ओ३म्
=========
हम जिस संसार को देखते हैं वह अति प्राचीन काल से विद्यमान है। यह कब बना, इसका प्रमाण हमें वेद, वैदिक साहित्य एवं इतिहास आदि परम्पराओं से मिलता है। आर्य लोग जब भी कोई पुण्य व शुभ कार्य करते हैं तो वह संकल्प पाठ का उच्चारण करते हैं। इसमें कर्मकत्र्ता यजमान का नाम, पिता का नाम, गोत्र, स्थान आदि के साथ संवत्सर सहित सृष्टि संवत् का उच्चारण भी किया जाता है। यह सृष्टि संवत्सर सृष्टि के आरम्भ से प्रवृत्त होकर वर्तमान समय तक चला आया है और आर्यसमाज सहित हमारे सनातनी बन्धुओं के कर्मकाण्ड व पूजा-पाठ आदि के अवसरों पर भी प्रयोग किया जाता है। इस मान्यता के अनुसार वर्तमान सृष्टि संवत्सर 1,96,08,53,123 चल रहा है। हमारे ज्योतिष आदि ग्रन्थों में काल गणना के लिए इसका विधान है। इसके अनुसार सृष्टि की आयु ईश्वर का एक कल्प अर्थात् 1000 चतुर्युगी होती है जिसमें 14 मन्वन्तर होते हैं। 1 मन्वतर में 71 चतुर्युगी होती हैं। इन मन्वंतरों के नाम भी ज्योतिष ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। वर्तमान के मन्वंतर व इसकी चतुर्युगियों का वर्णन भी हमें उपलब्ध है जिससे गणना करने पर उपर्युक्त संवत्सर की गणना होती है। एक चतुर्युगी में कलियुग, द्वापर, त्रेता व सतयुग चार युग होते हैं। इनसे मिलकर एक चतुर्युगी बनती है। इन सब युगों की वर्षों में अवधि का भी हमें ज्ञान है। यह सब बातें सत्य व यथार्थ हैं। इसमें कल्पना व असत्यता कहीं नहीं है। इस पर विश्वास इस लिए भी करना आवश्यक है क्योंकि यह वैज्ञानिकों की गणना के लगभग समान ही है। इससे यह ज्ञात होता है कि हमारी सृष्टि 1.96 अरब वर्ष से कुछ अधिक वर्ष पुरानी है। सृष्टि की आदि में मनुष्य अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुए। यह बात सर्व-स्वीकार्य होनी चाहिये। सृष्टि में मनुष्य की उत्पत्ति माता पिता से होती है, अतः सृष्टि के आरम्भ में जब माता-पिता नहीं थे, तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि सृष्टि का आरम्भ अमैथुनी सृष्टि से हुआ। यह अमैथुनी सृष्टि कैसे हुई, इसका कारण जानने पर यह ज्ञात होता है कि चेतन मनुष्य की तरह संसार या ब्रह्माण्ड में एक विराट सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वातिसूक्ष्म, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, आनन्दयुक्त, अजन्मा व अमर सत्ता है जिसे ईश्वर, परमात्मा, सृष्टिकर्ता आदि कहते हैं। उसी ने सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, समीम, एकदेशी जीवों के लिए उनके पूर्व कर्मानुसार अपनी पूर्व सृष्टि के ज्ञान व अनुभवों के आधार पर पहले अमैथुनी सृष्टि की और उसके बाद जो युवा स्त्री व पुरुष उस परमात्मा ने बनायें उनसे मैथुनी सृष्टि की परम्परा चल पड़ी जो अब भी जारी है और प्रलय पर्यन्त जारी रहेगी।
यदि हम ईश्वर से इस सृष्टि की रचना व उत्पत्ति मानते हैं जो कि वस्तुतः हुई है, तो यह भी स्वीकार करना होगा कि उस चेतन सत्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य को भाषा व मनुष्य के कर्तव्यों, मनुष्य जीवन के उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी अवश्य दिया होगा। प्रयत्न करने पर ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान वेद सिद्ध होता है। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। यह ज्ञान ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के रूप में परमात्मा से आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को उनके अन्तःकरण में ईश्वरीय प्रेरणा से प्राप्त हुआ था। कुछ पीढ़ी बाद ऋषियों ने इस ज्ञान को चार वेद संहिताओं में लेखबद्ध किया जो आज भी शुद्ध रूप में उपलब्ध है। वेद के द्वारा परमात्मा से सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य को भाषा का ज्ञान भी प्राप्त हुआ था और जीवन के निर्वाह के लिये जो व जितना ज्ञान आवश्यक है वह सब भी ईश्वर ने चार ऋषियों के माध्यम से तत्कालीन मनुष्यों को उपलब्ध कराया था। वेद की प्रामाणिकता का जहां तक प्रश्न है, वेद में कोई बात ज्ञान, विज्ञान, तर्क व युक्ति के विरुद्ध नहीं है। वेद के सभी विचार व सिद्धान्त मौलिक व सृष्टिक्रम के अनुकूल होने से सत्य हैं। वेद जैसी पूर्णता संसार के किसी ग्रन्थ में नहीं है। वेद में मनुष्य जाति के जिन कर्तव्यों का वर्णन हैं उनमें से अनेक वर्तमान समय में दुनियां के अनेक देशों में प्रचलित हैं। इससे यह अनुमान लगता है कि समस्त विश्व में भारत के ही लोग प्राचीन काल में वहां जाकर बसते रहे हैं। इसका उल्लेख स्वामी दयानन्द जी के पूना प्रवचनों में भी हुआ है। वेदों के आधार पर ही वेदों के अंग व उपांग ग्रन्थों की ऋषियों ने रचना की। उपनिषदों का आधार भी वेद ही हैं। इन सभी ग्रन्थों से ईश्वर व आत्मा का जो स्वरूप उपस्थित होता है उसे तर्क, युक्ति व योगाभ्यास से भी सिद्ध किया जा सकता है। वही स्वरूप सत्य और बुद्धिगम्य होने से यथार्थ है। ऐसे अनेक प्रमाण ईश्वर व ईश्वरीय ज्ञान वेद आदि के समर्थन में मिलते हैं।
वेद और दर्शन ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानते हैं। इस पर भी यदि विचार करें तो ज्ञात होता है कि कोई भी बुद्धिपूर्वक रचना जो किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाती है, उसे एक बुद्धियुक्त चेतन सत्ता ही कर सकती है। हमारा यह अनन्त ब्रह्माण्ड एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि व नित्य सत्ता से ही बना है। ईश्वर का ऐसा ही वर्णन वेद और वैदिक समस्त साहित्य में मिलता है। यजुर्वेद में एक मंत्र ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात्’ आता है जिसमें कहा गया है कि मैं उस सृष्टिकर्ता महान पुरुष ईश्वर को जानता हूं जो अन्धकार से रहित और सूर्य के समान प्रकाशमान है। उस ईश्वर को जानकर ही मनुष्य मृत्यु को पार कर सकता है अर्थात् जन्म-मरण से छूट कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। संसार में मृत्यु से पार जाने का अन्य दूसरा उपाय नहीं है अर्थात् ईश्वर को जाने बिना कोई मनुष्य जन्म मरण के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता। हमें लगता है कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य सृष्टि के इस रहस्य को स्वयं नहीं जान सकता था। ईश्वर ने ही मनुष्य को यह ज्ञान जनाया है कि ईश्वर आदित्य के समान प्रकाश से युक्त व अन्धकार से मुक्त है। उसी को जानकर मनुष्य जन्म-मरण रूपी दुःखों से छूट सकता है। ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखकर कर भी वेदों की भाषा व ज्ञान को अपौरुषेय सिद्ध किया है।
यह सृष्टि परमात्मा से ही उत्पन्न हुई है। शास्त्र बतातें हैं कि मूल प्रकृति सत्, रज व तम गुणों वाली है। इस प्रकृति से ही सूर्य बना जिसके प्रत्यक्ष मुख्य गुण प्रकाश व ताप देना हैं। वह सारे सौर्य मण्डल को भी गति देता है साथ हि गति व आकर्षण आदि से ग्रह व उपग्रहों को परस्पर टकराने नहीं देता। ईश्वर पूरे ब्रह्माण्ड का धारणकर्ता है और सभी को नियमों में रखता है। सूर्य के गुण पृथिवी से भिन्न हैं। जो पृथिवी के लिए आवश्यक हैं वह सब गुण और भिन्न भिन्न पदार्थ पृथिवी पर पाये जाते हैं। यहां वायु भी है, जल भी और अग्नि सहित भूमि भी है। भूमि पर तापक्रम ऐसा है कि जिसमें मनुष्य व अन्य प्राणी उत्पन्न होने के साथ अपने कर्मों का भोग कर सकते हैं। केवल सूर्य व पृथिवी होते तो भी मनुष्यों का जीवन सम्भव न होता यदि पृथिवी का उपग्रह चन्द्रमा न होता। अतः परमात्मा ने चन्द्रमा भी बनाया जो अनेक प्रकार से ओषधियों व वनस्पतियों में रस आदि भरने के साथ चन्द्र मास, शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष आदि का निर्माण करता है। यदि चन्द्रमा न होता तो हमें महीना कब आरम्भ होता है और कब समाप्त होता है, यह भी ज्ञान न होता। वैदिक धर्म और इसकी सभी मान्यतायें ज्ञान, विज्ञान व तर्क पर आधारित हैं जिनका आधार सृष्टि के सत्य सिद्धान्त हैं। इसी कारण से वेदों पर आधारित वैदिक धर्म और संस्कृति आज भी विश्व में सर्वश्रेष्ठ है।
ईश्वर की सिद्धि वेद एवं वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय व चिन्तन मनन से भी होती है। रज व तम गुणों अल्पता तथा सत्गुण की प्रचुरता मनुष्य की आत्मा को वेदों में वर्णित और ऋषि दयानन्द द्वारा लिखित व प्रचारित अध्यात्म विषयक सभी बातें सत्य व उपयुक्त लगती हैं। यदि हम वेद पढ़कर कर वेद वर्णित ईश्वर के गुणों से उसकी उपासना व ध्यान करते हैं तो इससे दीर्घकाल तक प्रयत्न करने से ईश्वर व आत्मा का साक्षात्कार भी होता है। ऋषि दयानन्द ऐसे योगी थे जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया था और उनके ईश्वर साक्षात्कार का आधार उनका ईश्वर विषय ज्ञान व योग साधना थी। यही कारण था कि उन्होंने अपने सभी शिष्यों को प्रातः व सायं सन्ध्या द्वारा ईश्वर का ध्यान करने की सलाह दी और उनके लिए प्रातः व सायं अग्निहोत्र यज्ञ करने का भी विधान किया। योग दर्शन में समाधि का वर्णन है। इस समाधि अवस्था में ही योगी, उपासक व ध्याता को ईश्वर का साक्षात्कार होता है। दर्शन ग्रन्थों में ईश्वर साक्षात्कार को विवेक की प्राप्ति बताया गया है। ईश्वर साक्षात्कार ही से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही मनुष्य जीवन का मुख्य लक्ष्य है।
वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून में महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी ने बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व एक घटना सुनाई थी। एक मैडीकल सांइस के प्रोफेसर ने उन्हें बताया था कि विश्व के अनेक देशों में जाकर चिकित्सा शास्त्र व जन्म मृत्यु पर व्याख्यान देने के बाद भी आज वह एक छोटी सी बात नहीं जान सके कि एक व्यक्ति ठोकर लगने से गिरता है, उसकी मृत्यु हो जाती है और एक बच्चा तीन-चार मंजिल ऊंची इमारत से गिर कर भी कभी कभी सुरक्षित कैसे रहता है? संसार में अनेक घटनायें घटती हैं जिनमें मनुष्यों का जीवित बचना सम्भव नहीं होता परन्तु कई दिनों तक मलबे में दबे रहने पर भी वह सकुशल बच जाते हैं। ईश्वर को रक्षक कहा जाता है। जन्म व मृत्यु में हमारे कर्मों का मुख्य योगदान होता है। ईश्वर ही हमारे पूर्व व इस जन्म के सभी कर्मों को जानता है। हम ईश्वर के कर्म फल विधान को पूरी तरह से नहीं जान सकते। ऐसी परिस्थितियों में जहां मनुष्य का जीवित बचना सम्भव न हो फिर भी यदि मनुष्य बच जाते हैं तो इसे ईश्वर की व्यवस्था व उसके द्वारा रक्षा ही कहा जा सकता है। ईश्वर है तभी तो उसकी व्यवस्था हममें से प्रत्येक व्यक्ति सहित इस सृष्टि में भी कार्य कर रही है। हमें तो यह अनुभव होता है कि ईश्वर इस सृष्टि में अवश्य है। उसी ने इस ब्रह्माण्ड की रचना जीवों के कर्म फल भोग के लिये की है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में इन विषयों पर जो लिखा है वह सर्वथा सत्य एवं विश्वसनीय है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य