ऋषि दयानन्द के धार्मिक तथा सामाजिक सुधार कार्य में अधिक समय रहने तथा उनके
राष्ट्रीय जागरण के प्रथम पुरोधा होने के कारण अनेक लोगों में यही धारणा बन गई है कि भारत की आध्यात्मिक चेतना को जगाने तथा भगवत् भक्ति के प्रसार में उनका योगदान अल्प है। ऐसा विचार उन लोगों का है जिन्होंने दयानन्द का सूक्ष्म अध्ययन नहीं किया। गहराई से देखें तो पता चलता है कि दयानन्द का गृहत्याग और संन्यास ग्रहण जिस विशिष्ट लक्ष्य को ध्यान में रखकर हुआ था, उसके पीछे अध्यात्म ज्ञान को प्राप्त करने की उनकी तीव्र ललक ही थी। शिवरात्रि-प्रसंग से उन्होंने सीखा कि निखिल विश्व ब्रह्माण्ड का नियन्त्रण करने वाली सत्ता जड़ नहीं हो सकती। वह कल्याणकारी शिव कौन है? तथा कैसा है जिसकी वंदना वेदों में अनेकत्र मिलती है? अपने घर में घटित हुए मृत्यु प्रसंगों ने उन्हें जिन्दगी और मौत के रहस्य को जानने की प्रेरणा दी। संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने अपने योग गुरुओं से उस ‘राजयोग’ का प्रशिक्षण प्राप्त किया जो समाधि सिद्धपूर्वक परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। भावी जीवन में परम देव परमात्मा के प्रति उनका प्रणत भाव सदा रहा। अपने महान् कार्यों की पूर्ति में उन्होंने परमात्मा देव की सहायता की याचना की और आजीवन एक आस्तिक भक्ति का जीवन बिताकर अपने आराध्य के प्रति स्वयं को अपर्ण कर दिया। स्वामीजी की धारणा थी कि धर्म, समाज और राष्ट्र को समुन्नत करने का जो महद् अभियान उन्होंने चलाया है उसमें परमात्मा की प्रेरणा तथा सहायता ही सर्वोपरि रही है। वे परमात्मा के अनन्य उपासक थे। समर्पण भाव को लेकर जगन्नाथ के सूत्रधार के सम्मुख आने वाले से एक ऐसे विनम्र सेवक थे जिन्होंने अत्यन्त भाव प्रवण होकर अपने आराध्य देव से कहा था- “आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते।” शास्त्रार्थ समर में उतरने से पहले दयानन्द दीर्घकाल तक परमात्मा की उपासना करते थे, मानों अपने आराध्य से सत्य पक्ष की विजय दिलाने की प्रार्थना करते हो। लोकहित के अपने सभी कार्यों और अनुष्ठानों में वे परमात्मा को अपना परम सहायक मानते थे।
छः दर्शन शास्त्रों की तर्ज पर कालान्तर में नारद और शाण्डिल्य के नाम से भक्ति सूत्र रचे गए। उनमें सूत्र शैली से भक्ति तथा उसके आनुषंगिक प्रसंगों की विस्तृत मीमांसा प्रस्तुत की गई है। आचार्य शाण्डिल्य ने भक्ति को इस प्रकार परिभाषित किया है- या परा अनुरक्ति: ईश्वरे सा भक्ति:। अर्थात् परमात्मा के प्रति पराकोटि की अनुरक्ति (प्रेम) ही भक्ति है। इन ग्रन्थों में नवधा भक्ति का जो उल्लेख मिलता है उससे अनुमान होता है कि भक्ति सूत्रों की रचना उस युग में हुई थी जब पौराणिक मत का प्रचलन हो चुका था तथा जनता में प्रतिमा पूजन, अवतारवाद आदि की धारणाएं चल पड़ी थीं। इन ग्रन्थों में बृज गोपिकाओं के आदि के सन्दर्भ दिए गए हैं, वे इन्हें पुराणों के परवर्ती काल का होना बताते हैं।
ऋषि दयानन्द के परमात्मा की भक्ति और व्यक्ति का मनोनिवेश करने वाला एक ग्रन्थ लिखा था ‘आर्याभिविनय’ उनका विचार था चारों वेद संहिताओं में प्रत्येक से न्यून से न्यून पचास मन्त्रों को लेकर उनकी भगवत्भक्ति से ओतप्रोत भावपूर्ण व्याख्या की जाये। इस ग्रन्थ में प्रथम तथा द्वितीय प्रकाश (ऋग्वेद के ५३ तथा यजुर्वेद की ५५ मन्त्र युक्त) लिखे गए तथा छपे। अवशिष्ठ साम तथा अथर्ववेद के विनय प्रधान मन्त्रों की परमात्मा की स्तुति है या प्रार्थना, इसका संकेत वे मन्त्रारम्भ में कर देते हैं। ग्रन्थारम्भ के स्वरचित श्लोकों में दयानन्द ने परमात्मा की भावपूर्ण स्तुति की है।
सर्वात्मा सच्चिदानन्दोऽनन्तो यो न्यायकृच्छुचि:। भूयात्तमां सहायो नो दयालु: सर्वशक्तिमान्।
अर्थात् जो परमात्मा सबका आत्मा, सत्, चित्, आनन्दस्वरूप, अनन्त, अज, न्याय करनेवाला, निर्मल, सदा पवित्र, दयालु, सब सामर्थ्य वाला, हमारा इष्टदेव है, वह हमको सहाय नित्य होवे।
साथ ही इन श्लोकों में वे यह संकेत देते हैं कि समस्त लोगों के हित तथा परमात्मा के ज्ञान के लिए वे मूल मन्त्रों के साथ-साथ उनको लोक-भाषा में व्याख्यान जन साधारण को बोध कराने के लिए दे रहे हैं। दयानन्द की सम्मति में जो ब्रह्मविमल, सुखकारण, पूर्णकाम, तृप्त, जगत् में व्याप्त है वही वेदों से प्राप्य है। जिसके मन में इस ब्रह्म की प्रकटता (यथार्थ ज्ञान) है, वही मनुष्य ईश्वर का आनन्द का भागी है और वही सदैव सबसे अधिक सुखी है। ऐसे मनुष्य को धन्य मानना चाहिए। इन प्रास्वाविक श्लोकों से हमें दयानन्द के भक्तिवाद को समझने में सहायता मिलती है।
आर्याभिविनयम् की रचना केवल ईश्वर भक्ति में लोगों को नियोजन करने के लिए ही की गई हो, ऐसी बात नहीं है। दयानन्द मध्यकाल के अनेक भक्तों की भांति लोगों को भाग्यवाद तथा पुरुषार्थहीनता का पाठ पढ़ाने वाले नहीं थे। यही कारण है कि आर्याभिविनय में एक और प्रभुभक्ति तथा अपने आराध्य के प्रति समर्पण की भावना दिखाई पड़ती है। तो साथ ही उस- ‘राजाधिराज परमात्मा’ से स्वराज्य तथा आर्यों (सत्पुरुषों) के अखण्ड चक्रवर्ती साम्राज्य की याचना भी की गई है। परमात्मा के प्रति दयानन्द की अनन्य प्रीति को देखना चाहें तो इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम व्याख्यात ऋग्वेद के मन्त्र ‘शं नो मित्र: शं वरुण:’ की व्याख्या के आरम्भ में परमात्मा के प्रति किए गए सम्बोधनों की छटा को देखें। यहां न्यूनातिन्यून २७ सम्बोधनों से दयानन्द ने अपने आराध्य परमात्मा देव को सम्बोधित किया है। इसमें से अनेक सम्बोधनों में अनुप्रास प्रधान शब्दों का सौन्दर्य दर्शनीय है। यथा- विश्वविनोदक, विनियविधीप्रद, विश्वासविलासक तथा निर्मल, निर्सह, निरामय, निरुप्रदव आदि एक ओर यदि परमात्मा को ‘सज्जन सुखद’ कहा तो साथ ही उसे ‘दुष्ट सुताड़न’ कहना भी वे नहीं भूले। दयानन्द की दृष्टि में परमात्मा चतुर्विध पुरुषार्थ के प्रदाता हैं- वे यदि धर्म सुप्रापक हैं तो अर्थ-सुधारक तथा सुकामवर्द्धक भी हैं। मोक्ष प्रदाता तो वे हैं ही- यदि वे ‘राज्य विधायक’ हैं तो ‘शत्रु विनाशक’ भी हैं। वस्तुतः इस ग्रन्थ को लिखकर दयानन्द ने भारत के भक्ति सिद्धान्तों में एक नूतन क्रान्ति की थी, अतः दयानन्द के भक्तिवाद का तात्त्विक अध्ययन अपेक्षित हैं।
इस ग्रन्थ के अन्य मन्त्रों के व्याख्यानों में उन्होंने परमात्मा के लिए जो सम्बोधन सूचक शब्द लिखे हैं, वे भी व्यंजनापूर्ण हैं। जब वे परमात्मा को ‘महाराजाधिराज परमेश्वर’ कहकर सम्बोधित करते हैं तो उनकी प्रार्थना होती है- ‘हमको साम्राज्याधिकारी सद्द: कीजिए’। उनकी विनय है कि हम सुनीतियुक्त हों जिससे कि हमारा स्वराज्य अत्यन्त बढ़े (प्रार्थना सं० १७)। ‘वय’ जयेम त्वया युजा’ (ऋ० १/१०२/४) मन्त्र की व्याख्या के आरम्भ में उन्होंने परमात्मा को ‘महाधनेश्वर’ (मधवन्) तथा ‘महाराजा धिराजेश्वर’ कहकर पुकारा तथा उसने चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य (रूपी) धन को प्राप्त कराने की प्रार्थना की। यह ईश्वरभक्त दयानन्द ही है जो परमात्मा से आर्यों के अखण्ड भी विनय करता है कि ‘अन्य देशवासी’ राजा हमारे देश में कभी न हों तथा हम लोग पराधीन कभी न हों। (यजुर्वेद के मन्त्र ३७/१४ ‘इषे पिन्वस्व ऊर्जे पिन्वस्व’ की व्याख्या में) सामान्यतया भक्त अपने आराध्य से सुख, सौभाग्य, आरोग्य, धन-धान्य, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की याचना करता है। दयानन्द ने अपने परमात्मा से देश के लिए स्वराज्य तथा शिष्टजनों (आर्यों) के साम्राज्य की याचना के प्रति जो सम्बोधन शब्द प्रयोग किये हैं वे भी विशिष्ट अर्थवता लिये हैं। शतक्रतों (अनन्त कार्येश्वर), महाराजाधिराज परमेश्वर, सौख्य-सौख्य-प्रदेश्वर, सर्वविद्ययम आदि। वस्तुतः अनन्त गुणों वाले परमात्मा के सम्बोधन भी अनन्त ही होंगे।
परमात्मा की भक्ति दिखाने की वस्तु नहीं है। मध्यकाल में मूर्तिपूजा, नाम जप, तिलक, कण्ठी-छाप आदि साम्प्रदायिक प्रतीकों के धारण को भक्ति का साधन माना गया था। दयानन्द की सम्मति में परमात्मा के विविध गुणों के वाचक शब्दों के उल्लेखपूर्वक उस परम सत्ता को नमन करना ही उसकी भक्ति का उत्कृष्ट रूप है। यदि हम उनके द्वारा रचित ग्रन्थों के आरम्भ के मंगलसूचक वाक्यों को देखें तो ज्ञान होगा कि स्वामीजी के लिए परमात्मा क्या है? और कैसा है? यहां कुछ ऐसे ही ग्रन्थारम्भ में लिखे गए नमस्कार विषयक वाक्य दिए जा रहे हैं। जो दयानन्द की दृष्टि में परमात्मा के स्वरूप तथा गुणों के ज्ञापक हैं-
१. ओ३म् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम: -सत्यार्थप्रकाश
२. ओ३म् तत्सत्परब्रह्मणे नम: -आर्याभिविनय
३. ओ३म् ब्रह्मात्मे नम: -वर्णोच्चारण शिक्षा
४. ओ३म् खम्ब्रह्मा -काशी शास्त्रार्थ
५. ओ३म् खम्ब्रह्मा -सत्यधर्म विचार
६. गोकरुणानिधि में परमात्मा का स्मरण इस प्रकार किया गया है। ‘ओ३म् नमो विश्वम्भराय जगदीश्वराय’ इसमें दयानन्द का भाव यह है कि जो विश्वभर में है वही तो गो आदि उपयोगी प्राणियों का भरण-पोषण करने का भी सामर्थ्य रखता है। जो ईश्वर सर्वशक्तिमान् है उसमें गौ आदि की रक्षा करने का भी सामर्थ्य है।
७. ओ३म् नमो निर्भ्रमाय जगदीश्वराय -अनुभ्रामोच्छेदन
वेद के निर्भ्रान्त ज्ञान को देनेवाला परमात्मा स्वयं निर्भ्रम है। ऐसे सार्थक नमस्कार वाक्य लेखन की परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति दर्शाते हैं।
[स्त्रोत- आर्य जगत् : आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा का साप्ताहिक पत्र का ८-१४ मार्च, २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]