदि इस मुद्दे को अपनी इज्जत का सवाल बनाएंगे तो घाटे में रहेंगे और लचीलापन दिखाएंगे तो किसानों और उद्योगपतियों, दोनों के प्रिय बन जाएंगे।