दिल्ली की नीतियों तले कलम छोड़ फिर बंदूक न उठा लें कश्मीरी ?

दिल्ली-कश्मीर के बीच तालीम की कड़ी टूटने से बचाएं मोदी-मुफ्ती 

पुण्‍य प्रसून वाजपेयी

घाटी संगीनों के साये से मुक्त कैसे हो सकती है। कैसे उन हाथों में दुबारा कलम थमा दी जाये जो बंदूक और पत्थर से अपनी तकदीर बदलने निकले थे। कैसे युवा पीढी रश्क करें कि पहली बार पीडीपी-बीजेपी की सरकार घाटी में विकास की नयी बहार बहा देगी। यह सवाल घाटी में हर सियासी मुलाकात में गूंजे और दिल्ली में भी सत्ता गढने के दौर में शिकन इन्हीं सवालों को लेकर था। क्योंकि कश्मीर की सत्ता में जो रहे लेकिन रास्ता तो उन्ही बच्चों के जरीये निकलेगा जिनके हाथो में बंदूक रहे या कलम। जिनके जहन में हिन्दुस्तान बसे या सिर्फ कश्मीर। यह सारे हालात अब नयी सत्ता को तय करने होंगे। और सबसे बड़ा इम्तिहान तो नयी सरकार का यही होगा कि कश्मीरी बच्चे बेखौफ होकर देश को समझ सके। पढ़ने के लिये कश्मीर से बाहर निकल सके। और वापस कश्मीर लौट कर बताये कि भारत कितना खूबसूरत मुल्क है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि पांच बरस पहले दिल्ली ने तय किया था कि कश्मीरी बच्चों को देश के हर हिस्से में पढने के लिये रास्ता बनाया जाये और पांच बरस के भीतर ही दिल्ली की नीतियों ने कश्मीरी बच्चो के कश्मीर से बाहर पढ़ने पर ब्रेक लगा दी। असल में 2010 में मनमोहन सरकार ने घाटी के आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों के बारहवी पास बच्चो के लिये वजीफा देकर कश्मीर से बाहर पढ़ाने की नीति बनायी। तय हुआ कि हर बरस केन्द्र सरकार से पांच हजार उन कश्मीरी बच्चों को देश के किसी भी संस्थान में पढने के लिये ट्यूशन फीस और हास्टल का किराया देगी जिनके परिवार की आय सालाना छह लाख रुपये से कम होगी। सितंबर 2010 के फैसले का असर हुआ और पहली बार 2011 में पांच हजार तो नहीं लेकिन घाटी के 89 बच्चे सरकारी खर्च पर पढ़ने बाहर भी निकले। ये बच्चे करगिल से लेकर लेह और पुलवामा से लेकर अनंतनाग तक के थे। कश्मीर के 89 बच्चों के भारत के अलग अलग में पढ़ाई शुरु की।

तो छुट्टियों में वापस लौटने पर कश्मीर से बाहर के हिन्दुस्तान को भी बताया। इसका असर भी हुआ। और जिन इलाकों से बच्चे पहली बार घाटी से बाहर निकल कर पढ़ने पहुंचे उनकी खुशी देखकर अगली खेप में जबरदस्त उत्साह घाटी में हुआ। गरीब परिवारों को पहली बार बच्चों को पढाने का रास्ता खुला तो बरस भर के भीतर तादाद 35 से साढे तीन हजार पहुंच गयी। यानी घाटी के साढे तीन हजार बच्चे 2012 में देश के अलग अलग हिस्सो के शिक्षण संस्थानों में पढ़ने निकले। घाटी में बच्चों को बाहर भेज कर पढाने का सुकून और सुरक्षा दोनों ने घाटी के परिवार वालों का दिल जीता तो 2013 कश्मीरी बच्चो की संख्या बढकर चार हजार पहुंच गयी। खास बात यह थी कि घाटी का जो बच्चा कश्मीर से बाहर निकल कर जिस संस्थान में पढ़ने पहुंचा, उसने वहां के वातावरण को जब कश्मीरी के अनुकूल बताया तो अगली जमात के बच्चों ने जब बारहवी पास की तो फिर उसी संस्थान में नाम लिखाया जिसमें पहले उसके स्कूल या गांव का बच्चा पढ रहा था। असर इसका यह हुआ कि सरकार ने जो नियम घाटी के बच्चों को देश के अलग अलग संस्थान में भेजने के लिये बनाये थे वह टूटा। असल में मनमोहन सरकार ने माना था कि देश में हर शिक्षा संस्थान में सिर्फ दो ही कश्मीरी बच्चों को वजीफे के साथ पढ़ाया जाये। यानी कल्पना की गयी कि देश भर में कश्मीरी बच्चे पढ़ने के लिये निकले। लेकिन दो हालात से दिल्ली कभी वाकिफ रही नहीं । पहली की देश में ढाई हजार शिक्षण संस्थान है कहां। और दूसरा कश्मीर घाटी से पढ़ाई करने के लिये निकले बच्चों के परिजन ही अभी कहां इस मानसिकता में आये हैं कि वह अपने बच्चे को बिलकुल नयी जगह पर पढने के लिये भेज दें ।

असर इसका यह हुआ कि उन्ही संस्थानो में बच्चों के जाने की तादाद बढी जहा पहले से कश्मीरी बच्चे पढ रहे थे। मनमोहन सरकार के दौर में इस नियम को लचीला रखा गया। यानी कितने भी बच्चे किसी संस्थान में पढ़ रहे हैं, उन सभी को केन्द्र सरकार द्वारा तय विशेष वजीफा दिया गया। क्योंकि अधिकारियो से लेकर शिक्षण संस्थानों तक ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया कि कश्मीर से निकले बच्चे सामूहिक तौर पर रहना चाहते है । और अभी भी बच्चे दोस्त बनाने के लिये किसी कश्मीरी को ही खोजते हैं। हालांकि कुछ अर्से में सभी बच्चे आपस में खुल जाते है तो दूसरे प्रांत के बच्चों के साथ दोस्ती करते हैं। लेकिन बच्चो के मां-बाप भी यह चाहते है कि जहां पर पहले से कोई कश्मीरी पढ रहा है तो उसी जगह उसके बच्चे का दाखिला हो। खैर , असर यही हुआ कि कश्मीरी बच्चों को विशेष वजीफा मिलता रहा। लेकिन दिल्ली में सरकार बदली तो झटके में उन्हीं अधिकारियों ने उन्हीं नियमों को कड़ा कर दिया, जिन नियमों को कश्मीरी नजरिये से लचीला किया गया था। फिर दिल्ली तो दिल्ली है। उसका नजरिया तो दस्तावेज पर दर्ज नीतियों के आसरे चलता है तो 2014 में झटके में मानवसंसाधन मंत्रालय ने कश्मीरी बच्चों के वजीफे पर रोक यह कहते हुये लगा दी कि हर संस्धान को सिर्फ दो बच्चो के लिये ट्यूशन फीस और हास्टल फीस दी जायेगी। अब सवाल था कि 2013 में जो चार हजार बच्चे

घाटी से निकल कर देश के 25 संस्थानो में पढाई कर रहे थे उनमें से सिर्फ 50 बच्चो को ही विशेष वजीफा मिलता। बाकि बच्चों का क्या होगा । क्योंकि जिन हालातों से निकल कर घाटी के बच्चे शहरो तक पहुंचे थे, उनकेसामने दोहरा संकट हो गया। एक तरफ पढाई शुरु हो चुकी है तो दूसरी तरफ कालेज संस्थानों ने बताय़ा कि सरकार उनकी ट्यूशन फीस और हास्टल फीस नहीं दे रही है। तो बच्चे क्या करें। शिक्षण संस्थानो ने मानव संसाधन मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया लेकिन मंत्री से लेकर बाबू तक ने जबाब यही दिया कि नियम तो नियम है । कालेजों के सामने मुश्किल यह आ गयी कि बच्चो की पढाई सिर्फ स्नातक की थी . सरकार ने ढाई सौ बच्चो को इंजीनियरिंग और ढाई सौ बच्चो को मेडिकल कोर्स करने के भी वजीफा देने की बात कही थी। तो जो बच्चे इजीनियरिंग और मेडिकल कर रहे थे अब वह क्या करें। हालांकि किसी शिक्षण संस्थान से अभी तक कोई बच्चा निकाला तो नहीं गया है लेकिन 15 दिन पहले लग अलग कालेज और विश्वविधालयों के जरीये शिक्षा सचिव मोहन्ती और मानवसंसाधन मंत्री स्मृति इरानी को जो चिट्टी सौपी गयी उसने कालेज प्रबंधन के इस संकट को उभार दिया है कि अगर बच्चों के ट्यूशन फीस और हास्टल फीस का भुगतान नहीं होता है तो कश्मीरी बच्चो की पढाई बीच में ही छूट जायेगी।

खास बात यह है कि न सबके बीच मानव संसाधन मंत्रालय ने तय किया कि वह खुद इसबार श्रीनगर में घाटी के बच्चो के रजिस्ट्रेशन के लिये कैंप लगायेगा। कैंप ठीक झेलम में आई बाढ़ से पहले लगाया गया। कैंप में बच्चो के साथ मां-बाप भी पहुंचे । अधिकतर मां-बाप ने उन्ही कालेजों में बच्चो को भेजना चाहा, जहां पहले से कोई कश्मीरी बच्चा पढ़ रहा था। लेकिन अधिकारियों ने साफ कहा कि हर कालेज में सिर्फ दो ही बच्चों का रजिस्ट्रेशन होगा। यानी एक साथ एक जगह रजिस्ट्रेशन कराने पर वजीफा नहीं मिलेगा। खास बात यह भी है कि दिल्ली से गये अधिकारियों का नजरिया घाटी को लेकर तक में समाये उसी कश्मीर का ही उभरा जिससे निजात पाने के लिये दिल्ली से कश्मीर तक लगातार पहगल हो रही है। अधिकारियों ने तमाम कालेज प्रबंधन को कहा कि नियम कहता है एकमुश्त एक जगह कश्मीरियों को पढाया नही जा सकता। और मौखिक तौर पर यह साफ कहा कि कश्मीरी बच्चे एक जगह पढेगे तो कानून-व्यवस्था का मामला खड़ा हो जाता है। इस समझ का असर यह हुआ कि घाटी से देश के अलग अलग हिस्सो में जाने वाले बच्चों की तादाद पुराने हालातों में लौट आयी। सौ से कम रजिस्ट्रेशन हुये। और 2014 में समूची घाटी से सिर्फ 2300 बच्चे ही पढाई के लिये निकले हैं। लेकिन इनमें पैसे वाले भी हैं। यानी घाटी के गरीब परिवारों के सामने का वह संकट फिर आ खड़ा हुआ कि कि अगर बच्चे तालिम के लिये कश्मीर से बाहर नहीं निकले तो फिर दुबारा उसी आंतक के साये में खुद को ना खो दें, जिसे 1990 के बाद से लगातार कश्मीर ने देखा भोगा है। क्योकि बीते पांच बरस में दिल्ली की पहल पर करीब दस हजार बच्चे पढाई के लिये देश के अलग अलग हिस्सो में पहुंचे । और अब दिल्ली की ही नीतियो की वजह से अगर उनमें साढे चार हजार बच्चो को पढाई बीच में छोडकर घाटी लौटना पड गया तो फिर सवाल प्रधानमंत्री

मोदी के साथ राज्य के सीएम बनने जा रहे मुफ्ती मोहम्मदसईद के हाथ मिलाने भर का नहीं होगा । सवाल हाथ मिलाने के बावजूद दिलो के टूटने का होगा । क्योकि  जो बच्चे मुल्क को अपनी तालिम से समझ रहे है उनमें एलओसी से लेकर अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर बसे गांव के बच्चे भी है और आंतक से प्रभावित परिवारो से लेकर पलायन का दर्द झेल रहे कश्मीरी पंडितो के परिवार के बच्चे भी हैं। और अनंतनाग, पूंछ, बारामूला, कुलगाम, कूपवाडा , करगिल, जम्मू. रामबन,सांबा, पट्टन,शोपिया , घारगुलम, लेह और डोडा तक के साढे आठ हजार बच्चे हर छुट्टियो में जब घर लौटते है तो मुल्क की खुशनुमा यादो को बांटते है। यह कडी टूटे नहीं यह गुहार तो कश्मीर में बनने वाली नयी सरकार से लगायी ही जा सकती है जिसकी डोर भी दिल्ली में बंधी होगी।

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