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बिखरे मोती

मंगल – सूत्र का महत्व:-

मांगालिक मर्यादा का,
द्योतक मंगल – सूत्र।
सुहाग और सौभाग्य को,
करता परम पवित्र॥1783॥

मानव होता मौन है,
जब अनुभव पक जाय।
आधे – अधूरे ज्ञान से,
अधिक बोलता जाय॥1784॥

बेशक गहरी रात हो,
अन्त में हो प्रभात।
हिम्मत से तू काम ले,
बनेगी बिगड़ी बात॥1785॥

एक सहारा ओ३म् है,
बाकी झूठी बात।
भक्ति – भलाई कर चलो।
यही चलेगी साथ॥1786॥

वाणी की कर साधना,
बना रहे सद्भाव।
एक वाणी की चूक से,
पैदा हो दुर्भाव॥1787॥

वाणी से व्यवहार है,
मन वाणी का मूल।
वाणी विकृत करने की,
कभी ने करना भूल॥1788॥

शिष्ट पुरुष करते नहीं,
विभूति पाय घमण्ड।
ओछे नर ही करत हैं,
विभूति पाय घमण्ड॥1789॥

दूर व्योम में पहुंचा पंछी,
स्वतः तैरता जाय।
मन की दूरी से व्यसन,
स्वतःछूटता जाय॥1790॥

अपयश जैसा दु:ख नहीं,
बेशक होय कुबेर।
कुल – प्रतिष्ठा एक ही,
देता दुष्ट बिखेर॥1791॥

जीवन के दो लक्ष्य हैं,
अभ्यदय – नि:श्रेष।
इन दोनों के योग से,
धर्म का हो उन्मेष॥1792॥

शुचिता जितनी चित्त में,
उतना शास्त्र में ध्यान।
मनोयोग से ही मिले,
परम तत्त्व का ज्ञान॥1793॥

जैसे ही विश्वास में,
पैदा हो सन्देह।
लाख यतन के बाद भी,
नहीं निपजता नेह॥1794॥

रसों का राजा प्रेमरस,
हर ह्रदय में पाय।
यही प्रेम – प्रगाढ़ता,
प्रभु से दे मिलाय॥1795॥

जिसके उर में प्रेम हो,
कोमल हृदय होय।
जीवै भगवद- भाव में,
और पर-पीड़ा खोय॥1796॥

चोला तो इन्सान का,
अन्दर से हैवान।
खरगोश की खाल में भेड़िये,
छुपे हुए शैतान॥1797॥

प्रेरक-पुरुष संसार में,
दुर्लभ मिलता कोय।
लोहे को सोना करे,
दूरितो को दे धोय॥1798॥

सन्यस्थ पका तब जानियो,
जब होवै तदरूप।
रमण करे उस ब्रह्य में,
जैसे सूरज – धूप॥1799॥

असुरत्त्व के भाव को,
मिटा देय देवत्त्व।
जैसे अग्नि – तेज को,
बुझा देय जल तत्त्व॥1800॥

लोक – व्यवहार में शून्य हो,
बेशक हो विद्वान ।
बिन खुशबू का फूल है,
मिले नहीं सम्मान॥1801॥
क्रमशः

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